हम ओलम्पिक स्तर राष्ट्र नहीं हैं, We Are Not Olympic Level

हमने यह बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी पाल रखी है कि हम ओलम्पिक स्तर के देश हैं। जिस देश को केवल छ: मैडल मिलें हों जिनमें कोई गोल्ड मैडल नहीं है, उसे अभी ओलम्पिक खेलों की दावेदारी के बारे सोचना भी नही चाहिए। हमारा प्रदर्शन तो टोक्यो ओलम्पिक से भी बुरा रहा जहां हमें सात मैडल मिले थे जिनमें नीरज चोपड़ा का गोल्ड भी शामिल था। समझा गया कि पेरिस ओलम्पिक हमारे लिए गेम चेंजर होंगे और अपने अच्छे प्रदर्शन के बल पर हम 2036 के ओलम्पिक खेलों की मेज़बानी का दावा कर सकेंगे। इसीलिए ‘रूकना नहीं’ का नारा दिया गया। पर हमारा खेल क़ाफ़िला छह मैडल पर आ कर रुक गया। 85 देशों में टोक्यो में हम 48वीं पायदान पर थे जो इस बार हम गिर कर 71 पर पहुँच गए। इस से संतोष किया जा रहा कि हमारे छह खिलाड़ी चौथे स्थान पर रहे। पर जैसे नीरज चोपड़ा ने भी कहा है कि ‘गोल्ड मैडल की कोई बराबरी नहीं है’। कहने को तो कहा जाएगा कि खेल में हार जीत होती रहती है असली महत्व तो हिस्सा लेने का है, पर ऐसे कथन तो पराजित को सांत्वना देने के लिए कहे जाते हैं जबकि हक़ीक़त है कि ओलम्पिक स्तर पर सब कुछ मैडल है। जीतना ही सब कुछ है। सब जानते है, खिलाडी तो बहुत अच्छी तरह जानते है।  

ओलम्पिक से पहले लिखे अपने लेख में नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत लिखतें हैं, “ भारत खेलों में अग्रणी देश बनने वाला है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विजन भी है…कई खेलों में हम विशिष्ट दावेदार हैं”। यही हम सबने भी सोचा था, पर हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन स्तर का नहीं था। लाल क़िले से प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि वह चाहते हैं कि 2036 के ओलम्पिक खेलों का आयोजन भारत में हो। उनकी सोच सही है कि ऐसे आयोजन से देश में खेल की भावना और फ़िज़िकल ऐक्टिविटी बढ़ेगी। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। अभी हम बहुत पिछड़े हैं। अमेरिका को 126 मैडल मिले जिसमें 40 गोल्ड थे, चीन दूसरे नम्बर पर 91 मैडल के साथ है जिनमें भी 40 गोल्ड है। फ़्रांस के लियोन मारचंद अकेले को चार गोल्ड मैडल(तैराकी) में मिलें हैं। विश्व रिकार्ड अमरीकी तैराक माइकल फिल्प्स का है जिसने चार ओलम्पिक में 28 मैडल जीते जिनमें 23 गोल्ड मैडल हैं।

इन सब से तुलना करें तो मालूम हो जाएगा कि हम कितने मामूली हैं। कीनिया जैसे छोटे देश ने भी पेरिस ओलम्पिक में 11 मैडल जीते हैं, जिनमें 4 गोल्ड हैं। जब से ओलम्पिक खेलें शुरू हुईं हैं भारत को कुल 41 मैडल ही मिलें हैं। इसलिए यह सोच कि हम ओलम्पिक स्तर की उभरती महाशक्ति है को सुधारने और हक़ीक़त से जोड़ने की बहुत ज़रूरत है। दुनिया भी हमें खेलों में मामूली ही समझती है। हम एशियन या राष्ट्रमंडल खेलों में बेहतर प्रदर्शन करते हैं पर ओलम्पिक स्तर के हम अभी नहीं हैं। हमारा और दुनिया के बीच फ़ासला बहुत है। कभी कभार अभिनव बिंद्रा या नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ी निकलते हैं जो इस खाई को पाटने में सफल रहतें हैं, पर कितने ऐसे हैं? अधिकतर  दबाव नहीं झेल पाते। ओलम्पिक खेलों में तो दबाव होगा ही। इसके लिए मैंटल ट्रेनिंग की बहुत ज़रूरत है। हॉकी के पूर्व गोल कीपर श्रीजेश जैसे खिलाड़ी हैं जो दबाव झेल जाते हैं। उसकी रिटायरमेंट का बुरा प्रभाव पड़ेगा। उसका कहना है कि “कई बार जब पैसे या जनून के बीच चुनाव करना पड़ता है तो पैसा महत्व नहीं रखता”। 

