
पहला समाचार महाराष्ट्र में मुम्बई से कुछ दूर पालघर से है जहां आदिवासी महिलाओं ने सरकार से मिले 5 किलो चावल और एक साड़ी यह कहते हुए लौटा दिए कि उन्हें ख़ैरात नहीं चाहिए, रोज़गार चाहिए। नरेन्द्र मोदी का चित्र लगे बैग में उन्हें राहत सामग्री भेजी गई थी पर लौटा दी गई क्योंकि उनका कहना था कि उन्हें मुफ़्त कुछ नहीं चाहिए, उन्हें सशक्त बनाया जाऐं, वह इज़्ज़त की रोटी खाना चाहतीं हैं। सरकार की तरफ़ से 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफत चावल या आटा दिया जाता है। और यह महिलाओं अपने बच्चों के लिए वह शिक्षा चाहतीं हैं जिनसे उन्हें बाद में रोज़गार मिल सके। दूसरा समाचार हमारे प्रीमियर इंस्टीट्यूट्स आईआईटी से है जहां पहली बार 30-35 प्रतिशत विद्यार्थी अभी भी सही नौकरी मिलने की इंतज़ार में हैं। पहली बार है कि कम्प्यूटर सांईस और इंजीनियरिंग के छात्र, जिनकी देश विदेश में सबसे अधिक माँग रहती है, के साथ ऐसा हो रहा है कि शत-प्रतिशत को नौकरी नहीं मिली। कुछ अभी भी नौकरी के बुलावे की इंतज़ार में हैं।
वैश्विक मंदी इसका बड़ा कारण है। एआई, आरटीफिश्यल इंटेलिजेंस से भी इस सैकटर की नौकरियों को ख़तरा है। पर अगर इतने पढ़े लिखे लोग भी उचित रोज़गार के लिए परेशान है तो यह देश की अर्थव्यवस्था की बहुत चिन्ताजनक तस्वीर पेश करती है। मैं डा.संदीप सिंह पीएचडी सब्ज़ीवाला के बारे लिख चुकां हूँ जो पीएचडी और चार एम.ऐ. करने के बाद भी रेहड़े पर रख सब्ज़ी बेचने पर मजबूर है। हमारे टैंकनालिजी सेक्टर जिस पर हम गर्व करते हैं, में जनवरी 2022 के बाद हज़ारों लोगों की नौकरी गई है। 25 साल के बाद पहली बार है कि आई टी सेक्टर भी सिंकुड़ रहा है। इस सब से अलग एक और बुरा समाचार है। तेलंगाना से गए मुहम्मद अफ़सान की रूस की तरफ़ से लड़ते युक्रेन सीमा पर मौत हो गई। उसे बताया गया कि मास्को में उसे काम मिलेगा पर 15 दिन की ट्रेनिंग के बाद सीमा पर भेज दिया गया। और भी हमारे लोग हैं जो धोखे में फँस गए और युक्रेन सीमा पर पहुँच गए। युद्धरत इज़राइल में भी हमारे लोग काम करने के लिए जा रहे है क्योंकि वेतन अच्छा है। मजबूरी है क्योंकि देश में नौकरी नहीं मिलती। विदेश में नौकरी की तलाश में हमारे नौजवान किस तरह भटक रहे हैं वह बहुत बार चर्चित हो चुका है। पिछले साल इंगलिश चैनल को पार कर ब्रिटेन में अवैध तौर पर घुसने के प्रयास में भारतीयों में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
यह सब अलग अलग घटनाऐं बता रही हैं कि दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ रही बड़ी अर्थव्यवस्था में रोज़गार का कितना बड़ा संकट पैदा हो चुका है। हम पंजाब में देख रहें हैं कि जो नौजवान बाहर जा सकता है वह बाहर भागने की कोशिश करता है। और जो बाहर चले गए वह वापिस आने के लिए तैयार नही। सीएसडीएस के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में यह सामने आया है कि देश के सामने दो सबसे बड़े मुद्दे बेरोज़गारी और महँगाई हैं, हिन्दुत्व या राम मंदिर नहीं हैं। सर्वेक्षण के अनुसार 27 प्रतिशत लोग बेरोज़गारी और 23 प्रतिशत महंगाई को मुख्य मुद्दा मानते है। 