पिछले सप्ताह मैंने कुछ दिन हिमाचल प्रदेश की ख़ूबसूरत काँगड़ा वादी के पालमपुर शहर के नज़दीक गुज़ारें हैं। कालेज के दिनों से मैं पालमपुर आता जाता रहा हूँ। बर्फ़ से ढके धौलाधार का नज़ारा, स्वच्छ जलवायु, कल कल करते झरने, मीलों फैले चाय के बगान इंसान को बार बार वहां आने के लिए मजबूर करतें हैं। हिमाचल के लोग वैसे ही बहुत शिष्ट और मेहमाननवाज़ हैं। इस बार भी कोरोना के कारण घर में महीनों क़ैद से निकलने के लिए पालमपुर का रास्ता किया। ज़हन में वही पुरानी तस्वीर थी पर बहुत कुछ बदला हुआ था, अच्छा भी बुरा भी। पालमपुर पुराना पालमपुर नही रहा उसमें एक आधुनिक शहर के गुण -अवगुण सब हैं। बाज़ार खचाखच भरा हुआ था। इतना ट्रैफ़िक है कि वन-वे करना पड़ा है। शहर को अच्छी तरह जानने के बावजूद हम भटक गए थे। यह देख कर ख़ुशी हुई कि शहर के बाहर भी कच्चे मकान नही रहे। गाँवों के घरों के आगे वाहन खड़े थे। हिमाचल प्रदेश की असाधारण तरक़्क़ी देख कर बहुत ख़ुशी होती है। पर पालमपुर, धर्मशाला और मैकलोडगंज,और रास्ते में पड़ते गाँव और क़सबे, देख कर यह भी अहसास हुआ कि इस तरक़्क़ी की पर्यावरण में बहुत बडी कीमत चुकाई गई है। वह जलवायु नही रही। होटल के हमारे कमरे में एयरकंडीशनर लगा था। अब छोटों छोटे झरने,जिन्हें कुल्ह कहा जाता है, के बहने की संगीतमय आवाज़ नही आती। अधिकतर के उपर निर्माण हो चुका है। मैकलोडगंज के पास भागसुनाग में बादल फटने से भारी तबाही हो चुकी है। पानी अपने साथ मकान और वाहन बहा ले गया। कालेज के दिनों में यहाँ नहाने के लिए हम पैदल जाते थे। आसपास एकाध छोटे मकान थे। अब ऊँची इमारतें हैं,वाहन हैं, ‘विकास’ वहां पहुँच चुका है!
मैकलोडगंज में कुछ समय बिताने के बाद अच्छी तरह समझ आ गई कि पहाड़ों की त्रासदी किस हद तक इंसान द्वारा रचित है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश और उतराखंड जैसे पहाड़ी प्रदेश सदैव ही भूस्खलन और बाढ़ आदि से ग्रस्त रहते हैं लेकिन अब जनसंख्या के दबाव, लोगों की लापरवाही और प्रशासन की कायरता के कारण प्राकृतिक आपदा भयंकर रूप धारण करती जा रही है। अवैध निर्माण और अवैध वन-कटाव से पहाड़ी राज्यों के पर्यावरण को गम्भीर चुनौती मिल रही है। पहाड़ी ढलान पर बसे मैकलोडगंज जैसे क़सबे में भी चार-पाँच मंज़िली इमारतें बनने दी गई हैं। भूस्खलन, बाढ़ या बादल फटने जैसी आफत में, जो पहाड़ी क्षेत्र में असामान्य नही है,यह ऊँची इमारतें बड़ा खतरा है। शिमला में भी भारी अवैध निर्माण हो चुका जिसके बारे नगर निगम हाथ खड़े कर चुका है। विशेषज्ञ बार बार चेतावनी दे चुकें हैं कि भूकम्प की स्थिति में शिमला में तो घर से भागने की भी ख़ाली जगह नही रही। जो कभी खच्चर के रास्ते थे वहां प्रदूषित करती एसयूवी भाग रहीं हैं।