 हमारा समाज खेलों को महत्व नहीं देता। मां- बाप का सारा ध्यान बच्चे की पढ़ाई और बाद में नौकरी पर रहता है। ‘पढ़ोगे लिंखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब’, वाली मानसिकता हावी है। कमजोर परिवारों के लिए बच्चों को आधुनिक खेल के लिए तैयार करना बहुत मुशकिल है इसलिए बहुत प्रतिभा खिलने से पहले निराश हो कर बैठ जाती है। क्रिकेट में ज़रूर तेजस्वी जयसवाल या मुहम्मद सिराज जैसे खिलाड़ी हैं जो परिस्थिति से जूझ कर शिखर तक पहुँचने में सफल रहें है। क्रिकेट व्यवस्था को यह श्रेय जाता है कि खिलाड़ी का चुनाव बिल्कुल मेरिट पर होता है, उसका धर्म,जाति, भाषा या प्रदेश नहीं देखे जाते। जब शम्मी को पाकिस्तान के खिलाफ बुरे प्रदर्शन पर ट्रोल किया गया तो आलोचकों का मुँह विराट कोहली ने यह कह कर कि “हमारी टीम के अंदर भाईचारा और दोस्ती है इसे कोई हिला नहीं सकता’, बंद करवा दिया। पर क्रिकेट के लिए उन्माद बाक़ी खेलों को रौंद रहा है। युवा क्रिकेट खेलना चाहते हैं क्योंकि ग्लैमर है और पैसा है। संतुलन किस तरह क्रिकेट की तरफ़ झुका है इस बात से पता चलता है कि बीसीसीआई दुनिया के सबसे रईस खेल संगठनों में से एक है।2023 में इसकी कमाई 18700 करोड़ रूपए थी, जबकि हॉकी जो कभी हमारी राष्ट्रीय खेल थी और हमारी परिस्थिति के अधिक अनुकूल है, के महासंघ की आय केवल 87 करोड़ रूपए थी।

अगर खेल में विश्व स्तर का देश बनना है तो बहुत कुछ बदलने की ज़रूरत है। केवल सरकार को कोसने से बात नही बनेगी। बैडमिंटन चैम्पियन रहे प्रकाश पादुकोण ने तो ख़राब प्रदर्शन की ज़िम्मेवारी खिलाड़ियों पर डाली है कि, “उन्हें चिंतन करना चाहिए और सही प्रदर्शन करना चाहिए”। उन्होंने सरकार की प्रशंसा की है कि भारत की ओलम्पिक टीम को सबसे अच्छा पैसा और समर्थन मिला है। अभिनव बिंद्रा का भी कहना है कि “पैसा अच्छी मदद का एक हिस्सा है, पर यह कोई एटीएम नहीं जहां मैडल मिलते हैं”। देश के अंदर अलग चुनौती होगी। हमारे लोगों को कई बार सम्भालना मुश्किल हो जाता है। अहमदाबाद में क्रिकेट के वर्ल्ड कप में जब भारत और पाकिस्तान का मैच हो रहा था जय श्रीराम के नारे लगाए गए। विशेष तौर पर मुहम्मद रिज़वान को निशाना बनाया गया। यह नहीं कि रिज़वान मासूम है। उसके बारे तो वकार यूनुस ने गर्व से कहा था कि ‘इसने हिन्दोस्तान के बीच में खड़े होकर नमाज पढ़ी’। लेकिन मेज़बान देश के नाते हमारी ज़िम्मेवारी अधिक बनती थी। हमें पराजय बर्दाश्त करना नहीं आता। वर्ल्ड कप में आस्ट्रेलिया की जीत पर अहमदाबाद का नरेन्द्र मोदी स्टेडियम शांत पड़ गया जबकि ज़रूरत थी कि दर्शक खड़े होकर तालियाँ बजाते। पुणे में बांग्लादेश के खिलाड़ी को नागिन डांस से परेशान करने की कोशिश की गई। यह कैसी बेहूदगी है?

