एक साल और गुजर गया। बाढ़, सूखा, महंगाई, असंतोष, बेरोज़गारी जो हर साल होती है उससे गुजरना पड़ा। युक्रेन में दस महीने से युद्ध चल रहा जिसका कोई अंत नज़र नहीं आता। साल के अंत में चीन ने एक बार फिर दुनिया को आतंकित कर दिया है। वहाँ शी जीनपिंग की बेवक़ूफ़ी के कारण कोविड तबाही मचाने जा रहा है। शमशानों के आगे लाइनें लगी हैं। पहली बार सरकार के खिलाफ सार्वजनिक प्रदर्शन हो रहें हैं। कोविड की पिछली लहरों और युक्रेन के युद्ध से परेशान दुनिया कुछ सम्भल रही थी कि चीन के नेतृत्व की नालायकी के कारण वह देश फिर मुसीबत का निर्यात करने जा रहा है। अगर वहाँ व्यापक स्तर पर तबाही होती है तो शी जीनपिंग का सिंहासन डोल सकता है पर दुनिया भी मंदी का सामना कर रही है।
इस साल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर हमने बता दिया कि हम में पुरानी ज़्यादतियों को सही करने की क्षमता है। पिछड़े संथाल आदिवासी समुदाय से सम्बन्धित द्रौपदी मुर्मू का देश का प्रथम नागरिक बनना शताब्दियों के शोषण और अत्याचार के अध्याय को समाप्त करने का प्रयास है। विकास के नाम पर इनके जंगल काटे गए, इन्हें अपनी ज़मीन से वंचित किया गया। कांग्रेस पार्टी ने भी मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाकर छवि बदलने की कोशिश की है। यह अच्छे संकेत हैं। हम इंग्लैंड को पछाड़ कर पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गएहै। चीन की परिस्थिति और उनकी निरंतर हो रही बदनामी के कारण हमारा महत्व बढ़ रहाहै। बहुत उद्योग चीन से निकलने की फ़िराक़ में है। अब हम पर निर्भर करता है कि हम उन्हें दबोच सकतें हैं या नहीं। वियतनाम जैसे देश कड़ा मुक़ाबला दे रहें है। हमारा इंफ़्रास्ट्रक्चर लगातार तरक़्क़ी कर रहा है। एक सिंगल राकेट से 104 सैटेलाइट लाँच कर इसरो ने हमारी क्षमता प्रदर्शित कर दी है। हम ब्रह्मोस मिसाइल का निर्यात कर रहेंहैं। अगर हम अपना घर सही सम्भाल लें तो एक दिन हम में सुपर पॉवर बनने की क्षमता है।
हमारी बढ़ती ताक़त और प्रभुत्व उन्हें परेशान कर रहा है जो सदा से भारत को चुनौती समझतें है, चीन और पाकिस्तान। पाकिस्तान का तो महत्व नहीं रहा और वह एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय भिखारी बनता जा रहा है। हमारी सरकार ख़ामख़ाह उन्हें इतना महत्व देती है कि हर बयान का ‘कड़ा जवाब’ दिया जाता है। उन्हें खुद आतंकवाद का गम्भीर सामना करना पड़ रहा है। असली चुनौती चीन से है। 2022 एक बार फिर बता गया कि चीन स्थाई खतरा है। जिस तरह दो साल पहले पूर्वी लद्दाख में गलवान में टकराव हुआ था उसी तरह अब तवांग में यांग्त्से में टकराव किया गया। चीन के 300 सैनिकों ने हमला किया जिसे खदेड़ दिया गया। इतनी बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों के घुसपैठ के प्रयास का मतलब है कि उपर से आदेश था। चीन हमें स्थाई तौर पर अस्थिर रखना चाहता है। क्योंकि सीमा अधिकतर निर्धारित नहीं है इसलिए चीन को बहाना भी मिल गया है। वह सीमा पर इंफ़्रास्ट्रक्चर में भारी वृद्धि कर रहें है। जगह जगह हवाई अड्डे बनाए जा रहे है लेकिन अभी तक बड़े हथियारों का इस्तेमाल नहीं किया गया। हम भी सड़कें और अड्डे बना रहे हैं पर चीन जैसी आर्थिक ताक़त हमारी नहीं है। लेकिन चीन भी जानता है यह 1962 वाला भारत नहीं है।
