खास और आम
दिल्ली के चुनाव में जनता ने जो पैगाम दिया है उसे समझने का प्रयास हमारे लीडर नहीं कर रहे। मसला केवल साफ राजनीति या लोकपाल का ही नहीं है। जनता उस सरकारी संस्कृति का भी विरोध कर रही है जो हमें दो डिब्बों में बांट देती है, खास और आम। इसलिए अब जो आम है वह झाड़ू लेकर अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं। चुनाव के समय जो जनता के आगे हाथ जोड़ कर वोट मांगते हैं वे चुनाव जीतते ही हमारे सर पर बैठ जाते हैं। लाल बत्ती वाली कारें, प्रदूषण बढ़ाते ऊंचे ध्वनि वाले सायरन तथा गनमैन उन्हें आम आदमी से अलग कर देते हैं। जब उन्होंने गुज़रना होता है तो एम्बूलैंस तक को भी रोक दिया जाता है। जितना बड़ा नेता उतना बड़ा काफिला। लाल बत्ती उनके विशेष स्तर की प्रतीक बन गई है। किसी भी और देश में ऐसे नहीं होता। इंग्लैंड में कई मंत्री मैट्रो के द्वारा दफ्तर पहुंचते हैं। बैल्जियम या नैदरलैंड के शाही परिवार के सदस्य साईकलों पर घूमते हैं। लेकिन यहां वह नेता क्या हुआ जो साईकल पर घूमे? मुलायम सिंह यादव की पार्टी के लिए साईकल मात्र चुनाव प्रतीक ही है। साधारण साईकल से उनका कोई रिश्ता नहीं।
इस विशिष्ट वर्ग के विशेषाधिकार तो सभी सीमाएं तोड़ रहे हैं। मुफ्त सरकारी कोठियां, मुफ्त बिजली पानी टैलीफोन, घर के बाहर पहरा। ऊपर की कमाई इससे अलग! ल्यूटन की दिल्ली के सबसे खूबसूरत हिस्से में यह विशिष्ट वर्ग रहता है। एकड़ों में कोठियां हैं। राजनेता, जज, बड़े अफसर बड़े मज़े से यहां रहते हैं। इन कोठियों का मार्केट किराया लाखों रुपए महीने हो सकता है लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे बेचारे नेता आराम से जिंदगी व्यतीत करें। वस्त्र चाहे वे सफेद धारण करें लेकिन जिंदगी किसी नवाब से कम न हो। अब तो कुर्ता पजामा भी डिसाईनर हो रहा है! गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर शायद एकमात्र मुख्यमंत्री है, जो अपने घर का बिजली बिल खुद अदा करते हैं। हमारे राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जब ‘भूतपूर्व’ हो जाते हैं तो भी उन्हें बड़े सरकारी बंगले में करदाता के खर्चे पर रखा जाता है। पैंशन तो है ही, पूरी सुरक्षा और तामझाम भी मुफ्त में मिलता है। हैरानी है कि आज तक एक भी माननीय ‘भूतपूर्व’ ने यह नहीं कहा कि बहुत हो चुका है मैं जनता पर पहले ही बहुत बोझ डाल चुका हूं अब मैं अपने खर्चे पर रहूंगा। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल पुणे में रहना चाहती थी इसलिए उनके लिए वहां करोड़ों रुपए के खर्चे पर नया बंगला बनवाया गया। उनका राजहठ था कि वह पुणे में ही रहना चाहती है इसके आगे जनता के करोड़ों रुपए का खर्च क्या मायने रखता है? किसी भी देश में इस तरह भूतपूर्व होने के बाद सरकारी कोठी नहीं मिलती। अमेरिका का राष्ट्रपति व्हाईट हाऊस खाली कर अपने निजी निवास में चला जाता है जैसे इंग्लैंड का प्रधानमंत्री अगर चुनाव परिणाम विपरीत जाते हैं तो उसी दिन 10 डाऊनिंग स्ट्रीट छोड़ कर अपने घर चला जाता है। हमारे यहां की तरह नहीं कि एक सरकारी कोठी छोड़ कर वे दूसरी सरकारी कोठी में ट्रांसफर हो जाते हैं। खर्चा गरीब करदाता उठाता है। माले मुफ्त दिले बेरहम! केवल अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि आप के मंत्री लाल बत्ती नहीं लगाएंगे और बड़ी कोठियों में नहीं रहेंगे। उनके इस निर्णय का स्वागत है। लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही कि कांग्रेस को गालियां निकालने के बाद वह उसी कांग्रेस के साथ हमबिस्तर क्यों हो रहे हैं? एक सरकार का केवल इसलिए गठन हो रहा है ताकि वह गिर सके?