बड़ी समस्या निम्न इंफ़्रास्ट्रक्चर की है। 2010 की दिल्ली मे राष्ट्र मंडल खेले याद आती है। पुल टूटा, खिलाड़ियों के आवास में पानी टपका, स्विमिंग पूलों में गंदे पानी और मैस में गंदे भोजन की शिकायतें मिली। उपर से 70000 करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली जो कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार के पतन का कारण बनी। कई और टूर्नामेंट में भी निम्न सुविधाओं की शिकायत मिल चुकी है। सरकार शायद अहमदाबाद को ओलम्पिक के लिए तैयार करना चाहती है। अहमदाबाद और गांधीनगर के लिए 6000 करोड़ रूपए का मास्टर प्लान तैयार किया गया है। गुजरात पर जो अनुकम्पा दिखाई जा रही है वह हैरान करने वाली है क्योंकि वहाँ खेल संस्कृति है ही नहीं। गुजरातियों को पैसा बनाना आता है मैडल जीतना नहीं। हाल ही के बजट में गुजरात को 426 करोड़ रूपए मिले हैं जबकि हरियाणा और पंजाब जो खेलों में अग्रणी प्रदेश है, को 66 करोड़ रूपए और 70 करोड़ रूपए मिले। सबसे अधिक मैडल भी हरियाणा और पंजाब के खिलाड़ी ले कर आए। हमारे 117 खिलाड़ी गए थे जिनमें गुजरात के केवल 2 थे। फिर यह मेहरबानी कैसे जायज़ है? वैसे भी गुजरात खेलों के महोत्सव के लिए उपयुक्त प्रदेश नहीं है। वह खुला वातावरण नहीं जो मुम्बई या दिल्ली में है। खाने पीने, पहनावे की बहुत बंदिश है जो विदेशी एथलीट बर्दाश्त नही करेंगे।   

ओलम्पिक खेलों की मेज़बानी करने के लिए बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। अरबों रूपए तो खर्च करने ही पड़ेंगे पर लोगों की और सरकारी मानसिकता भी बदलनी पड़ेगी। स्पोर्ट फ़ेडरेशनों पर राजनीतिक क़ब्ज़ा हटाना पड़ेगा। नौकरशाही को अपना शिकंजा कमजोर करना होगा। समाज को भी तैयार करना पड़ेगा। जिस तरह महिला पहलवानों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया और न्याय नहीं मिला वह सब जानते हैं। विनेश फोगाट को ओलम्पिक में संघर्ष करने से पहले व्यवस्था से टकराना पड़ा। यह अफ़सोस की बात है कि वह मैडल से मामूली नियम के कारण वंचित रह गई पर देश के लिए वह चैम्पियन है। पर इन महिला पहलवानों का उत्पीड़न के खिलाफ जो संघर्ष था वह देश की स्थिति भी बताता है जहां महिलाओं के खिलाफ अत्याचार बढ़ रहा है। हाल ही में हम कोलकाता में महिला डाक्टर के रेप और हत्या के बारे सुन कर हटें हैं। ठाणे के स्कूल में दो बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया। रोज़ ऐसे समाचार आ रहें हैं। सारा देश सुन्न हैं, यह घटनाऐं एक बीमार समाज की तरफ़ भी इशारा करता है। क्या हम यह गारंटी कर सकते हैं कि किसी भी विदेशी महिला खिलाड़ी जो हज़ारों में आएँगी, के साथ दुर्व्यवहार नहीं होगा ? जो विदेश से आते हैं वह स्वच्छंद वातावरण से आते हैं। क्या हम उसके लिए तैयार हैं?

खेलों में जो देश अव्वल रहते हैं उनकी प्रति व्यक्ति आय बहुत ऊँची है जबकि हम 128 नम्बर पर हैं। यहाँ ग़रीबी बहुत है। आख़िर में पैसा बोलता है।जब जेब में पैसा नहीं होता तो न सही किट मिलती है न सही डॉयट। जब जी- 20 का आयोजन किया गया तो जिन सड़कों से विदेशियों को गुजरना था उनके दोनों तरफ़ बोर्ड लगा दिए गए ताकि वह हमांरी बस्तियाँ न देख सकें।  पर जी-20 में किया जा सका वह ओलम्पिक में नही हो सकेगा। पहले हमें अपनी हक़ीक़त बदलनी है। अगर ओलम्पिक का कभी आयोजन होता है तो खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों के लिए सपना पूरा होने का बराबर होगा। पर अभी वह स्थिति नहीं है। जैसे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था, सपना देखना बुरा नहीं पर सपने में रहना नहीं चाहिए।

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About Chander Mohan 754 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.