अगर हमने ड्रैगन का मुक़ाबला करना है तो अपनी आर्थिक ताकत बढ़ानी है और चीन को लेकर देश के अंदर एकराय क़ायम करनी है जो इस वकत ग़ायब है। संसद में चीन को लेकर बहस नहीं हुई। सरकार का कहना है कि यह संवेदनशील मामला है। यह बात ग़लत नहीं पर फिर सरकार को विपक्ष को विश्वास में लेना चाहिए। नेहरू की लगातार आलोचना से समन्वय क़ायम नहीं होगा। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि चीन से चुनौती मिलती रहेगी। वुहान या महाबलीपुरम की कथित ‘स्पिरिट’ बिलकुल उड़ चुकी है। चीन हमारे बढ़ते प्रभाव को रोकने का वह भरसक प्रयास करेंगी। नरेन्द्र मोदी को भी वही चुनौती मिल रही है जो जवाहरलाल नेहरू को मिली थी। चीनी विदेश मंत्री वैंग यी ने अब ज़रूर कहा है कि चीन भारत के साथ स्थिर सम्बंध चाहता है। उनकी बात पर नई दिल्ली में कोई विश्वास नहीं करेगा।
अगर हमने बाहरी चुनौती का सामना करना है तो देश के अंदर चैन और भाईचारा चाहिए, पर समाज बुरी तरह से विभाजित है। मीडिया, विशेष तौर पर टीवी मीडिया, का एक बड़ा हिस्सा समाज में दरारों को और चौड़ा करने में लगा हुआ है। जैसे राहुल गांधी ने भी शिकायत की है, सारा दिन यह लोग हिन्दू-मुसलमान करते रहतें हैं। आफ़ताब पूनावाला ने श्रद्धा वॉलकर के कई टुकड़े कर हत्या कर दी। इस जघन्य कांड की पूरी चर्चा होनी चाहिए, और हुई। कई मीडिया वालों ने बड़े जोश के साथ हत्यारे का नाम प्रचारित किया और उसे कथित ‘लव जेहाद’ का मामला बनाने का प्रयास किया। पर उसके बाद और ऐसे कांड हुए हैं पर वहाँ हत्यारों के नाम प्रचारित नहीं किए गए। सोशल मीडिया आग में तेल डालने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। हम शायद दुनिया के सबसे टैकनालिजी प्रवीण देशों में से एक हैं पर यही उपकरण कहीं हमें पीछे की तरफ़ ले जा रहे हैं। 500 साल पुरानी घटनाओं का बदला आज लेने की कोशिश हो रही है। भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने घर के चाकू तेज रखने का आह्वान किया है। यह किस ‘दुष्मन’ के खिलाफ इस्तेमाल होने है? अफ़सोस है कि शिखर पर कोई ऐसे उग्रवादियों को रोकने की कोशिश नहीं कर रहा। अगर हम पड़ोसी देश पाकिस्तान को देखें तो नज़र आएगा कि मज़हबी जनून एक देश के मुक़द्दर को कैसे तबाह कर सकता हैं।
गुजरात के चुनाव बता गए हैं कि नरेंद्र मोदी का मुक़ाबला नहीं है। अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा को गुजरात और हिमाचल प्रदेश सीमित कर गए है। ममता दीदी को टीएमसी के सकैंडल कमजोर कर गए हैं। पुराना जोश ख़त्म है। नीतीश कुमार बिहार तेजस्वी यादव के लिए छोडने की बात कर रहे हैं। प्रादेशिक चुनावों में भाजपा कमजोरी दिखा रही है। कर्नाटक जहां कांग्रेस अच्छी टक्कर दे रही है भाजपा को तकलीफ़ दे सकता है। पर लोकसभा का चुनाव परिणाम तो तय समझा जा रहा है। लेकिन चुनाव जीतने और राजनीति से उपर भी एक भारत है। वह भारत कहीं गुम होता जा रहा है जिसकी कल्पना रवींद्र नाथ टैगोर ने की थी, “ जहां मन हो भय से मुक्त और सर ऊँचा…जहां दुनिया संकीर्ण घरेलू दीवारों के टुकड़ों में न बँटी हो…”। ऐसा भारत हम कहीं चुनाव जीतने की लालसा में खो रहें हैं। चिन्ता है कि हम भावी पीढ़ियों के लिए कैसा भारत छोड़ कर जाएँगे? जो खुद से लड़ता झगड़ता रहेगा? राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा को जो ख़ामोश समर्थन मिल रहा है वह बताता है कि देश की दिशा को लेकर लोगों में भी चिन्ता उभर रही है। कि स्वास्थ्य मंत्री ने कोविड का बहाना लगा कर यात्रा को रोकने का अनाड़ी प्रयास किया है, बताता है कि इस को लेकर सरकारी पक्ष में भी कुछ बेचैनी है।
