अजीब दास्तां है यह!
जम्मू कश्मीर तथा झारखंड के चुनाव परिणाम बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की बढ़त लगातार जारी है। यह सही है कि प्रधानमंत्री के भरसक प्रयास के बावजूद पीर पंजाल के पार कश्मीर वादी में भाजपा को भारी निराशा लगी है। केवल 2 प्रतिशत वोट मिले हैं और वादी में पार्टी का खाता नहीं खुला। कश्मीरी मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने के लिए पार्टी ने धारा 370 पर अपना स्टैंड भी अस्पष्ट कर दिया लेकिन लोगों ने वादी में भाजपा को पसंद नहीं किया। लद्दाख से भी यही संदेश है। भाजपा केवल जम्मू का प्रतिनिधित्व कर रही है लेकिन इसके बावजूद इन चुनावों का अगर कुछ संदेश है तो यह कि अखिल भारतीय स्तर पर किसी पार्टी तथा किसी नेता को समर्थन मिल रहा है तो वह भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी हैं। नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक भूदृश्य बदल दिया। कांग्रेस का पतन जारी है। जम्मू कश्मीर में भी सबसे अधिक वृद्धि भाजपा को ही मिली है चाहे पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनी है। हो सकता है कि वादी में इसलिए अधिक वोट पड़ा हो क्योंकि लोग भाजपा को रोकना चाहते थे लेकिन यही तो लोकतंत्र है।
झारखंड के लिए भी अच्छी खबर है कि वहां भाजपा की सरकार बनी है क्योंकि जबसे 2000 में बिहार से अलग कर इस प्रदेश को बनाया गया तब से यहां राजनीतिक अस्थिरता रही है। अब यह प्रदेश सही तरक्की कर सकेगा पर जम्मू कश्मीर की राजनीति एक चक्रव्यूह जैसी है। भाजपा उसमें फंस सकती है। धारा 370 का मुद्दा ही संभालना मुश्किल होगा। कश्मीर वादी की मुस्लिम पार्टियों के साथ भाजपा को गठबंधन करना आसान नहीं होगा। जम्मू तथा कश्मीर के बीच राजनीतिक और साम्प्रदायिक दीवार जो नज़र आ रही है वह भी समस्या खड़ी करेगी। हिन्दू मुख्यमंत्री को रोकने के लिए कश्मीर की सभी पार्टियां इकट्ठी हो गई हैं। धर्मनिरपेक्षता का भी रोना रोया जा रहा है कि धर्मनिरपेक्षता तब तक कायम है जब तक कश्मीरी मुसलमान सीएम बनता है! जम्मू के हिन्दू के सीएम बनने से यह बेचारी खतरे में पड़ जाएगी। एफस्पा का मामला भी समस्या खड़ी कर रहा है लेकिन असली बात तो छः साल के सीएम को लेकर है। मुफ्ती साहिब छः साल कायम रहना चाहते हैं चाहे उनकी पार्टी का एक भी हिन्दू विधायक नहीं है।
मुफ्ती मुहम्मद सईद का कहना है कि उनके भाजपा के साथ वैचारिक मतभेद हैं लेकिन जनादेश कांग्रेस के खिलाफ भी है। नेशनल कांफ्रेंस के साथ वह जा नहीं सकते तो फिर सरकार बनेगी कैसे? कश्मीर की हालत पर एक बार डा. कर्ण सिंह ने पुराने लोकप्रिय गाने के यह शब्द गाए थे। आज उन्हें दोहराने को मन चाहता है,
अजीब दास्तां है यह, कहां शुरू कहां खत्म!
ये मंजिलें हैं कौन सी, न वो समझ सके न हम!
