नई सरकार का गठन हो गया। यह एनडीए की सरकार है। भाजपा बहुमत से बहुत नीचे है इसलिए समझा यह गया था कि मंत्री पद देते वक़्त वह सहयोगियों के दबाव में आजाएगी और उन्हें भारी भरकम विभाग देने के लिए मजबूर हो जाएगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। जदयू को मत्स्य पालन और टीडीपी को नागरिक उड्डयन मंत्रालय देकर संतुष्ट कर दिया गया। भाजपा ने अपने पास सभी बड़े विभाग रख लिए हैं जिनमें ‘बिग फ़ोर’ गृह-रक्षा-वित्त-विदेश भी शामिल है। स्पीकर का पद भी भाजपा अपने पास ही रखेगी। फ़िलहाल पुराना सिलसिला ही चल रहा है। चन्द्र बाबू नायडू नई राजधानी के लिए पैसा चाहतें हैं तो नीतीश कुमार को अपने भविष्य की चिन्ता है। दोनों ही इस वक़्त मोदी और अमित शाह के साथ पंगा नहीं लेना चाहेंगे। अजीत पवार जैसों की कोई हैसियत नहीं रही। जो सहयोगी सौदेबाज़ी करना चाहते थे उन्हें भी अहसास होगा कि भाजपा एनडीए की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी टीडीपी, से 15 गुना बड़ी है। और भाजपा के प्रबंधक संख्या इकट्ठा करने के मामले में माहिर हैं। उड़ीसा में एक आदिवासी चौकीदार के बेटे को मुख्यमंत्री बना कर भाजपा हाईकमान ने बता दिया की उनका ‘टच्च’ अभी भी क़ायम है। अच्छा संदेश गया है।
भाजपा नेतृत्व द्वारा मज़बूती दिखाने के बावजूद नीचे से ज़मीन कुछ हिली है। 63 सीटों का कम होना कष्टदायक रहेगा। संसद के अंदर बहुमत का बुलडोज़र अब नहीं चल सकेगा। गठबंधन धर्म का पालन करना पड़ेगा जो नया अनुभव होगा। 10 साल के बाद विपक्ष का नेता होगा और लोकसभा में उपाध्यक्ष होंगे। भाजपा नेतृत्व जिन्हें ‘घुसपैठिए’ कहता रहा उन्हें चन्द्र बाबू नायडू आरक्षण देना चाहतें हैं। ऐसे विरोधाभास परेशान करेंगे। अग्निपथ अलोकप्रिय योजना है, इस पर राजहठ छोड़ना पड़ेगा। महिला पहलवानों के उत्पीड़न के प्रति जो बेरुख़ी दिखाई गई थी वैसा भी अब नहीं हो सकेगा। साम्प्रदायिक राजनीति की अपील कम हो रही है। वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के वोट में 320000 की गिरावट मामूली नहीं है। फ़ैज़ाबाद-अयोध्या जहां जनवरी में राम मंदिर का उद्घाटन ज़ोर शोर से हुआ था, वहाँ जनरल सीट पर लड़ रहे सपा के दलित नेता ने दो बार विजयी रहे भाजपा के सांसद को 54000 से पराजित कर दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा के वोट में भारी 8.5 प्रतिशत और 29 सीटों की गिरावट हुई है। कई बड़े शहरों से अयोध्या जाने वाली उड़ानें रद्द हो रही है क्योंकि शुरू के जोश के बाद अब यात्री नहीं मिल रहे। यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान में बाँसवाड़ा जहां प्रधानमंत्री मोदी ने ‘घुसपैठियों’ की बात उठाई गई थी, वहाँ भाजपा हार गई।
जनता का संदेश सीधा है कि भावनात्मक मुद्दों की भी एक्सपायरी डेट होती है। लोगों का ध्यान रोज़मर्रा की तकलीफ़ों पर हैं जिनमें बेरोज़गारी और महंगाई बहुत उपर है। लोगों को ज़रूरत से अधिक शक्ति का केन्द्रीयकरण भी पसंद नहीं। लोग आर्थिक दिशा से संतुष्ट नहीं है, सरकारी आँकड़े कुछ भी सब्ज बाग दिखा रहें हो।