देश मे लम्बा चुनावी मौसम शुरू हो रहा है।12 नवम्बर को हिमाचल प्रदेश से शुरू हो कर छ: और प्रदेश, गुजरात,कर्नाटक,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के चुनावों को बाद 2024 में आम चुनाव होंगे। गुजरात चुनाव हिमाचल प्रदेश की तरह ही इन सर्दियों में होंगें। अभी गुजरात चुनाव की तिथि की घोषणा नहीं हुई पर सत्तारूढ़ भाजपा के लिए गुजरात का बहुत महत्व है क्योंकि यह ‘बिग टू’, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह, का गृह प्रदेश है। 2012 के चुनाव में भाजपा की सीटें जो 116 थीं वह 2017 के चुनाव में घट कर 99 रह गईं इसलिए कोई जोखिम नहीं उठाया जा रहा। प्रधानमंत्री मोदी वहाँ अभियान का नेतृत्व कर रहें हैं और जगह जगह गुजराती अस्मिता की बात कर रहें हैं। जहां तक हिमाचल प्रदेश का सम्बंध है, यहाँ की राजनीतिक परम्परा है कि एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस जीतती है। लोग किसी पार्टी की सरकार को रिपीट नहीं करते। वर्तमान सरकार भाजपा की है इसलिए उनके लिए प्रदेश का सरकार बदलने का रुझान चिन्ताजनक हो सकता है क्योंकि सरकार को सत्ता विरोधी भावना का सामना करना पड़ सकता है। 2012 में कांग्रेस को 42.81 प्रतिशत वोट और 36 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 38.47 प्रतिशत वोट और 26 सीटें मिली थीं। 2017 में भाजपा को विशाल 48.79 वोट मिला था और 44 सीटें मिली थीं। कांग्रेस का वोट 41.68 प्रतिशत था और सीटें 21 मिली थीं। अर्थात् चाहे भाजपा का वोट 10 प्रतिशत बढ़ा था पर कांग्रेस का वोट भी 41 प्रतिशत से कम नहीं हुआ। इसके साथ अगर यह जोड़ा जाए कि भाजपा की सरकार के बावजूद कांग्रेस तीन विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव जीतने में सफल रही थी तो स्पष्ट होता है कि भाजपा को हिमाचल प्रदेश का चुनाव क्यों गम्भीरता से लेना चाहिए।
वैसे तो आम आदमी पारटी भी चुनाव में हैं पर वह गम्भीर नहीं लगते। मुख्य मुक़ाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। 1998 में पंडित सुखराम ने तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश की थी पर केवल 9.63 प्रतिशत वोट ही प्राप्त कर सके और मोर्चा शीघ्र ग़ायब हो गया और पंडितजी का परिवार कांग्रेस और भाजपा का चक्कर लगा लगा कर आजकल भाजपा में है। इस समय दोनों भाजपा और कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौतियाँ है और कोई भी दावा नहीं कर सकता कि जनता का आशीर्वाद उसे प्राप्त है। भाजपा को फ़ायदा है कि उनकी सरकार है और लोगों में प्रधानमंत्री मोदी का आकर्षण बरकरार है। लोकल लीडरशिप पर भरोसा करने की जगह ‘डब्बल इंजन की सरकार’ पर सारा ज़ोर दिया जा रहा है। उत्तराखंड ने इसका फ़ायदा हुआ था और पार्टी सत्ता विरोधी लहर को पार करने में सफल रही थी। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जिन्हें मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया क्योंकि प्रेमकुमार धूमल चुनाव हार गए थे, बहुत कोई चमत्कार नहीं दिखा सके चाहे उन्हें शरीफ़ इंसान माना जाता है। पर पार्टी उनके नाम पर वोट नहीं माँग रही जैसे कांग्रेस वीरभद्र सिंह के नाम पर माँगती थी। भाजपा के पास चुस्त संगठन है और साधनों की कमी नहीं है। लेकिन असली फ़ायदा प्रधानमंत्री मोदी की छवि का है जो हिमाचल प्रदेश को अपना ‘दूसरा घर’ कह चुकें हैं। वह पहले प्रधानमंत्री है जो कुल्लू के दशहरे में शामिल हुए थे। बिलासपुर में एम्स का खुलना भी बहुत बड़ी उपलब्धि है।
