पहला टकराव
बजट अधिवेशन शुरू हो गया है। एनडीए तथा कांग्रेस पार्टी के बीच विपक्ष के नेता को लेकर टकराव की पहली तैयारी भी शुरू हो गई है। चुनाव के बाद से ही कांग्रेस इस पद को पाने का दावा कर रही है। समस्या यह है कि इस लोकसभा में कांग्रेस पार्टी की संख्या बहुत कम और उसकी हैसियत एक प्रादेशिक पार्टी के बराबर है। पिछले तीन दशकों में सत्तापक्ष तथा विपक्ष के बीच इतना भारी अंतर कभी नहीं हुआ। इसके बावजूद कांग्रेस दावा जता रही है और भाजपा इसे मानने को तैयार नहीं। कांग्रेस का दावा है कि विपक्ष के नेता की देश को जरूरत है पर भाजपा का तर्क है कि विपक्ष का नेता वह ही बन सकता है जिसकी पार्टी के पास लोकसभा के सदस्यों की संख्या का दस प्रतिशत से अधिक हो। कांग्रेस के पास मात्र 44 सांसद हैं इसलिये उसका अधिकार नहीं बनता क्योंकि 543 सांसदों वाले सदन मेें विपक्ष का नेता बनने के लिये न्यूनतम 55 सांसद चाहिए। इस संदर्भ में यह बातें उल्लेखनीय हैं :-
1. सदैव विपक्ष के नेता का पद नहीं रहा। कांग्रेस खुद दूसरी पार्टियों को यह पद देने के मामले में बिल्कुल अनुदार रही है। इंदिरा गांधी के समय कोई विपक्ष का नेता नहीं था। जब राजीव गांधी को प्रचंड बहुमत मिला तब भी विपक्ष को यह पद नहीं दिया गया। 1969 तक विपक्ष के नेता के पद का कोई प्रावधान नहीं था। कांग्रेस के विभाजन के बाद राम सुभाग सिंह पहले विपक्ष के नेता बने थे। पांचवीं लोकसभा में भी कोई विपक्ष का नेता नहीं था।
2. अर्थात् हमारे संसदीय इतिहास में विपक्ष के नेता का पद जरूरी नहीं समझा गया। यूपीए के शासन के दौरान सुषमा स्वराज ने जोरदार ढंग से यह भूमिका निभाई थी लेकिन भाजपा 10 प्रतिशत की शर्त पूरी करती थी। देश के पहले लोकसभाध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर ने 1953 मेें जो नियम निर्धारित किये थे उनके अनुसार एक पार्टी के पास सदन की संख्या का 10 प्रतिशत होना अनिवार्य है ताकि उसे ‘संसदीय ग्रुप’ करार दिया जाए। कांग्रेस यह शर्त पूरी नहीं करती।
3. 1998 के लीडर्स एंड चीफ व्हिपस आफ रैकगनाइजड पार्टीज एंड ग्रुप इन पार्लियामैंट एक्ट के अनुसार भी मान्यता प्राप्त करने के लिये एक पार्टी के पास 10 प्रतिशत संख्या जरूर होना चाहिये।
4. अगर ऊपर वाले दो नियम देखेें तो कांग्रेस पार्टी का कोई दावा नहीं बनता पर कांग्रेस की मदद 1977 का विपक्ष के नेता के वेतन तथा भत्ता कानून करता है जो विपक्ष के नेता को इस तरह परिभाषित करता है, ‘सदन मेें उस पार्टी का नेता जो विपक्ष में है और जिसके पास सबसे अधिक संख्या है…।’ यहां 10 प्रतिशत की कोई शर्त नहीं रखी गई। इसी को लेकर कांग्रेस पार्टी अपना दावा रख रही है। अर्थात् इस मामले को लेकर स्पष्टता नहीं है और आखिर मेें फैसला लोकसभा की अध्यक्षा अपने विवेक से करेंगी।
5. इस पद का महत्व केवल उसका रुतबा, वेतन, भत्ता या सुविधाएं ही नहीं हैं बल्कि यह भी है कि विपक्ष का नेता उस उच्च स्तरीय चयन समिति का सदस्य होता है जो चीफ विजीलैंस कमिश्नर, लोकपाल, सीबीआई के निदेशक, मानवाधिकार कमीशन के सदस्यों का चयन करती है। विपक्ष के नेता के तौर पर सुषमा स्वराज ने सीवीसी थॉमस पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई थी और उन्हें हटना पड़ा था। सरकार द्वारा अपने लोकपाल की नियुक्ति को भी सुषमा ने रोक दिया था और सरकार को मजबूर कर दिया था कि वह फैसला सर्वसम्मति से करे।
हमारे लोकतंत्र में विपक्ष के नेता का पद बहुत महत्व रखता है इसीलिये चुनाव में मटियामेट हुई कांग्रेस पार्टी भी इसे प्राप्त करने के लिये हाथ-पैर मार रही है। यह भी हो सकता है कि इस मुद्दे को लेकर वह सदन की कार्यवाही में खलल डालने का प्रयास करे पर जितनी कम उसकी संख्या है इसकी संभावना अधिक नहीं। पार्टी के पास नेतृत्व का भी अकाल है। राहुल गांधी जिम्मेवारी छोड़ भाग खड़े हुए हैं। यह भी हो सकता है कि मामला सुप्रीम कोर्ट मेें उठे लेकिन बड़ी अदालत के लिये भी लोकसभाध्यक्ष की व्यवस्था को रद्द करना आसान नहीं होगा। कांग्रेस का अपना विपक्ष के प्रति बर्ताव अनुकरणीय नहीं रहा लेकिन इसके बावजूद संसदीय लोकतंत्र की सेहत के लिये एक विपक्ष का नेता चाहिए। क्योंकि सरकार के पास अपना प्रचंड बहुमत है उस पर कुछ अंकुश रखने के लिये भी विपक्ष का नेता चाहिये। विशेषतौर पर क्योंकि वह उच्च स्तरीय चयन पैनल का सदस्य भी होता है। अगर विपक्ष का नेता नहीं होगा तो सरकार अपनी मनमानी करेगी। कांग्रेस के अपने घटिया व्यवहार के बावजूद भाजपा को इस मांग पर सहानुभूति से गौर करना चाहिए। इसलिये नहीं कि कांग्रेस पार्टी ऐसा चाह रही है। इसलिये कि लोकतंत्र का यह तकाजा है कि विपक्ष का नेता जरूरी है।