बढ़ती ग़ैर-बराबरी अब मुद्दा बन रही है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। जनता आज़ाद मीडिया चाहती हैं और समझती हैं कि विचारों की भिन्नता देशद्रोह नहीं है। और बड़ा संदेश है कि उन्हें मज़बूत विपक्ष चाहिए नहीं तो सरकार पर अंकुश नहीं रहता। जून 4 को जनता ने सत्तारूढ़ पार्टी को विनम्रता का सबक़ सिखा दिया कि देश को समन्वय से चलाना चाहिए। जनता आख़िर में सबसे बड़ी टीचर है। उसने उन सब को भी ख़ामोश कर दिया जो विदेश में बैठे भारत में लोकतंत्र के अवसान पर नक़ली आंसू बहा रहे थे। उन्हें भी संदेश मिल गया कि हमें अपनी दिशा सही करना आता है। और यह प्रक्रिया चुनाव परिणाम तक ही सीमित नहीं है। जिस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरफ़ से धारावाहिक नसीहतों की बौछार हो रही है उससे पता चलता है कि संघ परिवार के अंदर से भी सबक़ सिखाने की प्रक्रिया जारी है। जो बात वह निजी वार्तालाप में कर सकते थे उसे ऊँचा सुनाया जा रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि संघ की आलोचना भी जनादेश के बाद आई है पर अगर कुछ महीने पहले सावधान किया होता तो हालात और होते।
संघ और भाजपा का रिश्ता उस बाप-बेटे का है जहां बेटा बड़ा हो गया। उसे बाप का अनुशासन पसंद नहीं है और अपने आज़ाद फ़ैसले लेना चाहता है पर बाप की कड़ी नज़र है। अभी तक बाप चुप था क्योंकि बेटा अच्छा कर रहा था पर अब क्योंकि बेटा कुछ लड़खड़ाया है इसलिए बाप जो पहले बेबसी से सब देख रहा था को नसीहत देने का मौक़ा मिल गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। चाहे आरएसएस राजनीति से दूर होने का दावा करता है पर वह राजनीति से कभी भी दूर नहीं रहे। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने अपनी किताब, ‘हॉउ प्राइम मिनिस्टरज़ डिसाइड’ में बताया है कि जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी सरकार का गठन हो रहा था और मंत्रियों की सूची राष्ट्रपति भवन भेज दी गई थी तो संघ के संयुक्त महासचिव के.एस.सुदर्शन संघ प्रमुख राजू भैया का संदेश लेकर वाजपेयी से मिलने आए और स्पष्ट माँग की कि जसवंत सिंह और प्रमोद महाजन को मंत्री नहीं बनाया जाए। यह दोनों चुनाव हार गए थे। वाजपेयी जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे और उन्हें वायदा भी कर चुके थे पर झुकना पड़ा और राष्ट्रपति भवन भेजी सूची को बदलना पड़ा जिससे प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा को चोट पहुँची। बाद में यही के.एस. सुदर्शन संघ प्रमुख बन गए और कई इंटरव्यू में माँग कर दी कि अटल और आडवाणी दोनों को एकतरफ़ हट जाना चाहिए और नए लोगों को आगे लाना चाहिए।
इस माँग पर गौर नहीं किया गया पर दरार तो स्पष्ट हो गई। 2004 के चुनाव में संघ के कार्यकर्ताओं ने उत्साह नहीं दिखाया। 2014 में पूरे बहुमत से नरेन्द्र मोदी की सरकार का गठन हो गया। पहली अवधि में तो आरएसएस के साथ समन्वय रहा पर लगता है कि 2019 के बाद संवाद कहीं टूट गया जिस कारण संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सार्वजनिक शिकायत दर्ज करवानी शुरू की है। जिस अशिष्ट तरीक़े से के.एस.सुदर्शन ने अपनी माँग रखी थी वैसी बात तो मोहन भागवत ने नहीं कहीं, पर यह तो स्पष्ट कर दिया गया कि भाजपा के वैचारिक मार्गदर्शक उसकी दिशा से संतुष्ट नहीं है। और न ही वह खुद ही मार्ग दर्शक मंडल में जाने को तैयार हैं ! भागवत का कहना था कि “हमारी परम्परा सहमति बना कर चलने की है…संसद में दोनों पहलू उजागर हों ताकि जो होना है पूर्णतः ठीक हो…सबको मिल कर देश चलाना है..विरोधी पक्ष नहीं यह प्रतिपक्ष है…चुनाव लड़ने की मर्यादा होनी चाहिए…एक साल से मणिपुर जल रहा है।इससे पहले दस साल यह शांत रहा और अब अचानक वहां कलह उपजी या उपजाई गई…जो अहंकार से रहित होता है ऐसा ही व्यक्ति वास्तव में सेवक कहलाने का हक़दार होता है…”।