62 प्रतिशत का कहना है कि पिछले पाँच वर्षों में नौकरी ढूँढना और मुश्किल हो गया है। नोटबंदी, कोविड और लॉकडाउन का रोज़गार पर बहुत बुरा असर पड़ा है। विशेष तौर पर एमएसएमई अर्थात् लघु, कुटीर और मध्यम उपक्रम, को जो झटका मिला है उससे वह उभर नहीं सके जिसने रोज़गार को बुरी तरह से प्रभावित किया है। अर्थ व्यवस्था में मैनुफ़ैक्चरिंग का हिस्सा 13 प्रतिशत गिरा है। इस तरफ़ बहुत ध्यान देने की ज़रूरत है। अमेरिका की टफ्टस यूनिवर्सिटी के डीन भास्कर चक्रवर्ती ने लिखा है कि भारत को, “आई-फ़ोन, टैसला वाहन,सैमीकंडकटर ही नहीं बनाने चाहिए बल्कि छोटे और मध्यम उत्पादकों को सशक्त करना है…जो लेबर बेहतर खपा सकें”।
बेरोज़गार युवा किसी भी समाज को अस्थिर कर सकते है। इन्हें सम्भालने की बहुत ज़रूरत है। हम अमेरिका में देख रहें हैं कि किस तरह यूनिवर्सिटियों में फ़िलिस्तीन के पक्ष में प्रदर्शनो को लेकर छात्रों ने सरकार की नाक में दम कर रखा है। फ़्रांस में ऐसे प्रदर्शन बार बार होतें है। हम बचे हुए हैं क्योंकि लोगों में धैर्य है, पर इस धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। पिछले दशक से बहुत परिवर्तन आ गया है। लोगों के हाथ में मोबाइल है जो हर जानकारी घर घर पहुँचा रहें है। जो जानकारी छिपाने की कोशिश की जाती है वह भी इंटरनेट के द्वारा घर घर पहुँच रही है। बढ़ती ग़ैर- बराबरी चर्चा का विषय है। यह अच्छी बात है कि देश के धन को लेकर बहस हो रही है। हमें ग़रीबी नही बाँटनी पर बेहिसाब अरबपति पैदा करना भी सही दिशा नहीं है। अम्बानी, अडानी या टाटा जैसे उद्योगपतियों का योगदान है, यह स्वीकार किया जाना चाहिए। वह लाखों को रोज़गार देते है। सरकार को भारी टैक्स मिलता है, अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। पर दूसरा छोर भी तो है जहां 80 करोड़ को हम मुफ़्त राशन देने के लिए मजबूर हैं। दुनिया के हर देश में ग़ैर- बराबरी है पर सबसे अधिक हमारे देश में हैं। 1 प्रतिशत रईसों के पास राष्ट्रीय सम्पत्ति का 40.1 प्रतिशत और आय का 22.6 प्रतिशत हिस्सा है। देश की बढ़ती जीडीपी का वितरण सही नहीं हो रहा। आर्थिक दिशा पर राजनीति से उपर उठ कर राष्ट्रीय बहस की ज़रूरत है। दुनिया में तीसरी सबसे अधिक डालर-अरबपतियों की संख्या भारत में है जबकि दूसरी तरफ़ हमारे लगभग 1 अरब लोग रोज़ाना 250 रूपए से कम कमाते हैं। जनवरी 2023 में रोज़गार का सबसे चिन्ताजनक आँकड़ा 37.4 प्रतिशत हरियाणा से था जबकि यह एक प्रगतिशील प्रांत समझा जाता है।
हर सरकार ने रोज़गार देने की कोशिश की है पर हमारी आबादी है ही इतनी है कि यह असंभव सा काम लगता है। अनुमान है कि अगले कुछ दशकों तक हर साल 1.2करोड़ नए युवा वर्कर मार्केट में उतरेंगे। इनके लिए रोज़गार का प्रबंध कैसे होगा? लेबर इकानिमिस्ट के.आर.