राहुल गांधी का कहना है कि नफ़रत के बाज़ार में उन्होंने मुहब्बत की दुकान खोल दी है। यह कथन थोड़ा नाटकीय ज़रूर है पर यह निर्विवाद है कि देश में वह एक वैकल्पिक विचारधारा को पेश करने में सफल हुए हैं जो विभाजित नहीं करती और सबको साथ लेने की कोशिश कर रही है। 100 दिन से अधिक लगभग 3000 किलोमीटर पैदल चल कर राहुल गांधी अपने समर्थकों और आलोचकों दोनों का ध्यान आकर्षित करने में सफल हुए है। इस सर्दी में भी वह टी- शर्ट डाले रोजाना 22-25 किलोमीटर पैदल चल रहें हैं। यह न केवल उनका शारीरिक और मानसिक अनुशासन प्रदर्शित करता है, यह उनकी प्रतिबद्धता भी बताती है। मीडिया के एक वर्ग की उपक्षा के बावजूद बहुत लोग उनसे जुड़ रहें हैं। इस देश ने ऐसे यात्रियों की सदैव इज़्ज़त की है। राहुल गांधी के लक्ष्य के बारे सवाल किए गए है। मैंने खुद पूछा था कि वह गुजरात और हिमाचल प्रदेश यह यात्रा लेकर क्यों नहीं गए? लेकिन अब इस यात्रा के ग़ैर- राजनीतिक विचार को देखते हुए उनके प्रति समर्थन बढ़ रहा है। हमारे पास बहुत बड़े बड़े राजनेता है। पर कोई भी राजनीति से उपर उठ कर लोगों से संवाद पैदा नहीं कर रहा। इसीलिए राहुल गांधी का प्रयास पसंद किया जा रहा है। भारत जोडो यात्रा 2022 की महत्वपूर्ण घटनाओं में गिनी जाएगी।
राजनीति से उपर भी एक भारत है जहां आज भी 80 करोड़ को मुफ़्त अनाज देने की ज़रूरत पड़ रही है। लाखों पढ़े लिखे बेरोज़गार हैं। भीषण सर्दी में भी कई लोग सड़कों पर खुले आसमान के नीचे सोने के लिए मजबूर हैं। जहां इतनी लाचारी और ग़ुरबत हो वहाँ हमारा ध्यान लव जेहाद और ऐसे मामलों पर लगा रहता है, या लगाया जाता है। हमारी राजधानी सबसे प्रदूषित शहरों में गिनी जाती है। उत्तर भारत से युवा पीढ़ी विदेश भागने की कोशिश में है। रोज़गार का भयंकर संकट है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने पैनल बनाया है जो अंतरजातीय विवाह पर निगरानी रखेगी। सरकार के बाक़ी काम पूरे हो गए क्या? यह चिन्ता पैदा करती है कि कुछ लोग दरारें भरने की जगह उन्हें चौड़ा करने में लगे रहतें हैं। अब तो महात्मा गांधी को भी नहीं बख्शा जा रहा। हम इस पर बहस कर रहें हैं कि राहुल गांधी अटलजी की समाधि पर क्यों गए, जबकि यह सामान्य होना चाहिए। ऐसे नकारात्मक माहौल में क्या हम आशा करने की धृष्टता कर भी सकते हैं कि अगला साल कुछ बेहतर होगा ? क्या आशा की ही आशा हो सकती है? क्या हम अपने बच्चों को वह भारत दे सकते हैं जिसमें उनकी प्रतिभा को खिलने का पूरा मौक़ा मिलेगा? क्या कुछ बदलेगा? हम वहाँ पहुँच रहे हैं जहां से टेक-ऑफ कर सकते है, सिर्फ़ वह मसले शांत होने चाहिए जो बाँटते है, गर्मी पैदा करते हैं, हमें पीछे की तरफ़ ले जातें है। पर हम वोट डालते हैं, सरकार चुनतें हैं। बेहतर भविष्य पर हमारा अधिकार होना चाहिए। जिगर मुरादाबादी की यह पंक्तियाँ याद आती हैं:
कभी शाख़ ओ सब्जा ओ बर्ग पर, कभी गुंचा ओ गुल ओ
मैं चमन में चाहे जहां रहूँ, मेरा हक़ है फ़सल-ए-बहार पर