थी खबर गर्म कि गालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए थे पै तमाशा न हुआ!
भारी चुनावी तनाव के बीच भारतीय जनता पार्टी गुजरात का अपना किला बचाने में और कांग्रेस से हिमाचल प्रदेश छीनने में सफल रही। जो मीडिया वाले गुजरात में कांग्रेस की लहर और नरेन्द्र मोदी का पतन देख रहे थे वह निराश होंगे। कोई तमाशा नहीं हुआ। उलटा देखा जाए तो भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव से अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया है और वह गुजरात में अभी भी कांग्रेस से 8 प्रतिशत वोट आगे है। हां, पार्टी 16 सीटें हार गई है। दो दशक में पहली बार इतनी कम सीटें मिली हैं। इसी से कांग्रेस बम-बम है, पर जैसे स्मृति ईरानी हमें बताना नहीं भूलीं, जो जीता वही सिकंदर!
लेकिन यह एक अजब चुनाव था। वह पार्टी जिसने 22 वर्षों की शासन विरोधी भावना के बावजूद गुजरात फिर जीत लिया और हिमाचल प्रदेश से विरोधी कांग्रेस को खदेड़ दिया, रक्षात्मक नजर आती है। दूसरी तरफ वह पार्टी जिसने एक और प्रदेश गंवा दिया और जिसके पास केवल 4 प्रदेश बचे हैं यह प्रभाव दे रही कि उसकी “नैतिक जीत” हुई है। क्या हुआ? यह प्रभाव क्यों फैल गया कि भाजपा की जीत उत्तम नहीं रही?
इसका बड़ा कारण है कि गुजरात आम प्रांत नहीं है। यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का गृह प्रदेश है और इसी ‘गुजरात मॉडल’ के बल पर वह देश के प्रधानमंत्री बने थे। यहां ही राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी उन्हें जबरदस्त टक्कर देने में सफल रही। मोदी ने वहां तीन दर्जन रैलियां की थी लेकिन सीटें 100 से नीचे खिसक गईं।
प्रधानमंत्री मोदी के प्रदेश में उनकी पार्टी से बेहतर प्रदर्शन की आशा थी आखिर अमित शाह ने 150 का आंकड़ा दिया था। प्रभाव उस छात्र का है जो सदैव अच्छे नंबर लाता रहा हो पर इस बार सिर्फ पास हुआ हो। गुजरात वह जगह है जहां भाजपा को आसानी से जीत जाना चाहिए था पर कुछ आर्थिक ठोकरों, कमज़ोर स्थानीय नेतृत्व तथा रिमोट कंट्रोल से सही सरकार देने में नाकामी के कारण गुजरात में भाजपा का घपला हो गया।
अपना गृह प्रदेश जीतना नरेन्द्र मोदी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। अगर भाजपा यहां हार जाती तो केन्द्रीय सरकार अस्थिर हो जाती इसीलिए उन्होंने खुद को मैदान में झोंक दिया और सारा मामला गुजरात की अस्मिता का बना दिया। लेकिन उन्हें भी आभास हो गया कि पहले की तरह इस बार उनका जादू नहीं चला। ‘मोदी’, ‘मोदी’, ‘मोदी’ के नारे कम सुनाई दिए। इसीलिए आत्म मंथन का समय है कि लोग नाराज़ क्यों हैं? आर्थिक तंगी के खिलाफ गुस्से के स्पष्ट संकेत है। नोटबंदी के बाद जो माहौल खराब हुआ था वह दुरुस्त नहीं हुआ। न ही इन साढ़े तीन सालों की जिन्दगी में सुधार हुआ। विशेष तौर पर किसान तथा युवा खफा हैं। किसान आत्महत्याएं नहीं रुक रहीं। सौराष्ट्र से कांग्रेस को मिली बढ़त बताती है कि ग्रामीण भारत दुखी है। दो साल फसल अच्छी नहीं रही। दूसरी तरफ युवा अब समझ रहे हैं कि गुजरात मॉडल नौकरियां पैदा नहीं कर रहा। युवा सब जानते हैं कि गिरी जीडीपी से कितना नुकसान हुआ है। सी-प्लेन के सफर से यह परेशानी दूर नहीं होंगी।
लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने 1 करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। पार्टी के 42 पृष्ठ के घोषणापत्र में ‘नौकरी’ तथा ‘रोजगार’ का वर्णन 26 बार किया था। यही नहीं हुआ। उलटा नोटबंदी तथा जीएसटी से जॉब मार्केट को धक्का पहुंचा। अब अवश्य स्थिति कुछ बेहतर हो रही है पर जिनका रोजगार छिन्न गया या जिनका धंधा चौपट हो गया वह तो माफ करने के लिए तैयार नहीं। यही किसान के आक्रोश का भी कारण है कि खेती लाभदायक नहीं रही और एमएसपी पर्याप्त नहीं। उनके लडक़ों के लिए रोजगार नहीं है।
उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान वाराणसी में नरेन्द्र मोदी ने कहा था “चुनाव जंग है और मैं सेनापति हूं।“ इसी भावना से वह चुनाव लड़ते हैं पर इसका यह भी मतलब है कि पार्टी में और कोई नहीं जो वोट बटोर सके। अमित शाह बढ़िया चुनाव मैनेजर हैं पर वोट वह भी इकट्ठे नहीं कर सकते। इंदिरा गांधी वाली हालत है। भाजपा के लिए मोदी जरूरी है। लेकिन आगे चुनौतियां बहुत है। 2019 के आम चुनाव से पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा कर्नाटक के चुनाव है जहां ‘अस्मिता’ का कार्ड नहीं चलेगा। मुकाबला सीधा कांग्रेस के साथ है। इन चुनावों मे चेहरे वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहाण तथा रमन सिंह होंगे। लोग पूछेंगे क्या जॉब बढ़ी? क्या भ्रष्टाचार कम हुआ? क्या कालाधन मिला?
