Ek Shahar Ho Sapnoan ka

इक शहर हो सपनों का

भाजपा की तीन जमा एक देवियों से सम्बन्धित विवादों के बीच प्रधानमंत्री द्वारा शहरों के कायाकल्प के लिए घोषित तीन अहम परियोजनाओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया जिनसे हमारे जर्जर हो रहे शहरों का कायाकल्प हो सकता है। 100 स्मार्ट सिटी बनाने के अतिरिक्त अमृत योजना के नीचे 500 शहरों  के  विकास की योजना है। शहरों में दो करोड़ मकान बनाने की महत्वकांक्षी योजना है। क्या यह सफल होगी? इससे पहले मैं यह बताना चाहता हूं कि हमारे जर्जर शहरों का बदलाव अब हमारी राष्ट्रीय जरूरत बन चुका है क्योंकि इस देश में शहरीकरण तेजी से बढ़ता जा रहा है। लोग गांवों से निकल कर शहरों की तरफ बढ़ रहे हैं जिसका प्रमुख कारण रोजगार है। इसके अतिरिक्त शहरों की बेहतर जिंदगी तथा शिक्षा व्यवस्था भी है। वास्तव में इस बाबत बहुत पहले सोचने की जरूरत थी लेकिन उस वक्त हम गांधीजी के कथन कि ‘भारत गांवों में बसता है’ को गले लगा कर बैठे थे। दशकों से हमारे राजनीतिक तथा आर्थिक निर्णय गांवों को सामने रख कर लिए जाते रहे लेकिन शहरीकरण की प्रक्रिया इस देश में इतनी तेज़ है कि इसकी अब अनदेखी नहीं की जा सकती। 35 करोड़ भारतीय शहरों में रहते हैं अगर यही हालत और रफ्तार रही तो 2030 तक 60 करोड़ इन जीर्ण खचाखच भरे गंदे शहरों में नारकीय जीवन जी रहे होंगे जहां सांस लेना भी मुश्किल होगा। दिल्ली का पहले ही इतना बुरा हाल हो गया है कि प्रदूषण के कारण कई विदेशी वापिस जा रहे हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि हम बहुत देर से सोचते हैं, जो शिकायत प्रधानमंत्री मोदी ने भी की है। अगर दिल्ली में मैट्रो 20 साल पहले शुरू हुई होती तो शहर की तस्वीर और होती। क्योंकि अब लोगों को एक जगह से दूसरी जगह अपने वाहन से जाने की आदत पड़ चुकी है इसलिए मैट्रो के बावजूद सड़कों पर वाहनों की तादाद कम नहीं हो रही। दूसरे शहरों में भी अब मैट्रो शुरू हो रही है। पिछले सप्ताह चेन्नई में भी शुरू हुई है पर वहां भी अभी केवल तीन स्टेशन ही चालू हुए हैं।
प्रधानमंत्री चाहते हैं कि शहर हमारे विकास का इंजन बनें लेकिन क्या यह संभव है? क्या 21वीं सदी की टैक्नोलॉजी से हम अभी 19वीं सदी में रह रहे अपने शहरों को बदल सकते हैं? वाशिंगटन पोस्ट ने भी लिखा है कि ‘भारत 100 स्मार्ट सिटी बनाना चाहता है पर लोग बिजली और पानी चाहते हैं।’ यह हमारे शहरों की हकीकत है। एक स्मार्ट सिटी जो एक आधुनिक अजूबा होगी, में पानी, बिजली, ट्रैफिक, सैनिटेशन, वेस्ट डिस्पोजल, अस्पताल, सड़कें, शिक्षा संस्थाएं, आपातकालीन सुविधाएं सब सूचना तकनीक के साथ जोड़़ दी जाएंगी ताकि इन्हें बेहतर चलाया जा सके। लेकिन क्या इस भारत में हम लंदन, पेरिस, बारसिलोना, वियना, टोरैंटो, सोल, आबू धाबी, सिंगापुर या हांगकांग की नकल कर सकते हैं? क्या हमारी मानसिकता बदलेगी? क्या यह सड़ी हुई व्यवस्था बदलेगी? हमारे जीवन में अनुशासन आएगा? क्या हम कभी यह भी सोचने लगेंगे कि हमारे अधिकार ही नहीं हैं, सामाजिक जिम्मेवारी भी है? क्या हमारी वह राजनीति इसकी इजाज़त देगी जो अवैध कालोनियों को वैध करने में माहिर है जिनमें मूलभूत सुविधाएं भी नहीं?