पर भाजपा को शासन विरोधी भावना, जो सारे देश में नज़र आ रही है और जिसे कोविड के कारण बल मिला है, तकलीफ़ दे रही है। महंगाई और बेरोज़गारी दो ऐसे मुद्दे हैं जो परेशान करेंगे। गिरता रूपया अलग तकलीफ़ देगा और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की टिप्पणी कि रूपया नहीं गिर रहा उल्टा डालर मज़बूत हो रहा है, को पसंद नहीं किया गया। सेब उत्पादक अपनी जगह असंतुष्ट हैं। हिमाचल की सेब अर्थव्यवस्था 6000 करोड़ रुपए की है। सारे उपरी हिमाचल की अर्थव्यवस्था सेब पर निर्भर है। वहीं रोज़गार देती है और वह ही तय करती है कि 20 चुनाव क्षेत्रों में वोट किसे जाएँगे। सेब उत्पादक शिकायत कर रहें हैं कि उनके व्यापार में बड़े कारपोरेट दाखिल हो गए हैं जिससे उन्हें उचित दाम नहीं मिल रहा। विदेशी सेब के आयात ने हालत और ख़राब कर दी है।
लेकिन इन चुनावों में सबसे बड़ा मुद्दा बेरोज़गारी बनने जा रहा है जिसे पहचानते हुए प्रधानमंत्री ने भी ‘रोज़गार मेला’ आयोजित कर 75000 नियुक्ति पत्र बाँटे हैं। 10 लाख नौकरियाँ देने का वादा है, हिमाचल के हिस्से कितनी आती हैं यह मालूम नहीं। हिमाचल प्रदेश में पढ़े लिखे बेरोज़गार युवा बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि प्रदेश के पास साधन नहीं और न ही इतना उद्योग या सर्विस सेक्टर है कि बेरोज़गारों की खपत हो सके। सरकारी नौकरियों में भर्ती की सीमा है। यह भी शिकायत है कि उद्योग में अधिकतर भर्ती बाहरी लोगों की है। प्रदेश के बेरोज़गारों के आँकड़े बहुत तकलीफ़देह हैं। सरकार के अपने आँकड़ों के अनुसार प्रदेश में 8 लाख रजिस्टर्ड बेरोज़गार हैं जो प्रदेश की जनसंख्या का लगभग 12 प्रतिशत है। 76000 पोस्ट ग्रैजुएट और 1.41 लाख ग्रैजुएट बेरोज़गार हैं। 44 प्रतिशत रजिस्टर्ड बेरोज़गार महिलाऐं हैं।यह तो अच्छी बात है कि इतनी संख्या में महिलाएँ पढ़ रही है पर इतनी बड़ी संख्या में उनका बेरोज़गार रहना बताता है कि स्थिति कितनी चिन्ताजनक है। बेरोज़गार दर में हिमाचल प्रदेश देश में चौथे नम्बर पर है। यह केवल इस सरकार के कारण नहीं हुआ पर कोविड ने स्थिति और ख़राब कर दी और सामना इस सरकार को करना पड़ रहा है।
कांग्रेस पार्टी ने 5 लाख रोज़गार तैयार करने का वादा किया है पर कांग्रेस की अपनी समस्याएँ हैं जो उसे स्थिति का फ़ायदा उठाने नहीं दे रही। भाजपा की तरह आंतरिक चुनौती तो है ही क्योंकि जिन्हें टिकट नहीं मिला वह बग़ावत की धमकी दे रहें हैं। यह चिन्ता का विषय है कि देश में राजनीतिक वफ़ादारी इतनी कमजोर हो गई है। भाजपा तो फिर कुछ बची है पर कांग्रेस के तो कई बड़े नेता पाला बदल चुके हैं और भविष्य में बदल सकते हैं। हिमाचल में कांग्रेस की बड़ी समस्या है कि कोई ऐसा चेहरा नहीं जो लोगों को आकर्षित कर सके। कांग्रेस वीरभद्र सिंह के देहांत के बाद नेतृत्व की कमी महसूस कर रही है। किसी को नेता पेश भी नहीं किया जा रहा कि दूसरे बाग़ी न हो जाएँ। प्रतिभा सिंह को अपने पति वीरभद्र सिंह की विरासत का लाभ हो सकता है पर उनका अभी वह स्तर नहीं कि सारी पार्टी उन्हें स्वीकार कर ले। वह उस पार्टी का अभियान चला रही है जिसके कार्यकारी अध्यक्ष हर्ष महाजन और दो विधायक भाजपा में शामिल हो चुकें हैं। उपरी हिमाचल में सहानुभूति वोट उन्हें मिल सकतें हैं और उन्हें आशा है कि शासन विरोधी भावना और सेब उत्पादक की नाराज़गी का उन्हें फ़ायदा होगा।