पहाड़ी राज्यों में इस बरसात के दौरान जो तबाही देखी गई वह कुछ तो प्राकृतिक है पर बहुत अनियंत्रित विकास और इंसानी लालच का परिणाम है। 2013 में केदारनाथ में जो तबाही हुई थी उसमें लगभग 6000 जाने गईं थीं। अनियंत्रित निर्माण के कारण त्रासदी और विकराल हो गई क्योंकि बादल फटने से जो पानी बरसा उसे निकासी नही मिली और वह रास्ते में सब कुछ बहाता ले गया। जुलाई में हिमाचल प्रदेश में पौंटा साहिब-शलाई सड़क का 150 मीटर हिस्सा पहाड़ गिरने से बह गया। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के विशेषज्ञों के अनुसार अवैध खनन ने पहाड़ी ढलान को कमजोर कर दिया और भारी वर्षा में सड़क ही बह गई। सवाल तो यह ही है कि प्रशासन क्या कर रहा था? अगर समय रहते खनन को रोका जाता तो यह हादसा न होता। और कितनी ऐसी और जगह है? इस से भी भयंकर किनौर का हादसा है जहाँ पहाड़ ही वाहनों पर गिर गया जिनमें एक भरी हुई बस भी थी। अभी तक भी ज्ञात नही कि कितने लोग मारे गए। क्योंकि उपर पेड़ काटे गए थे इसलिए गिरते पत्थरों के रास्ते में कोई रूकावट नही रही।पिछले सप्ताह लाहौल में चन्द्रभागा नदी पर पहाड़ गिर गया जिससे कुछ समय के लिए नदी का बहाव रूक गया। लोगों की साँस रूक गई थी। यह तो अब सही चल रहा है पर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को इन गिरते कमजोर पहाड़ों से चिन्तित होना चाहिए।
एक रिपोर्ट के अनुसार इस महीने हिमाचल प्रदेश में 8 जगह भूस्खलन की गम्भीर घटनाएँ हुईं हैं और जुलाई से लेकर अब तक बरसात से सम्बन्धित घटनाओं में 250 जाने जा चुकीं है। 7 फ़रवरी को उतराखंड में चमोली के पास बादल फटने से भारी तबाही के साथ 200 लोग मारे गए हैं। पिछले महीने जम्मू कश्मीर में किश्तवाड़ में बादल फटने की घटना 7 साल के बाद सबसे गम्भीर बताई जा रही है। हिमाचल प्रदेश में चार बड़ी नदियाँ निकलती हैं जो तंग पहाड़ी इलाक़ों से निकल कर मैदानों तक पहुँचती है। असंख्य छोटी नदियाँ, नाले इनमें पानी डालतें हैं। पर कभी कभार इन नदियों का रौद्र रूप भी देखने को मिलता है। ब्यास नदी में आई बाढ़ से मनाली में भारी तबाही हो चुकी है। जून 2014 में अचानक पानी के आने के कारण वहां 24 छात्र छात्राऐं पानी मे बह गए थे। जलवायु परिवर्तन और विकास के नाम पर इंसानी दखल ने समस्या और गम्भीर बना दी है। हमे सड़कें भी चाहिए, बिजली भी, पुल भी। पर्यटन के लिए होटल भी चाहिए। बिजली परियोजना के लिए भी और यातायात के लिए भी पहाड़ काट कर अटल सुरंग जैसी 9 किलोमीटर लम्बी सुरंग बनाई गई है। इनके लिए पहाड़ ही नही पेड़ भी काटे जा रहें है। उनकी जगह जो वनरोपन किया जाता है उन में से मुश्किल से 10 प्रतिशत ही पेड़ बचते हैं। पहाड़ों की हरी छत का कम होना विनाश को आमंत्रित कर रहा है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए जो ढील दी जाती है वह भी महँगी साबित होती है क्योंकि नियमों का सही पालन नही होता। केदारनाथ में पानी अपने साथ कई होटल, दुकानें, ढाबे, पुल और सड़क भी बहा कर ले गया था।