श्याम सुंदर ने इंडिया टुडे को बताया है कि बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में वेतनभोगी संख्या नहीं बढ़ रही। उनके अनुसार, “ ज़मीनी हक़ीक़त बताती है कि निम्न स्तर के खुद काम करने वाले बढ़ रहें है…” इनमें घरों मे काम करने वाले, रेढ़ी लगाने वाले या मज़दूरी करने वाले हैं। कहने को तो कहा जा रहा है कि युवा हमारा ख़ज़ाना है पर यह तब ही है अगर हम इन्हें सही रोज़गार दे सकें और इनके पास मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए पर्याप्त कौशल हो। दोनों ही नहीं है। सरकार की नई शिक्षा नीति में स्किल अर्थात् कौशल पर ज़ोर तो दिया जा रहा है पर अभी भी हमारी शिक्षा प्रणाली अधिकतर पढ़े लिखे अनपढ़ पैदा कर रही है। 2022-23 में 15-29 आयु के 16 प्रतिशत युवा अच्छी नौकरी के अभाव में या कौशल और सही शिक्षा की कमी के कारण बेरोज़गार थे। लगभग 30 प्रतिशत ग्रैजुएट बेरोज़गार हैं। अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन आईएलओ की 2024 की ‘इंडिया एमप्लौयमैंट रिपोर्ट’ के अनुसार भारत में रोज़गार ढूँढना, विशेष तौर पर पढ़े- लिखे युवाओं के लिए, बहुत मुश्किल है। काम की तलाश में भटकते युवाओं की संख्या डरावनी है। यह भी उल्लेखनीय है कि बेरोज़गारी पढ़े लिखों में अधिक है। इसी संकट का परिणाम है कि चार साल पहले की तुलना में आज कृषि सैकटर मे 6 करोड़ लोग अधिक काम कर रहें हैं। जो युवा नौकरी की तलाश में शहर की तरफ़ गए थे वह निराश वापिस गाँव लौट रहें हैं। इससे आर्थिक पीढ़ा और बढ़ेगी।
देश के अन्दर रोज़गार की बहुत मंद तस्वीर है। इसलिए जहां एक तरफ़ ध्यान हटाने का प्रयास (राजे-महाराजे बनाम नवाब, समाज का एक्स-रे आदि) हो रहा है तो दूसरी तरफ़ वादे किए जा रहें हैं। भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में ‘रोज़गार के पर्याप्त अवसर… गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा तक पहुँच’ का वादा किया है, पर यह नहीं बताया कि रास्ता क्या है? कांग्रेस ने गारंटी दी है कि हर शिक्षित युवा को एक लाख रुपये वार्षिक का अप्रेंटिसशिप अधिकार दिया जाएगा और 30 लाख सरकारी नौकरियों को भरा जाएगा। कांग्रेस यह नहीं बता रही कि साधन कहाँ से आएँगे जबकि भाजपा नेतृत्व को उम्मीद है कि जैसे जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होगा वैसै वैसे रोज़गार स्वयम् ही बढ़ेगा। लेकिन इस में समय लगेगा। युवा मिर्ज़ा ग़ालिब के साथ कह सकतें हैं:
ख़ाक हो जाऐंगे हम तुम को खबर होने तक !
कब तक पीएचडी और उच्च शिक्षा प्राप्त युवा चपरासी या क्लास फ़ोर की नौकरी के लिए भी धक्के खाते रहेंगे? अगर हताशा फैल गई तो बहुत बड़ी समस्या होगी। जो राजनीतिक तू तू मैं मैं आजकल हो रही है क्या उससे आभास भी होता है कि राजनीतिक वर्ग को युवाओं की तकलीफ़ का अहसास भी है? न ही शिक्षा क्षेत्र में वह सुधार किया जा रहा है जिससे युवा बाद में अपने पैरों पर खड़े हो सके। राजनीति और विचारधारा से उपर उठ कर शिक्षा क्षेत्र की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है। 2004 में वाजपेयी सरकार की हार के बाद प्रमोद महाजन ने कहा था कि ग़रीबों ने सरकार गिरा दी। इसलिए सावधान रहना चाहिए। जब तक युवाओं को उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप रोज़गार नहीं मिलता यह समस्या इस सरकार और आने वाली सरकारों को परेशान करती जाएगी।