कांग्रेस के पास कोई नेता नहीं जो प्रचार में नरेन्द्र मोदी की बराबरी कर सके। राहुल गांधी अपनी ‘भारत जोड़ों यात्रा’ में व्यस्त है। सोनिया गांधी सेहत के कारण बहुत सक्रिय नहीं रहीं। प्रियंका गांधी ने सोलन से पार्टी का चुनाव अभियान शुरू किया है जहां उन्होंने इंदिरा गांधी के योगदान को याद किया। ठीक है इन्दिरा गांधी ने हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाया था पर यह पुरानी बात हो गई। अब कांग्रेस को जवान हो रही नई पीढ़ी से जुड़ना है जो रोज़गार के लिए धक्के खा रही है। राहुल गांधी अपनी यात्रा में वह यह मुद्दा उठा रहें हैं पर हैरानी है कि उनकी यात्रा हिमाचल प्रदेश और गुजरात को छूएगी भी नहीं जहां चुनाव हो रहें है। मल्लिकार्जुन खड़गे नए अध्यक्ष चुने गए हैं। पर इस 80 वर्षीय बुजुर्ग का चुनाव उस देश में कोई अंतर नहीं डालेगा जो तेज़ी से युवा हो रहा है। अफ़सोस है कि कांग्रेस में बदलाव का मतलब भी यथास्थिति ही है।
हिमाचल प्रदेश के चुनाव का हैरान करने वाला पक्ष है कि आम आदमी पार्टी बहुत गम्भीरता से चुनाव नहीं लड़ रही, सारा ध्यान गुजरात पर है। समझा जाता था कि पंजाब जीतने के बाद आप हिमाचल प्रदेश में ज़बरदस्त अभियान चलाएगी।पर अप्रैल में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता भाजपा में शामिल हो गए थे उसके बाद पार्टी के पैर नहीं जमे और उनका सारा ध्यान गुजरात पर है। जुलाई में अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान ने हिमाचल प्रदेश में एक रैली को सम्बोधित किया था। उसके बाद से स्थानीय युनिट को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।केजरीवाल और भगवंत मान दोनों अब अधिक समय गुजरात में गुज़ारते हैं जहां वह भाजपा से अधिक कांग्रेस का वोट काटेंगे, जो आरोप विरोधी भी लगा रहें हैं। पंजाब के अधिकतर मंत्री और विधायक भी गुजरात में ही नज़र आतें हैं। यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि गुजरात की संस्कृति और भाषा अलग है जबकि पड़ोसी पंजाब और हिमाचल में बहुत कुछ साँझा है। पर आप की फ़ौज, अपने जरनैलों समेत, गुजरात में है। पंजाब में ओल्ड पैंशन स्कीम लागू करने की घोषणा का हिमाचल प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों पर अच्छा प्रभाव पड़ा है पर बेदिल चुनाव अभियान के कारण यह दो बड़ी पार्टियों की टक्कर ही लगती है।
हिमाचल प्रदेश का चुनाव2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण इम्तिहान है क्योंकि दोनों में सीधी टक्कर है। भाजपा के लिए ज़रूरी है कि वह अपना प्रदेश, जो अध्यक्ष जे पी नड्डा का भी प्रदेश है, बचा कर रखें। कांग्रेस के लिए ज़रूरी है कि वह अच्छा प्रदर्शन करे ताकि वह 2024 के लिए बड़े खिलाड़ी बने रहे। प्रदेश का सरकार बदलने का इतिहास कांग्रेस के पक्ष में जाता है क्योंकि यहाँ सत्ता विरोधी लहर सदा प्रभावी रहती है पर कमजोरी है कि नरेंद्र मोदी के बराबर का चेहरा नहीं है। आँकड़े बताते हैं कि जीत और हार का अंतर बहुत कम रहता है। पिछले चुनाव में 68 में से 20 चुनाव क्षेत्रों में जीत-हार का अंतर 3000 से कम रहा था। यह नाज़ुक आँकड़ा दोनों बड़ी पार्टियों के नेताओं की नींद हराम करने के लिए काफ़ी है।