‘द शो मस्ट गो ऑन’, रंग कैसा भी हो, The Show Must Go On Whatever It’s ‘Rang’

मुम्बई फ़िल्म उद्योग जिसे बॉलीवुड भी कहा जाता है जनकल्याण में लगा कोई समाज सेवी संगठन नही है। यह ‘उद्योग’ है जिसे नफ़ा नुक़सान की चिन्ता है। समय समय पर वह समाज की भावना को ज़रूर व्यक्त करते रहें हैं। ‘यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, जैसे गाने इंसान की परिस्थिति के सामने बेबसी को व्यक्त करते हैं। साहिर लुधियानवी की नज़्म ‘वो सुब्ह कभी तो आएगी’ बेहतर कल की उम्मीद जगाती है। अमिताभ बच्चन के ‘एंगरी यंग मैन’ व्यक्तित्व ने भी उस समय की भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ बुलंद की थी। पर बीच बीच में बॉलीवुड भटकता भी रहा। माफिया के पैसे की संलिप्तता से लेकर ‘कास्टिंग कोच’ की शिकायतें मिलती रहीं।  लोगों की कमजोर  भावनाओं का फ़ायदा उठाते हुए सस्ता और फुहड़ माल परोसा जाने लगा। महिला के शरीर का खूब शोषण किया गया। न जाने कितनी हीरोईन पतली साड़ी में बारिश में थिरक चुकीं है। अगर कोई आपत्ति करता तो ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ की आड़ में उसे चुप करा दिया जाता। राज कपूर जैसे बढ़िया निर्माता निर्देशक जो अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाते थे को भी आख़िर में महिला के शरीर का सहारा लेना पड़ा। सत्यम शिवम् सुन्दरम में जीनत अमान के कई दृश्य तो सॉफ़्ट-पोर्न से कम नही है। कहते है जब राज कपूर ने पाकिस्तानी एक्ट्रेस ज़ेबा बख्तियार को अपनी फ़िल्म हिना में लेने का फ़ैसला किया तो पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने उनसे विशेष अनुरोध किया कि ‘इसे झरने के नीचे न बैठाएँ’!

लेकिन अब समाज और ‘एडवांस’ हो चुका है। लिव-इन का जमाना है।  टपकती साड़ी से हम बिकिनी तक पहुँच गए जो छिपाती कम हैं, दिखाती अधिक। आखिर ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ है!  सैंसर बोर्ड भी उदार होता जा रहा है। घबराहट रहती है कि अगर वह सख़्ती करेंगे तो दक़ियानूस कह लिबरल उनकी धज्जियाँ उड़ा देंगे। बिकिनी को लेकर असंख्य दृश्य दिखाने के बाद  इस बार एक बिकिनी वाले गाने को लेकर बवाल मच गया है। कारण है कि शाहरुख़ खान की पठान फ़िल्म के उस गाने में दीपिका पादुकोण ने भगवा रंग की बिकिनी भी पहनी हुई है और उनसे रोमांस कर रहें हैं शाहरुख़ खान। कई हिन्दू संगठनों को बिकिनी के भगवा रंग पर आपत्ति है। इस से ‘उनकी धार्मिक भावना आहत हो रही हैं’। उपर से गाने का नाम बेशर्म रंग हैं इसलिए वह और अधिक  ‘आहत’ हैं। बॉयकॉट की धमकी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि हम इसे रिलीज़ नहीं होने देंगें। मध्यप्रदेश के गृहमंत्री जो पहले भी ऐसे मामलों में एक्टिव रहें हैं ने  धमकी दी है कि अगर इसे बदला नहीं गया तो वह फ़िल्म चलने नहीं देगें।

मंत्रीजी को इस बात की चिन्ता नहीं कि सैंसर बोर्ड ने इस फ़िल्म को हरी झंडी दी है। पर ऐसा यह देश बनता जा रहा है। यहाँ बहुत लोग हैं जिनकी  भावना नियमित तौर पर आहत होती रहती है। रोज़ कहीं न कहीं ऐसे एफ़आइआर दर्ज होने के समाचार मिलते रहते है। जहां तक इस गाने का सम्बंध है, यह अत्यंत भद्दा, अश्लील और फुहड है जिसका एकमात्र मक़सद अर्ध नग्न औरतों की बॉडी का प्रदर्शन है।  इस गाने के फ़िल्मांकन को देखना ही कष्टदायक है। क्योंकि बॉलीवुड की बहुत फ़िल्में फ़्लॉप हो चुकीं हैं इसलिए गंदा मसाला पेश किया जा रहा है। इंसान की नीच प्रवृत्ति का शोषण किया गया है। शाहरुख़ खान की आख़िरी फ़िल्म ज़ीरो  थी जिसे फ़्लाप करार दिया गया। शायद इसी से घबरा कर वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे इसलिए यह कामोत्तेजक गाना डाला गया है। खुद शाहरुख़ खान भी क़मीज़ उतार कर थिरकते नज़र आते है पर विवाद दीपिका की ‘भगवा’ बिकिनी को लेकर है। रंग ही समस्या  बन गया है, यहाँ तक कि सिनेमा हॉलों को फूंकने की धमकी दी जा रही है।

