
देश अब राहुल गांधी को गम्भीरता से लेने लगा है। विपक्ष के नेता के तौर पर भी उनकी भूमिका सही रही है। जहां वह सरकार की आलोचना करते रहे वहाँ जब राष्ट्रीय हित की बात आई तो बांग्लादेश के संकट में सरकार को पूर्ण सहयोग दिया। जहॉ यह सब सकारात्मक है वहां उनकी राजनीति की दिशा बेचैनी भी पैदा कर सकती है। सवाल उठ रहें हैं कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी को पराजित करने के लिए राहुल गांधी देश को उस तरफ़ तो नहीं धकेल रहे जहां आगे अधिक अविश्वास है, तनाव है, टकराव है? मेरा अभिप्राय उनकी जाति जनगणना पर लगातार ज़ोर देने पर है। आभास यह मिलता है कि वह इतना बहक गए हैं कि सोच गड़बड़ाने लगी है। संतुलन और परिपक्वता जो बड़ी पार्टी के नेता में चाहिए वह धीरे धीरे राहुल गांधी को छोड़ रहें है।
जिस पार्टी का कभी नारा था, ‘जात पर न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर’, उस पार्टी में उनके पोते के नेतृत्व में सब कुछ जात-पात बन गया है। राहुल गांधी ने इसे कितने ग़लत तरीक़े से बढ़ा दिया है वह हाल ही में उनकी कुछ टिप्पणियों से पता चलता है। यह पुरानी परम्परा है कि बजट प्रस्तुत करने से पहले हलवा बनाया जाता है और वित्त मंत्री इसे वरिष्ठ अधिकारियों जिन्होंने बजट बनाने में योगदान दिया होता है, को परोसते हैं जैसे इस बार निर्मला सीतारमन ने किया। मामूली सी परम्परा है पर राहुलजी इस पर भी उत्तेजित हो गए और संसद में फ़ोटो लहराते हुए सवाल किया कि इस तस्वीर में कितने दलित और ओबीसी हैं? यह हलवा-सैरेमनी तो वर्षों पुरानी है। पहले कांग्रेस के शासन में और फिर यूपीए के शासन में भी होती रही, किसी ने नहीं पूछा कि तस्वीर में जो दिखाए जा रहे हैं उनकी जाति क्या है? राहुल गांधी को क्यों तकलीफ़ हो रही है?
यह धारणा कि केवल अपनी जाति के अफ़सर ही उस जाति का कल्याण कर सकते है, ख़तरनाक और घातक है। सारा प्रशासन अस्त व्यस्त हो जाएगा और समाज के टुकड़े टुकड़े हो जाएँगे। राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी के प्रमुख सलाहकारों में पी.एन हकसर,पी.एन.धर, आर.एन काव, अरूण नेहरू, माखन लाल फोतेदर जैसे कश्मीरी पंडित थे। किसी ने आपत्ति नहीं की कि देश की बागडोर एक वशिष्ठ वर्ग के हाथ में है। केवल अनुभव और योग्यता देखी। समाज को बाँटने का ज़हर जो अब घोलने की कोशिश हो रही उसकी बड़ी क़ीमत आगे चल कर चुकानी पड़ सकती है। क्या अब अफ़सर का काम नहीं, उसकी पहचान देखी जाएगी ? निर्मला सीतारमन ने सही सवाल किया है कि राजीव गांधी ट्रस्ट, जो गांधी परिवार से जुड़ा है में कितने एससी-एसटी हैं? इसका कोई जवाब नहीं दिया जाएगा पर सस्ती और घटिया राजनीति के लिए देश के आगे और समस्या खड़ी की जाएगी। राहुल गांधी किस तरह भटक रहें हैं वह उनकी हाल की एक और टिप्पणी से पता चलता है। यह बताते हुए कि 90 प्रतिशत लोग व्यवस्था से बाहर हैं, उनकी शिकायत है कि दलित, आदिवासी, या ओबीसी समुदाय से कोई भी महिला ‘मिस इंडिया’ की लिस्ट नें शामिल नही हैं।
