इंसाफ़ का लतीफ़ा बन रहा है

इंसाफ का लतीफा बन रहा है

अब तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है पर तमिलनाडु सरकार का राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का फैसला निंदनीय है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस दिन दया याचिका के निपटारे में देरी को लेकर उनकी सजा को आजीवन कारावास में बदला उसी के अगले दिन जयललिता की सरकार ने उन्हें रिहा करने का फैसला कर दिया। न फाईल देखी न दस्तावेज की जांच की गई न ही केंद्र से सलाह ली गई। मुझे तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही समझ नहीं आया। अदालतों में वर्षों मामले लंबित रहते हैं। क्या इन्हें भी ‘देरी’  का औचित्य बता कर खत्म कर दिया जाएगा? कुछ सामाजिक संगठन भी दलील दे रहे हैं कि क्योंकि दया याचिका पर 11 वर्ष के बाद फैसला आया है इसलिए इन आतंकवादियों की तो रोजाना मौत हो रही है इसलिए इन बेचारों की रिहाई होनी चाहिए। यह बेचारे नहीं हैं। पूरी योजना से इन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री की निर्मम हत्या की थी। उन्होंने तब अपने कदम को न्यायोचित ठहराया था। राजीव गांधी के साथ 17 और लोग भी विस्फोट में मारे गए थे। ऐसे आतंकवादियों को इसलिए रिहा कर दिया जाएगा क्योंकि विभिन्न कारणों से मामला लटकता रहा? जेल इसीलिए दी गई ताकि उन्हें किए की सजा मिले। अगर जेल में उनकी रोजाना मौत हो रही थी तो इसमें गलत क्या है? इसी मकसद के लिए तो उन्हें वहां भेजा गया। जेल कोई फाईव स्टार होटल या स्पा तो है नहीं कि कैदियों की मानसिक तथा शारीरिक सुविधाओं का ध्यान रखा जाए। याद रखना चाहिए श्रीपेरम्बूदर की 21 मई 1991 की वह घटना जब संदल के हार के साथ वह महिला राजीव गांधी की तरफ बढ़ी थी और फिर उसने अपनी छाती के साथ बंधे बम का विस्फोट कर दिया था। लिट्टे की पूरी टीम योजना बना कर आई थी। हमारे नेता के चिथड़े उड़ गए थे। राजीव तब केवल 46 वर्ष के थे। ऐसे क्रूर साजिशकर्ताओं को अब खुले छोड़ देना शर्मनाक कार्रवाई होगी। हमारी न्याय प्रणाली का तमाशा बनता जा रहा है।