इस गाने में दीपिका पादुकोण ने तरह तरह के छोटे कपड़े डाले है। यह कई रंगों में है। भगवा बिकिनी वाला दृश्य तो अंत में 15-20 सैंकड के लिए ही फ़िल्माया गया है। सवाल तो है कि किसी भी रंग पर आपत्ति क्यों हो? क्या किसी रंग पर किसी वर्ग  का विशेषाधिकार हो सकता है? अतीत में बहुत अभिनेत्रियों ने भगवा कपड़े डाल कर ‘धक्क’ ‘धक्क’ किया है। तब आपत्ति नहीं आई, अब क्यों? क्या इसलिए कि माहौल ही ऐसा बन गया है कि समाज और धर्म के अनगिनत ठेकेदार पैदा हो गए है? या बॉलीवुड से समस्या है इसलिए बार-बार बॉयकॉट की धमकी दी जा रही है? या दीपिका पादुकोण से बदला लेना है क्योंकि वह जेएनयू गईं थीं, और शाहरुख़ खान तो हैं ही शाहरुख़ खान?

पर बॉलीवुड को भी  मंथन करना है।उनकी फ़िल्में फ़्लॉप क्यों हो रही हैं और साउथ की फ़िल्में रिकार्ड क्यों तोड रही हैं? बॉलीवुड के पास स्टोरी नहीं रही, स्टोरी साउथ के पास है। तीन साल से ब्रह्मास्त्र और कश्मीर फ़ाइलस को छोड़ कर लगभग सब फ़िल्में फलाप हुई है। आमिर खान जैसे बड़े सितारे की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा के हॉल ख़ाली थे। बॉलीवुड को समझना चाहिए कि जनता के पास ओटीटी के कारण और  विकल्प भी है। अगर आपके पास कहानी नहीं है तो किसी को महँगे टिकट ख़रीद कर थेयटर में जाने की ज़रूरत नहीं है। कश्मीर फाइलस को लेकर विवाद रहा है पर क्या कारण है कि इससे पहले किसी भी निर्माता-निर्देशक को कश्मीरी पंडितों की त्रासदी में कुछ दिखाने वाला नहीं मिला? जो लिबरल आज कह रहें हैं कि दीपिका पादुकोण को अपने शरीर के प्रदर्शन का अधिकार है वह सब कश्मीर फाइलस का विरोध क्यों कर रहें है? आख़िर यह भी तो अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला है।

मैंने साउथ की दो बड़ी फ़िल्में घर बैठे देखी हैं, आरआरआर  और कंतारा। दोनों की ज़मीन से जुड़ी कहानी है।  आरआरआर तो पूरे विश्व में 1000 करोड़ रूपए का बिज़नस कर तीसरी सबसे सफल भारतीय फ़िल्म बन गई है। 16 करोड़ रूपए में बनी कंतारा भारत में ही 300 करोड़ रूपए का बिसनस कर चुकी है।  बॉलीवुड ने ऐसी फ़िल्में कब बनाई थी? शोले शायद ऐसी अंतिम फ़िल्म थी उसके बाद तो करण जौहर सटाइल ब्रैंडड फ़िल्में ही पेश की गई जो बड़े शहरों की संस्कृति  पेश करती रही है। साउथ की जो फ़िल्में सफल हो रही है उनमें कहानी है जो दर्शक को पकड़ लेती है। न ही फ़िल्म को सफल बनाने के लिए  इन्हें हीरोइन को बिकिनी डलवानी पड़ी और न ही  सीनियर सिटिज़न एक्टर को सटीरॉयड से बने अपने सिक्स ऐब ही दिखाने की जरूरत थी। मनोरंजन के और बहुत साधन है, बॉलीवुड एकमात्र साधन नहीं रहा। फ़र्स्ट डे, फ़र्स्ट शो वाला जनून नहीं रहा। स्टार सिस्टम की भी एक्सपायरी डेट नज़दीक आ रही  है। आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख़ खान, अक्षय कुमार जैसों का जमाना ख़त्म होने को आ रहा है। अब वह अधिकतर गुट्खा विज्ञापनों में ही नज़र आएँगे।