‘मिस इंडिया’? आरक्षण और जाति जनगणना पर चल रही गम्भीर और विचारशील बहस मे मिस इंडिया कहाँ से टपक गई? कुछ प्राईवेट कम्पनियाँ जो महिला प्रसाधन बेचती हैं ऐसे फ़िज़ूल आयोजन करती रहती हैं जहां महिलाओं की सुन्दरता को देखा जाता है और फ़िगर को मापा जाता है। रीटा फारिया से शुरू हो कर हमने भी समय समय पर सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता जैसी कथित विश्व सुनदरियां पैदी की हैं जो समाज को बदलने की बात कर आख़िर में बालीवुड में आकर बस गई। मिस इंडिया कोई सरकारी या समाजिक ख़िताब नहीं है, हैरानी है कि राहुलजी को इनमें दिलचस्पी है। जो गम्भीर चिन्तन का विषय है उसे राहुल गांधी ने ग़ैर गम्भीर और छिछोरा बना दिया। अगर उनकी सरकार आगई तो क्या मिस इंडिया में भी आरक्षण लागू कर दिया जाएगा ? क्या यह सर्वे किया जाएगा कि ब्यूटी पार्लर में जो महिलाऐं जातीं हैं वह किस समुदाय या जाति से हैं? उन्हें तो इस बात पर भी आपत्ति है कि बॉलीवुड, मीडिया, कॉरपोरेट आदि में ‘90 प्रतिशत की भागीदारी नहीं है’। क्या सब कुछ संख्या ही है, मेरिट या प्रतिभा की कोई जगह राहुल गांधी के देश में नही होगी? क्रिकेट और बॉलीवुड ने अगर इतनी तरक़्क़ी की है तो इसलिए कि बिना भेदभाव के प्रतिभा को मान्यता दी जाती है। और अगर सब कुछ ‘जितनी आबादी उतना हक़’ ही है, जैसा वह और पहले कांशी राम कह चुकें हैं, तो कांग्रेस पार्टी के शिखर पर उनके अपने परिवार का क्या हक़ बनता है? क्या राहुल गांधी और उनके नादान सलाहकारों ने सोचा भी है कि भारत जैसे विभिन्नता वाले जटिल देश में इस नारे के निहितार्थ क्या हैं? शकील बदायूनी याद आतें हैं कि,
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर तेरा क्या भरोसा चारागर
ये तिरी नवाजिश-ए-मुख़्तसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे
अंग्रेज धर्म के आधार पर बाँट गए थे, यह लोग जाति के आधार पर बाँट रहे है। हर जगह, यहाँ तक कि निजी संस्थानों में भी जात-पात का ज़हर घोल दिया जाएगा सिर्फ़ इसलिए कि जाति को भाजपा के हिन्दुत्व की काट समझा जाता है। पर हमारी इतनी जातियाँ हैं कि अगर पिटारा खुल गया तो सम्भालना मुश्किल होगा। देश में अंतिम जाति जनगणना ब्रिटिश राज में 1931 में हुई थी। इसके मुताबिक़ 4147 जातियाँ थी। आज़ाद भारत में एक बार भी जाति जनगणना नहीं की गई क्योंकि बुद्धिमान नेता जिनमें राहुल गॉधी के पूर्वज भी शामिल है, समझ गए कि यह बहुत बड़ी मुसीबत को आमंत्रित करना होगा। जिस रास्ते पर जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने चलने से इंकार कर दिया था उस रास्ते पर राहुल बेधड़क आगे बढ़ रहे हैं। 2004 के आसपास इंडियन ह्यूमन डिवैलपमैंट सर्वे के अनुसार भारत में 7372 जातियाँ थी। अब यह आँकड़ा और भी बड़ा हो सकता है। अगर उनकी पहचान कर भी ली गई तो आगे क्या होगा? क्या कुछ हज़ार सरकारी नौकरियों को लेकर या कुछ हजार उच्च शिक्षा के संस्थानों में सीटों को लेकर इन जातियों को लड़ाया जाएगा ? यह ‘डिवाईड एंड रूल’ का नया संस्करण होगा ?
जाति जनगणना का मुद्दा बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उठाया है। पर उसके बाद क्या होगा? क्या बिहार की गवर्नेस अर्थात् शासन- विधि बेहतर हो जाएगी? ट्रेनें भर भर कर बिहारी दूसरे प्रदेशों में रोज़गार के लिए भागना रूक जाऐंगे? क्या शिक्षा और हैल्थ सेवाएँ बेहतर हो जाएँगी? और क्या बरसात में पुल बहने बंद हो जाएँगे? बिहार में तीस साल से उन लोगों का शासन है जो जातिवाद की राजनीति करते है। फिर यह सबसे गरीब और पिछड़ा प्रदेश क्यों हैं? बरसों लालू प्रसाद यादव के परिवार ने बिहार पर शासन किया पर जब लालूजी को किडनी ट्रांसप्लांट की ज़रूरत पड़ी तो सिंगापुर चले गए। बिहार में किसी डाक्टर से क्यों नहीं करवाया? रामबिलास पासवान के दिल का आपरेशन लंडन में हुआ था। हम चाहते हैं कि हमारे नेता स्वस्थ रहें पर जो मेरिट या प्रतिभा की जगह जाति के कोटे को प्राथमिकता देते हैं वह अपनी बारी में विदेश फुर्र क्यों हो जाते हैं?