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि लाल बत्ती का उपयोग केवल उच्च संवैधानिक पद पर बैठे लोग ही कर सकेंगे, और वह भी केवल काम के समय। अब विधायक, जिलाधीश आदि लालबत्ती नहीं लगा सकेंगे। लोग इस वीआईपी संस्कृति से इतने उब गए है कि इतने छोटे से कदम को भी क्रांतिकारी समझा जा रहा है। पर असली समस्या लाल बत्ती नहीं। जनता गोरों के समय की उस संस्कृति से मुक्ति चाहती है जो कुछ लोगों को विशिष्ट बनाती है। यह लाल-नीली बत्ती तो प्रभाव तथा रुतबे का प्रतीक मात्र है जड़ तो वह मानसिकता है जिसने यह विशिष्ट वर्ग पैदा किया है। समय के साथ उनके विशेषाधिकार कम होने की जगह बढ़ रहे हैं। कारों के ऊपर वीवीआईपी के स्टिकर लगे होते हैं। अर्थात् हम अतिविशिष्ट हैं। और कहने को हम ‘समाजवादी’ गणराज्य है। लालबहादुर शास्त्री ने खुद को ‘जनता का प्रथम सेवक’ बताया था। आज इनमें से कौन सेवक रह गया? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का वाहन भी करोड़ रुपए से अधिक का है। 3000 करोड़ रुपए के 12 हैलिकाप्टर खरीदने का प्रयास किया गया था। इनकी खास शानोशौकत का बिल आम आदमी चुकाता फिरता है।
यह दिलचस्प समाचार है कि पंजाब सरकार पर दबाव है कि लाल नहीं तो उन्हें नीली बत्ती ही दे दी जाए! यह भी सुझाव है कि अगर लाल नीली नहीं तो पीली या हरी बत्ती लगाने की इज़ाजत हो! आखिर हम वीआईपी हैं। जिन लोगों की लाल बत्ती यहां गुम हो गई है उनमें अकाल तख्त के जत्थेदार तथा शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष भी शामिल है। लेकिन मैं मूल प्रश्न पर आना चाहता हूं कि एक लोकतंत्र में लाल बत्ती या नीली बत्ती की सुविधा किसी को भी क्यों दी जाए? आखिर संविधान के अनुसार सब बराबर हैं फिर कुछ लोग अपने वाहन के ऊपर अपना उच्च स्तर बताने के लिए बत्ती क्यों लगाएं सिर्फ इसलिए कि वह मंत्री, जज, सांसद, विधायक या उच्चाधिकारी है?
यहां एक ऐसी वीआईपी संस्कृति हावी हो गई है कि हर कोई खुद को स्पैशल सिद्ध करने में लगा हुआ है। जो अफसर हैं वे तो ‘पब्लिक सर्वेंट’ रहे ही नहीं, वह मालिक बन गए हैं लेकिन सबसे अधिक जिम्मेवारी तो जन प्रतिनिधियों की है जिनका लाईफ स्टाईल रॉयल हो गया है। सब करदाता को निचोड़ रहे हैं। कभी-कभी वामदलों में या ममता बनर्जी जैसे नेताओं में हम सादगी देखते हैं पर बाकी पार्टियों में तो यह बिल्कुल लुप्त हो गई है। ममता बनर्जी अभी भी अपने दो कमरों के घर में रहती है। यही स्थिति त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार की है। बाकी सब फाईव स्टार हो गए। गोवा में भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक भी बड़े होटल में हुई थी। जो संस्कृति प्रमोद महाजन दे गए उसे दोनों हाथों से दबोच लिया गया है।
हमारी व्यवस्था अपने वीआईपी के प्रति बहुत उदार है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के पास 30 तथा उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के पास 20 सरकारी कारें हैं। अब वे बूलेट प्रूफ बीएमडब्ल्यू कारें खरीद रहे हैं जिनकी कीमत 2 करोड़ रुपए से अधिक है। एक गरीब देश के जन प्रतिनिधि होते हुए उन्हें इतना पैसा खर्च करते दर्द नहीं होता? जो केंद्रीय सरकार गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लेकर आई है वह अपने विशिष्ट क्लब के सदस्यों के ऐशो आराम पर पानी की तरह खर्च कर रही हैं। यहां विरोधाभास नज़र नहीं आता? जहां तक लाल बत्ती का सवाल है मेरा तो मानना है कि कोई भी लाल बत्ती क्यों लगाए चाहे वह मंत्री हो, जज हो या अफसर हो? भारत जैसे लोकतंत्र में यह सामंती प्रथा पूर्णतया बंद होनी चाहिए। अगर सब बराबर हैं तो या सब की लाल बत्ती हटें नहीं तो आम आदमी को भी अपनी नानो पर लाल बत्ती लगाने की इज़ाज़त होनी चाहिए।
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