हमारे शहरों की हालत बहुत शर्मनाक है। सामान्य सुविधाएं भी बढ़ती जनसंख्या के बराबर नहीं बढ़ीं। सड़कों की हालत बुरी है। हम बराबर टैक्स नहीं देते क्योंकि हमारा मानना है कि हमें नागरिक सुविधाओं में कुछ नहीं मिलता। हर जगह अवैध कब्जे हैं। दुकानदार सामान बाहर रख फुटपाथ को घेर लेता है तो घर के आगे रैम्प बनाकर सड़क छोटी कर दी जाती है। अधिकतर फुटपाथ ही खत्म हो गए हैं। अंधाधुंध निर्माण के कारण हरी छत्त अत्यंत मामूली रह गई है। अगर हमारे शहरों की अराजक हालत किसी ने देखनी हो तो राजधानी दिल्ली के पहाडग़ंज रेलवे स्टेशन के बाहर देखी जा सकती है। दुनिया में कई रेलवे स्टेशन तो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। कईयों में शापिंग मॉल, फूड कोर्ट और दफ्तर हैं पर हमारी राजधानी के रेलवे स्टेशन में गाड़ी पकडऩा ही एक चुनौती है क्योंकि ट्रैफिक बेतरतीब है, गंदगी है, भीड़ बहुत है और संभालने वाला कोई नहीं।
प्रधानमंत्री शहरों का कायाकल्प करना चाहते हैं पर क्या वोटों के लिए मर मिटने को तैयार हमारे नेता इसकी इजाजत भी देंगे? क्या हमारे नगर निगम तथा नगर पालिकाएं कानून का पालन करवाएंगी? क्या लोग सहयोग देंगे? हमारी तो आदतें ही बिगड़ी हुई हैं। अभी से कहा जा रहा है कि स्मार्ट सिटी की योजना ‘इलीटिस्ट’ अर्थात् उच्च वर्ग के लिए होगी। इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा होता है कि इन तीन महत्वकांक्षी योजनाओं के लिए पैसा कहां से आएगा? स्मार्ट सिटी के लिए अभी 100 करोड़ रुपया दिया जा रहा है जो केवल योजना का नक्शा बनाने के लिए ही पर्याप्त होगा। स्मार्ट सिटी काउंसिल आफ इंडिया के मुताबिक एक बेहतरीन स्मार्ट सिटी बनाने के लिए कई हजार करोड़ रुपए चाहिए। प्रदेश सरकारों को भी बराबर पैसा लगाना होगा लेकिन पैसा है कहां?
जहां सारा ध्यान 100 स्मार्ट सिटी तथा अमृत योजना के अंतर्गत 500 शहरों पर होगा वहां सवाल है कि बाकी शहरों का क्या होगा? क्या कुछ क्षेत्र दुबई की तरह चमकेंगे तो बाकी 19वीं सदी में ही छोड़ दिए जाएंगे? इनकी हालत जर्जर ही रहेगी? ऐसा तो नहीं होगा कि एक भारत बुलेट ट्रेन में सफर करेगा तो एक और भारत 50 वर्ष पुराने खचाखच भरे गंदे रेल डिब्बों में सफर करने को मजबूर होगा? बहुत कुछ आर्थिक विकास की दर पर भी निर्भर करता है अगर यह अच्छी रही तो सरकार के पास अपनी योजनाओं के लिए पैसा आएगा नहीं तो समस्या रहेगी। इन योजनाओं में विदेशी निवेश कितना होता है यह अभी संदिग्ध है। इस सबके बावजूद तथा सभी शंकाओं को सामने रखते हुए प्रधानमंत्री की पहल का स्वागत है। चाहे यह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ हो, चाहे यह ‘मेक इन इंडिया’ हो या अब शहरों के लिए यह महत्वकांक्षी योजनाओं का आरंभ हो, या जन धन योजना हो, या डिजिटल इंडिया हो, खुशी है कि नई सोच सामने आ रही है। कम से कम हताशा में यह स्वीकार नहीं किया जा रहा कि यहां कुछ नहीं बदलेगा, यहां वही चाल बेढंगी रहेगी जो पहले थी और अब भी है। प्रधानमंत्री जमीनी हकीकत से समझौता करने को तैयार नहीं इसलिए इस प्राचीन देश को आगे बढ़ाने के लिए धक्के लगाए जा रहे हैं। पुरानी मानसिकताओं को चुनौती दी जा रही है। पूर्ण सफलता नहीं मिलेगी लेकिन कुछ तो हासिल होगा। अभी से सफाई के बारे अधिक जागरूकता है। नए टायलैट बनने शुरू हो गए हैं। प्रधानमंत्री के इन प्रयासों की सराहना है कि
कुछ नहीं तो कम से कम ख्वाब-ए-सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है!
प्रधानमंत्री के इस ‘ख्वाब-ए-शहर’ का स्वागत है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.