हाल ही में बड़ा विवाद खड़ा हो गया था क्योंकि सरकार कुछ पदों पर बाहर से विशेषज्ञ लाकर बैठाना चाहती थी। सोच यह थी कि सिविल सर्विस के अधिकारी हर विषय के माहिर नहीं होते इसलिए प्रोफेशनलज़ को इन पदों पर बैटाया जाए। ज़रूरतें और चुनौतियाँ बहुत बदल चुकी हैं। साइंस,फाईनैंस, हैल्थ, आईटी,पर्यावरण जैसे बहुत से क्षेत्र है जिन में प्रोफेशनल अनुभव की ज़रूरत है। अतीत में ऐसा होता आया है। डा.मनमोहन सिंह, मोनटेक सिंह आहलुवालिय्,विजय के. केलकर, बिमल जलान, प्रकाश टंडन, सैम पिट्रोडा, रघुराम राजन जैसे बहुत से लोगों को बाहर से जिसे ‘लैटरल एंट्री’ अर्थात् सीधे रास्ते द्वारा लाकर उच्च पदों पर बैठाया गया। कई रिसर्व बैंक के गवर्नर बने तो कई सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार। किसी ने आपत्ति नहीं की पर अब मोदी सरकार ने कुछ पद लैटरल एंट्री से भरने की कोशिश की तो राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने आसमान सर पर उठा लिया। शिकायत थी कि सरकार आरक्षण को ख़त्म करना चाहती है जबकि सरकार तो मध्यम स्तर के सिर्फ़ 45 पद ही भरना चाहती थी। दबाव में सरकार झुक गई और सही कदम वापिस ले लिया।
ऐसी सीधी नियुक्तियों की ज़रूरत भी है और जायज़ भी है। अगर कुछ प्रोफेशनल सरकार को विशेष मामलों पर सलाह देने के लिए रखें जाएँ तो ग़लत क्या है ? जो पहले कांग्रेस के शासन में होता रहा वह नरेन्द्र मोदी के शासन में दलित या ओबीसी विरोधी कैसे हो गया? अगर सब कुछ जाति आरक्षण हो जाएगा तो योग्यता और प्रतिभा पीछे पड़ जाएँगे। देश वही तरक़्क़ी करता है जो उत्कृष्टता को मान्यता देता है। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने चीन की मिसाल दी है कि, “अपनी व्यवहारिक नीतियों के कारण चीन के पास आज प्रतिभा और विद्वता का भंडार है जो अमेरिका के बाद सबसे बड़ा है। भारत पीछे रह गया है”। अमेरिका आज तक विदेश से प्रतिभा आयात कर रहा है। उनकी सर्वोच्चता का रहस्य भी यह है कि वह देश केवल प्रतिभा और योग्यता को महत्व देता है। यहाँ हम देख भी रहें हैं कि सरकारी क्षमता और शासन की गुणवत्ता कमजोर हो रही है। श्याम सरन लिखतें हैं, “भारत के सामने जो चुनौतियाँ है इनके लिए विशिष्ट कौशल और क्षमता चाहिए। वर्तमान नीतियाँ तो न समाजिक न्याय और न ही अच्छा शासन दे रहीं हैं”। इसका सबसे बडा दुष्परिणाम उनके लिए होता है जो कमजोर हैं, या गरीब है। वह पिसते जाते है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सही कहा कि सबसे बड़ी जाति गरीब हैं। उनके उद्धार के लिए शिक्षा और हैल्थ जैसी सेवाओं को बेहतर करने की तरफ़ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। देश को और बाँट कर इनका कल्याण नहीं होगा। हम उलटी दिशा में जा रहे हैं जो कई बार बौद्धिक दिवालियपन दिखाती है। गम्भीर चिन्तन की जगह हम हलवा सैरेमनी पर टिप्पणी करते हैं या हमें मिस इंडिया की चिन्ता होती है।