इस मामले में सब दोषी हैं। विशेष जांच दल ने एक साल के अंदर चार्ज शीट टाडा अदालत में दाखिल कर दी थी पर अदालत में छ: साल लग गए। अदालतें भी अपनी हाथी की चाल बदलने को तैयार नहीं। क्या किसी और देश में पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या का मामला इस तरह नखरों के साथ लंबित रहता? पश्चिम के देशों में एक साल के अंदर-अंदर सब कुछ तय हो जाता है। फिर 11 वर्ष विभिन्न राष्ट्रपति के पास दया याचिका अटकी रही। क्या करते रहे महामहिम? राष्ट्रपति के पास यह अधिकार क्यों है कि वह इस तरह फाईलों पर बैठ सकें? फैसला करें, या हां करें या न करें। लटकाने की सुविधा उनके पास नहीं होनी चाहिए। यह तो प्रशासनिक कायरता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि इन 11 वर्ष में 10 वर्ष कांग्रेस की सरकार थी। गृहमंत्रालय ने तब दबाव क्यों नहीं बनाया? आज राहुल गांधी दु:खी हैं। स्वाभाविक है। सार्थक प्रश्न है कि अगर प्रधानमंत्री के हत्यारे आजाद हो सकते हैं तो आम आदमी की क्या हैसीयत है लेकिन इस असुखद घटनाक्रम में उनकी पार्टी तथा उनके परिवार का भी हाथ है। नलिनी की रिहाई के लिए सोनिया गांधी ने पत्र लिखा। प्रियंका उससे मिलने जेल में गई। क्या संदेश दिया जा रहा था? अपने तमिलनाडु के सहयोगी को प्रसन्न रखने के लिए सोनिया गांधी की सरकार ने राजीव गांधी को ही भुला दिया। अगर कांग्रेस चाहती तो हत्यारों को फांसी लग जाती। कांग्रेस पार्टी ने शोचनीय अवसरवादी समझौता किया। जयललिता का व्यवहार निकृष्ट है पर यह कांग्रेस के घटिया समझौते के आगे फीका पड़ जाता है। वोट के लिए कुछ भी समझौता कर लिया जाएगा? जिस तत्परता से पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों की रिहाई की घोषणा की गई वह तो न्याय तथा कानून पर सवाल खड़े कर रहा है। तमिलनाडु के नेता बार-बार साबित कर रहे हैं कि उन्हें केवल अपनी वोटों की चिंता है राष्ट्रीय हित उन्हें परेशान नहीं करता। ऐसा प्रयास कर जयललिता यह भी साबित कर ही गई कि वह किसी भी राष्ट्रीय भूमिका के काबिल नहीं। ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। विडंबना है कि राजीव गांधी उस पद पर आसीन रह चुके थे जिस पद पर जयललिता पहुंचने की वर्षों से महत्त्वाकांक्षा पाल रही है। जयललिता सरकार का यह गैर जिम्मेदराना रवैया बहुत परेशान करता है। क्या इस देश में केवल अपराधियों के अधिकारों की ही चिंता रहेगी? जो निरपराध लोगों को मारेंगे वे ‘बेचारे’ हो गए क्योंकि उन्हें जेल दी गई? वोट की खातिर हमारा दिमाग फिर गया? पंजाब में भी आतंकवाद के दौर में देखा गया कि मानवाधिकार संगठनों को मारे जा रहे बेकसूर लोगों की चिंता नहीं थी उन्हें चिंता थी कि कहीं आतंकवादियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो। जिन्होंने यहां आतंकवाद को खत्म किया उन पुलिस अफसरों को बाद में परेशान किया गया। पंजाब सरकार अब भी दविन्द्र सिंह भुल्लर तथा बलवंत सिंह राजोआना की रिहाई के लिए हाथ पैर मार रही है। याद रखना चाहिए कि बेअंत सिंह एक प्रदेश के मुख्यमंत्री थे जिस तरह राजीव गांधी केवल कांग्रेस के नेता या एक परिवार के मुखिया ही नहीं थे, वे भारत के प्रधानमंत्री रह चुके थे। राजीव की हत्या केवल एक परिवार का मामला नहीं है।

एक सवाल और। हमारे राजनेता हत्यारों की मदद करने के लिए एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश क्यों करते हैं? दुनिया में और कहां ऐसा होता है? गलत सिग्नल जा रहा है कि अगर आप किसी विशेष जाति/वर्ग/धर्म से संबंधित हो तो चाहे आपने जघन्य अपराध किए हों आपको आजाद करवाने के लिए सदा कोई न कोई राजनेता तैयार रहेगा। वीरप्पन के सहयोगियों की फांसी की सजा भी उम्र कैद में बदल चुकी है। ये लोग 23 पुलिस जवानों की हत्या के लिए जिम्मेवार हैं। यह कैसा नरम तथा अक्षम तंत्र है? पहले अपराधी वर्षों पकड़े नहीं जाते। जब पकड़े जाते हैं तो अदालतों में मामले लटकते रहते हैं। फिर राष्ट्रपति भवन, कानून मंत्रालय या दिल्ली सरकार में ऐसा होता है। फिर देरी का औचित्य बता कर देश की सबसे बड़ी अदालत उनकी सजा को आजीवन कारावास में बदल देती है जबकि मेरी तुच्छ समझ के मुताबिक मामला अपराध की गंभीरता का है देरी का नहीं। फिर प्रदेश सरकार अपनी संकीर्ण राजनीति के लिए उन्हें छोडऩे की घोषणा करती है। यहां तो इंसाफ का लतीफा बनता जा रहा है। अगर फांसी की सजा पर इतनी परेशानी है तो इसे कानून से हटा दो पर जब तक यह कानून का हिस्सा है यह लगनी चाहिए। लेकिन यहां तो दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों में भी हत्यारों को बाहर निकालने का रास्ता बनाया जा रहा है। क्या जीने का अधिकार केवल जघन्य अपराधियों को है? उनका कथित ‘मानसिक संताप’ इतना है कि उसके आगे  राजीव गांधी की हत्या की क्रूरता कम पड़ जाती है? देरी के बावजूद अफजल गुरू को फांसी पर लटका दिया गया जबकि राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का रास्ता साफ किया जा रहा है। कश्मीरी पूछ रहे हैं कि यह दोहरा न्याय क्यों? बात गलत नहीं हैं। जवाब दीजिए।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.