मोहन भागवत द्वारा ‘मर्यादा’ और ‘सहमति’ पर ज़ोर देना और जन सेवक को ‘अहंकार’ से दूर रहने की नसीहत देना सीधी चोट है। यह संदेश पसंद नहीं किया गया होगा क्योंकि भाजपा नेतृत्व तो कांग्रेस मुक्त भारत की बात करता रहा है। कांग्रेस को लगभग दोगुना समर्थन दे कर लोगो ने भी बता दिया किसी से मुक्त नहीं होना चाहते। मणिपुर का ज़िक्र कर भागवत स्पष्ट कर गए कि उनका संदेश किस के लिए है क्योंकि विपक्ष का वहाँ कोई दखल नहीं है। भागवत के बाद भी नसीहत देने का सिलसिला रूका नहीं। आरएसएस से जुड़ी एक पत्रिका ने शिकायत कर दी कि भाजपा के नेता और कार्यकर्ताओं का लोगों से सम्पर्क टूट गया। लेकिन सबसे सख़्त टिप्पणी आरएसएस के नेता इन्द्रेश कुमार की थी कि, “भक्ति करने वाली पार्टी अहंकारी हो गई उसे 241 पर ही भगवान राम ने रोक दिया…जिनकी राम पर आस्था नहीं है उन सबको मिलकर भगवान ने 234 पर रोक दिया”। इन्द्रेश कुमार भी मोहन भागवत की तरह ‘अहंकार’ का मुद्दा उठा लिया।
बाद में उन्होंने अपना कहा वापिस ले लिया है पर आपसी अविश्वास और तनाव की चर्चा और मज़बूत हो गई है। भाजपा के नेतृत्व को संघ के साथ सम्बंध रीसेट करने पड़ेंगे। संघ व्यक्ति विशेष पर आधारित राजनीति पसंद नहीं करता जबकि भाजपा का सब कुछ नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व है। इस बार भी उनकी ‘गारंटी’ पर चुनाव लड़ा गया है। संघ यह सब बर्दाश्त करता रहा क्योंकि सरकार को पूरा जन समर्थन प्राप्त था। इस बीच तीन तलाक़ और धारा 370 को हटाने के दृढ़ कदम उठाए गए। राम मंदिर का निर्माण हो गया जिससे से आरएसएस संतुष्ट हैं पर वह नहीं चाहते कि कोई इतना ताकतवार हो जाए कि सब पर हावी हो जाए। जून 4 को सब बदल भी गया। इसीलिए इशारों इशारों में बात स्पष्ट कर दी गई है। मोहन भागवत का यह कहना कि “ सभी धर्मों का सम्मान होना चाहिए…इस भूमि पर जन्म लेने वाले सभी लोग हमारे अपने है”, बहुत सकारात्मक संदेश है।
आशा है कि इसका असर होगा क्योंकि चुनौती बहुत है। कश्मीर विशेष तौर पर जम्मू, में हो रहे आतंकी हमले बताते हैं कि अभी चुनौती पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई। पाकिस्तान की तरफ़ से शरारात जारी है। कुवैत की एक इमारत में लगी आग में हमारे 45 लोग झुलस कर मर गए। रूस- युक्रेन सीमा पर और भारतीय मौत की खबर है। यह दोनों अलग घटनाऐं बताती हैं कि बेरोज़गारी का कितना गम्भीर संकट है कि लोग असुरक्षित विदेश जाने के लिए मजबूर हैं। बम्पर ग्रोथ है, पर ग़रीबी कम नहीं हो रही।नीट परीक्षा परिणाम में जो धांधली हुई है वह भी बताती है कि व्यवस्था बदलने को तैयार नही। शुरू में सरकार की प्रतिक्रिया ढीली रही। बार बार लीक होते प्रश्न पत्र हमारी शिक्षा प्रणाली पर सवाल खड़े करते हैं। इस साल महाराष्ट्र,हरियाणा और झारखंड के चुनाव है जो राजनीति की भावी दिशा तय करेंगे। लोकसभा चुनाव में इन तीनों प्रदेशों में भाजपा को भारी क्षति हुई है इसलिए बहुत मेहनत की ज़रूरत होगी।