 अमिताभ बच्चन  ने  कोलकाता फ़िल्मोत्सव के उदघाटन के समय कहा है , ‘आओ हम उन मतभेदों को मिटा देँ जो हमें बाँटती हैं’। फिर उनकी शिकायत थी कि, ‘ नागरिक आज़ादी और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सवाल उठाए जा रहें हैं’। जबसे राजनीति को ‘मल कुंड’  कह कर बच्चन राजनीतिक विषयों से अलग हो गए थे उसके बाद पहली बार है कि उन्होंने उस बात पर मुँह खोला है जो विवादित है, हमारे समाज में बढ़तीं असहिष्णुता। शाहरुख़ खान ने भी वहाँ सोशल मीडिया की संकीर्णता पर सवाल उठाए पर शाहरुख़ का पठान के कारण मामले से हित जुड़ा है। लेकिन जो अमिताभ बच्चन ने कहा उस पर गौर होना चाहिए।  बॉलीवुड का इस देश के प्रति बहुत योगदान है। वह हमारी सॉफ़्ट पॉवर का बड़ा हथियार है। अपने पिता की फाँसी के बाद बेनजीर भुट्टो ने बताया था कि जब जब वह मायूस महसूस करती थी तो मुकेश के गाने का कैसेट लगा कर कराची में कार में घूमने निकल जाती थीं। कुछ महीने पहले उज़बेकिस्तान में शंघाई कोपरेशन आरगनाईसेशन के डेलिगेट के स्वागत के लिए दूसरे गानो के साथ जिम्मी जिम्मी आजा आजा और आई एम ए डिस्को डांसर बजाए गए। देश में भी भावनात्मक एकता बनाने और सांस्कृतिक साँझ क़ायम करने में बॉलीवुड का बड़ा योगदान है। क्रिकेट और बॉलीवुड दो संस्थाएँ हैं जो सब की सांझी है, सैकयूलर हैं और जहां केवल प्रतिभा का आदर होता है। यह नहीं देखा जाता कि आप कौन हैं, कहाँ से आए हैं, आपका धर्म क्या हैं । जब तक प्रतिभा है तो आप दिलीप कुमार भी बन  सकते हैं और सचिन तेंदुलकर  भी।  प्रसिद्ध भजन ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’, के तीनों शिल्पकार मुसलमान थे, मुहम्मद रफी(गायक), शकील बदायूनी (गीतकार) और नौशाद ( संगीतकार)। बताया जाता है कि रिकार्डिंग के समय नौशाद साहिब ने सभी कलाकारों से कहा था कि वह ‘पाक साफ़ हो कर आऐं’।

यह मिश्रित और सामूहिक संस्कृति है जो खतरें में हैं। बार बार सैंसर बोर्ड द्वारा पारित फ़िल्मों के बहिष्कार की आवाज़ उठ रही है। यह बंद होना चाहिए। रणबीर कपूर की फ़िल्म बॉयकॉट करने का आह्वान किया गया क्योंकि कई साल पहले उन्होंने कुछ कहा था। आमिर खान की फिल्मों के बहिष्कार का आह्वान किया गया क्योंकि कुछ देर पहले उन्होंने ‘देश में बढ़तीं असहिष्णुता’ की शिकायत की थी। लाल सिंह चड्ढा फलाप हो गई पर ब्रह्मास्त्र हिट रही। बॉलीवुड को नियंत्रण करने की कोशिश हो रही है जो इस अरबों रूपए के मनोरंजन उद्योग को तबाह कर देगी। किसी फ़िल्म या उसके गाने या दृश्यों को नापसंद करना अभिव्यक्ति के अधिकार का हिस्सा है। बेशर्म  रंग से समस्या उसकी अश्लीलता और उसके भद्दे डांस सटैप्स से होनी चाहिए भगवा रंग से नही। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उन चार प्रदेश सरकारों की खिंचाई की थी जिन्होंने पद्मावत के प्रदर्शन पर पाबंदी लगाने की कोशिश की थी। बहुत ज़रूरी है कि बॉलीवुड भी अपने अन्दर झांके और समझें कि सॉफ़्ट पोर्न और अश्लीलता कलात्मक आज़ादी का हिस्सा नहीं है। अमिताभ बच्चन को  भी अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए कि बॉलीवुड समाज की मर्यादा का ध्यान रखे पर साथ ही  समाज के स्वयंभू ठेकेदारों को भी बाज आना चाहिए।बॉलीवुड को ख़त्म या कमजोर करने का प्रयास नहीं होना चाहिए। राज कपूर की फ़िल्म मेरा नाम जोकर में उनका संदेश याद रखना चाहिए कि ‘द शो मस्ट गो ऑन’। उसका रंग चाहे कुछ भी हो!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.