कृष्ण, अर्जुन नहीं!
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लाल कृष्ण आडवाणी को सलाह दी है कि वह खुद को भाजपा से अलग न करें नहीं तो पार्टी का अहित होगा। उन्होंने एक कहानी के द्वारा आडवाणी से आग्रह किया कि ‘आडवाणीजी राजनीति में हैं… वहीं रहना और उन्हीं लोगों में रहना ताकि गांव को आग न लगे।’ उल्लेखनीय है कि लाल कृष्ण आडवाणी को सक्रिय राजनीति से दूर करने का प्रयास भी संघ ही ने किया था। कोशिश संघ प्रमुख के सुदर्शन के समय शुरू हो गई थी जब असावधानीपूर्वक उन्होंने टीवी के कैमरे के सामने अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण आडवाणी को राजनीति से हट जाने के लिए कहा था। मोहन भागवत के दबाव में ही नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था जबकि खुद आडवाणी इसके प्रबल दावेदार थे। साफ है कि संघ आडवाणीजी की सक्रिय भूमिका को पसंद नहीं करता और वे चाहते हैं कि आडवाणी की भूमिका एक वरिष्ठ नेता की हो जो मार्गदर्शक हो। मैं खुद भी लिखता रहा हूं कि आडवाणीजी की भूमिका अर्जुन की नहीं, कृष्ण की होनी चाहिए। दो चुनावों में उनका परीक्षण कर देखा जा चुका है जो असफल रहा। अब नरेंद्र मोदी की बारी है लेकिन आडवाणी अपना महत्त्व कम किए जाने को पचा नहीं पाए। इसीलिए कई बार उन्हें मोदी को आशीर्वाद देने से बचते देखा गया तो कई बार वह शिवराज सिंह चौहान को उनके बराबर खड़ा करने का प्रयास करते देखे गए। दु:ख की बात है कि आडवाणी जैसे बड़े नेता हकीकत से समझौता करने में इतना समय लगा रहे हैं। अपने जिस संबोधन में संघ प्रमुख ने उन्हें गांव को आग से बचाने का ध्यान रखने को कहा है उसी में उन्होंने आडवाणीजी को यह भी नसीहत दी है कि जिंदगी में जो भी मिले उसमें हमेशा खुशी भरा मतलब खोजना चाहिए।
दुर्भाग्यवश आडवाणीजी यही नहीं खोज रहे। वे खुद को पीछे डाले जाने से खुश नहीं हैं इसलिए बार-बार अंदर की कड़वाहट बाहर निकल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा का संगठन लाल कृष्ण आडवाणी ने खड़ा किया है। भाजपा की दूसरी पंक्ति के सभी नेता, सुषमा स्वराज, अरुण जेतली, शिवराज सिंह चौहान, अनंत कुमार, वैकया नायडू आदि सभी आडवाणीजी के मार्गदर्शन में इस जगह पहुंचे हैं। खुद नरेंद्र मोदी को तराशने का काम आडवाणी ने किया था। जब 2002 के दंगों के बाद अटलजी समेत कई नेता मोदी को हटाना चाहते थे तो आडवाणी ने ढाल की तरह उनका बचाव किया था। एक समय तो गोवा अधिवेशन के दौरान ऐसा लग रहा था कि मोदी को हटने के लिए कहा जाएगा पर आडवाणीजी के दखल के कारण वह प्रयास सफल नहीं हुआ। उसके बाद भी आडवाणीजी का मोदी को सरंक्षण मिलता रहा। पर हर व्यक्ति की जिंदगी में ऐसा समय आता है जब चेला गुरू से आगे निकल जाता है और उसे अपने चेले के लिए जगह खाली करनी पड़ती है। परिवार में भी कई बार बाप को बेटे के लिए जगह खाली करनी पड़ती है चाहे बाप ने ही धंधा खड़ा किया हो। आडवाणीजी के सामने भी यही मौका आया था जब वह गरिमा के साथ पीछे हट जाते और नई पीढ़ी का मार्गदर्शन करते। अफसोस की बात है कि जीवन की इस हकीकत से उन्होंने सही समझौता नहीं किया इसलिए वे बार-बार कड़वाहट प्रकट कर रहे हैं।
भाजपा के इतिहास में एक समय आया था जब पार्टी लाल कृष्ण आडवाणी के कदमों में थी लेकिन मुंबई अधिवेशन में उन्होंने अटलजी के सर पर ताज रख दिया था। उस वक्त अटलजी भी हैरान रह गए थे लेकिन आडवाणीजी ने सही समझ लिया था कि भाजपा की सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही बन सकती है क्योंकि उनकी छवि उदारवादी की है। एनडीए भी अटलजी के कारण ही जुड़ा रहा। बढ़िया सरकार दी गई जिसमें आडवाणी का बड़ा सहयोग था लेकिन उनके गृहमंत्री रहते कंधार जैसा प्रकरण भी हुआ जो स्पष्ट तौर पर नेतृत्व की असफलता था। इंडिया एयरलाईंस के जहाज़ को भारत में रोका जाना चाहिए था लेकिन प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विदेशमंत्री तीनों लाचार और पराजित नज़र आए। निर्णय लेने की घड़ी में नेतृत्व के हाथ कांप गए। फिर कराची जाकर आडवाणीजी ने अनावश्यक जिन्नाह की तारीफ कर दी जबकि हमने देखना यह नहीं कि जिन्नाह ने कहा क्या बल्कि उन्होंने किया क्या? जिन्नाह की करतूतों की अनदेखी कर आडवाणी ने अपनी इज्जत पर वह बट्टा लगाया जो आज तक कायम है।
तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल गया। लोग नए नेतृत्व का परीक्षण करना चाहते हैं। चाहे अरविंद केजरीवाल को उन्हें मिले समर्थन से बहुत अधिक महत्त्व दिया जा रहा है लेकिन यह भी सच्चाई है कि उनके द्वारा शहरी मतदाता वर्तमान राजनीति के प्रति अपनी निराशा और हताशा प्रकट कर रहा है। वह नई उर्जावान राजनीति चाहता है जबकि आडवाणीजी को पुरानी राजनीति के साथ जोड़ा जाता है। इसीलिए संघ प्रमुख भी उन्हें गांव में बसने की नहीं, गांव का ध्यान रखने की सलाह दे रहे हैं। आडवाणीजी को इस सलाह को मानते हुए एक नए समृद्ध गांव की स्थापना के लिए स्वार्थ से ऊपर उठते हुए निष्पक्ष भावना से मार्गदर्शन करना चाहिए। उन्हें इस गांव के संचालन की अपनी इच्छा अब त्याग देनी चाहिए। वे अब सरपंच नहीं बन सकते। उनकी भूमिका उस बुजुर्ग की होनी चाहिए जो सबके कल्याण का संरक्षक हो।
कृष्ण, अर्जुन नहीं ,