जब से केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है तब से भाजपा सभी प्रादेशिक चुनाव जीतती आ रही है, चाहे कश्मीर में पूरी सफलता नहीं मिली लेकिन वहां भी कामयाबी कम नहीं है। यह सही है कि इकट्ठे होकर विपक्ष ने संसद, विशेष तौर पर राज्यसभा जहां उसका बहुमत है, नहीं चलने दी लेकिन जहां तक खुद प्रधानमंत्री मोदी का सवाल है उनकी लोकप्रियता बरकरार है। उन्हें सही मायनों में ‘मैन आफ द ईयर’ कहा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी के लिए 2014 का अंत विजयोत्सव में हुआ है भाजपा अब पूरी तरह से उन पर आश्रित है। दूसरा कोई नेता उनकी बराबरी नहीं कर सकता, न यह बोझ उठा सकता है। न केवल सरकार बल्कि पार्टी का भार भी उनके कंधों पर है। वह खुद को चुनौती देते हैं और उसमें सफल भी रहते हैं लेकिन उन्हें देखना चाहिए कि संसद सही चले क्योंकि इसे चलाना मुख्यतया सत्तापक्ष की जिम्मेवारी है। उन्हें प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अनुसरण करना चाहिए जो कई बार स्पीकर से भी पहले सदन में पहुंच जाते थे और खड़े होकर स्पीकर का अभिनंदन करते थे। दूसरा, संघ परिवार के उग्र तत्वों पर नियंत्रण करना बहुत जरूरी है। उनके कारण राज्यसभा पटरी से उतर गई और सरकारी कामकाज नहीं हो सका। इस देश में एक दर्जन नेता तथा टीवी कैमरे मिल कर कोई भी तूफान खड़ा कर सकते हैं। इसकी इज़ाजत नहीं होनी चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भी अशोक सिंघल तथा प्रवीण तोगडिय़ा ने नाक में दम कर दिया था। मनमोहन सिंह सरकार के 10 साल यह लोग क्यों चुप रहे? अब फिर जब अपनी सरकार आ गई तो उसके लिए समस्या खड़ी कर रहे हैं। 2014 में प्रधानमंत्री मोदी अधिकतर पार्टी प्रचारक थे 2015 का साल उनके लिए एक प्रशासक का साल रहना चाहिए। उनका तथा उनकी सरकार का भविष्य अब इस पर निर्भर करता है। पंजाब की राजनीतिक हालत बदसूरत हो रही है जहां उपमुख्यमंत्री ही बीएसएफ के खिलाफ धरना देने की धमकी दे रहे हैं। इसे रोकने की जरूरत है।
जम्मू कश्मीर में जनादेश खंडित आया है। ‘मुस्लिम’ कश्मीर तथा ‘हिन्दू’ जम्मू में जो राजनीतिक और साम्प्रदायिक विभाजन नज़र आ रहा है वह एक नई समस्या है। वादी के नेताओं को भी समझना चाहिए कि परिणाम बता रहे हैं कि जम्मू वाले भी भारी शिकायत दर्ज करवा रहे हैं। फारूख अब्दुल्ला समझ गए थे कि अगर प्रदेश सरकार ने कायम रहना है तथा केन्द्र से पैसे लेने हैं तो केन्द्र के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते चाहिए। संभव नहीं कि मुफ्ती मुहम्मद सईद यह सबक न जानते हों। केन्द्र के पास पैसा भी है और सेना भी अर्थात् उनके लिए भी भाजपा के साथ अच्छे रिश्ते बनाने लाज़मी हैं। वह यह भी जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी का अटलजी जैसा उदार स्वभाव नहीं है पर प्रदेश के नेताओं की ‘न्यूसैंस वैल्यू’ बहुत है। जम्मू कश्मीर के नेताओं के लिए केन्द्र एक एटीएम है जिसमें चाहे उनका बैलेंस हो न हो उन्हें पैसा मिलता रहना चाहिए। पैसे के इस्तेमाल की कोई जवाबदेही नहीं होनी चाहिए। कोई हिसाब नहीं। ब्लैकमेल को कला में परिवर्तित कर दिया गया है। वह पैसे भी लेते हैं और गालियां भी देते हैं। जब जवाबदेही की बात कही जाती है तो कश्मीर के संघ के साथ विलय पर सवाल लगा दिया जाता है। पाकिस्तान के पक्ष में आवाजें उठनी शुरू हो जाती हैं तथा ‘कश्मीर समस्या’ का मुद्दा उठाया जाता है। सही शासन, विकास, रोजगार आदि की तरफ ध्यान नहीं। लेकिन प्रदेश के लोगों ने शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला की चुनाव में जो गत बनाई है उससे प्रदेश के राजनेताओं को भी सावधान हो जाना चाहिए। कश्मीर के बारे कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। इसकी राजनीति धारावाहिक रहस्य गाथा है। सचमुच अजीब दास्तां है यह। देखते हैं कि भाजपा तथा नरेन्द्र मोदी इस दास्तां को सकारात्मक मोड़ दे पाने में सफल रहते हैं या नहीं? 2015 की यह बड़ी राजनीतिक चुनौती होगी। नया साल मुबारिक!