अगर प्रधानमंत्री इस तरह चुनावों में लगे रहेंगे तो गर्वेनेस अर्थात शासन का नुकसान होगा। हमारा पड़ोस हमारे खिलाफ हो रहा है। पहले ही हम चीन और पाकिस्तान का विरोध झेल रहे हैं अब नेपाल में कम्युनिस्टों की बहुमत वाली सरकार आ गई है। श्रीलंका ने कर्जे के एवज़ में हमबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंप दी है। पाकिस्तान के गवाडर में चीन बड़ी बंदरबाह बना ही रहा है। अब तो पतले से मालदीव ने भी आंखें दिखानी शुरू कर दी हैं
और चीन के साथ दोस्ती बढ़ा रहा है। हमारा पड़ोस एकदम असुरक्षित हो गया है।
जहां तक कांग्रेस पार्टी तथा उसके ताज़ा अध्यक्ष का सवाल है उन्हें भी अधिक आत्म-संतुष्ट नहीं होना चाहिए। गुजरात के प्रदर्शन को भावी संकेत नहीं समझना चहिए। मीडिया का एक वर्ग राहुल पर महानता थोपने की कोशिश कर रहा है पर लोगों ने कांग्रेस को बहुमत नहीं दिया। भाजपा का शहरी वोट नोटबंदी और जीएसटी के बावजूद बरकरार है और हिमाचल में तो कांग्रेस की तबाही हो गई है। गुजरात में जो बेहतर प्रदर्शन हुआ है उसका श्रेय केवल कांग्रेस को ही नहीं बल्कि हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अलपेश ठाकरे जैसे जातिवादी गुटों के युवा नेताओं को भी जाता है। अर्थात कांग्रेस को बैसाखी की जरूरत है। अपने सारे सिद्धांतों को त्याग कर कांग्रेस ने जातिगत राजनीति की है। कांग्रेस के पास न अपना स्थानीय नेतृत्व है न संगठन जो कुछ हासिल किया है वह अधिकतर इन नेताओं की युवा शक्ति के बल पर किया है। निश्चित नहीं कि आगे ऐसा समर्थन मिलेगा।
जब तक स्थानीय नेतृत्व को उभारा नहीं जाता कांग्रेस का भविष्य नहीं है चाहे राहुल गांधी जनेऊ धारण करें या दादी की तरह रुद्राक्ष की माला पहने। उनका मानना है कि “मैं गलती कर सकता हूं”, बताता है कि वह परिपक्व हो रहे हैं पर उन्होंने भी यह साबित करना है कि वह स्थाई तौर पर वोट पकड़ सकते हैं या लोग उन पर भरोसा कर सकते हैं। अध्यक्ष के तौर पर शुरूआत दो पराजय से हुई है। कोई नहीं जानता है कि उनका विज़न अर्थात दूरदृष्टि क्या है? कार्यक्रम क्या है? अगर वह विकल्प है तो विकल्प है क्या?
हिमाचल प्रदेश का चुनाव परिणाम पूर्व अनुमान के अनुसार रहा। यहां एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा जीतती है। इस बार भाजपा की बारी थी लेकिन बिडम्बना है कि पार्टी तो जीत गई पर नेता, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल तथा प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती, हार गए। वीरभद्र सिंह ने हिमाचल की बहुत सेवा की है बेहतर होता वह चुनाव न लड़ते। अब प्रकाश सिंह बादल की तरह उन्हें विपक्षी बैंचों पर बैठना पड़ेगा पर उनका नाम डा. परमार के साथ हिमाचल निर्माता के तौर पर लिया जाएगा।
बहरहाल चुनाव का एक दौर खत्म हुआ। हमने फिर साबित कर दिया कि हम एक जीवंत जोशपूर्ण तथा धमाकेदार लोकतंत्र हैं। भाजपा से आशा है कि वह वार्तालाप को अप्रिय नहीं बनाएंगे। इन चुनावों का संदेश है कि कांग्रेस मुक्त भारत नहीं होने वाला। हमें अपना मजबूत विपक्ष चाहिए। चुनाव में अहमद या अलाऊद्दीन या औरगंज़ेब को घसीटने की जरूरत नहीं। वोट अपने कामकाज पर मांगे जाने चाहिए नफरत की राजनीति नहीं होनी चाहिए। इस वक्त वातावरण में अधिक उत्तेजना है प्रधानमंत्री को इसे शांत करने की पहल करनी चाहिए। उदयपुर की जिला अदालत के मुख्य द्वार पर कुछ लोगों ने भगवा झंडा लहरा दिया। ऐसी हवा को रोकने की जरूरत है।