विकास और पर्यावरण में संतुलन बनाना सदैव ही मुश्किल रहा है। सारी दुनिया इस समस्या से जूझ रही है पर हमारे देश में यह और जटिल हो गया है क्योंकि लोग बात नही मानते और सरकारें सख़्ती से बचती हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु में डरावना परिवर्तन आ रहा है। जुलाई का महीना विश्व के दर्ज किए गए इतिहास में सब से गर्म रहा है। जापान में इन दिनों 20 लाख लोगों को ख़ुद को भारी बरसात से बचाने की चेतावनी दी गई है। चीन में इतनी बाढ़ आई है कि 1000 साल का रिकार्ड टूट गया है। उत्तरी कैनेडा के ठंडे इलाक़ों में हीट-वेव से लोग मर चुकें हैं। अमेरिका में बार बार जंगल की आग और समुद्री चक्रवात के कारण शहरों में भारी जान और माल की तबाही हो चुकी है। जलवायु में वह परिवर्तन आ रहा है जो सैंकड़ों -हज़ारों सालों में नही देखा गया। बढ़ता तापमान मुसीबत बनता जा रहा है। जिस मास्को में मैंने मई 1967 में बर्फ़ देखी थी, वहां 120 साल का गर्मी का रिकार्ड टूट गया है। आर्कटिक के ठंडे कोहरा के लिए प्रसिद्ध क्षेत्रों में गर्मी पड़नी शुरू हो गई है और जिस तेज़ी से ग्लेशियर पिघल रहें है वह भयावह है। ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर के 234 ग्लेशियर पिघल चुकें हैं। पिछले साल ग्रीनलैंड कीबर्फ़ीली चादर में हर मिनट 10 लाख टन बर्फ़ पिघली थी। विशेषज्ञ बता रहें है कि उत्तरी साईबेरिया और कैनेडा का आर्कटिक़ का क्षेत्र बाकी दुनिया से चार गुना तेज़ी से गर्म हो रहा है।
अपने लालच और अपनी लापरवाही के कारण मानवता भयंकर जलवायु आपातकाल में प्रवेश कर रही है। सरकारें 2030 तक उत्सर्जन को आधा करने की बात तो कर रहीं है पर लखनवी अन्दाज़ में पहले आप! पहले आप! कर रहीं हैं। लेकिन हमें तो चौकस होना है क्योंकि हमें बार बार चेतावनी मिल रही है। कहीं पहाड़ गिर रहें हैं तो कही चक्रवात आ रहे है। बार बार भयंकर बाढ़ आरही है। हर मानसून में मुम्बई का पिछले साल से अधिक बुरा हाल होता है। पहले पूर्वी तट पर तूफ़ान आते थे अब पश्चिमी तट पर महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, गुजरात, गोवा सब चक्रवात की मार सह चुकें हैं। 1970 के बाद से हिमालय के ग्लेशियर कम घने हो रहें हैं, धीरे धीरे पीछे हट रहें हैं और कमजोर पड़ रहें हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का स्तर इसी तरह बढ़ता गया तो आगे चल कर हमारे छ: महानगर, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, कोच्चि, सूरत और विशाखापटनम खतरे में पड़ जाऐंगे। पर यह बाद की बात है। इस वक़्त तो हमारे पहाड़ी राज्यों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले साल की तुलना में हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटनाओं में 121 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है। उत्तराखंड में और भी अधिक तबाही हुई है। हम प्रकृति से बहुत अधिक छेड़छाड़ कर रहें हैं। ‘जल पुरूष’ के नाम से प्रसिद्ध डा. राजेन्द्र सिंह ने लिखा है, “विकास के नाम पर हम नदियों को जोड़ने, तोड़ने और मोड़ने का लगातार जघन्य अपराध कर रहें हैं”। बात सही है। उफान पर नदियाँ और गिरते पहाड़ तैयार हो रही आफ़त के बारे हमे सावधान कर रहें हैं कि हम प्रकृति की कीमत पर विकास कर रहें हैं। पर क्या हम सुधरने को तैयार भी हैं?