जिस वक्त सियाचिन के हीरो लांस नायक हनुमनथप्पा की सलामती के लिए देश भर में प्रार्थनाएं हो रही थीं और देश की रक्षा के लिए उसके 9 साथियों की शहादत पर गहरा शोक व्यक्त किया जा रहा था उसी दिन दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुछ लोग ‘अफजल गुरू जिंदाबाद’ तथा भारत के टुकड़े टुकड़े करने के नारे लगा रहे थे। जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को गिरफ्तार कर लिया है पर वामपंथी उसके समर्थन पर उतर आए हैं और कहा जा रहा है कि देश में आपातकाल लगाया जा रहा है। यह बकवास है। अगर वामदल देश से भाप की तरह उड़ रहे हैं तो इसका भी मुख्य कारण है कि वह चरमपंथ को समर्थन करते हैं और देश की मुख्यधारा से कट गए हैं। एक वाम समर्थक मित्र जो गुरुनानक देव विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं, शिकायत कर रहे थे कि संघ विश्वविद्यालयों में घुसपैठ कर रहा है। मेरा जवाब था कि आप ऐसी बेवकूफियां क्यों करते हो कि आपने राष्ट्रवाद की सारी जगह उनके लिए छोड़ दी है?
यह मामला कानूनी तौर पर देशद्रोह का बनता है या नहीं लेकिन आम आदमी की नज़र में तो अफजल गुरू या याकूब मेमन या मकबूल बट्ट जैसे आतंकवादियों के पक्ष में नारे लगाना देशद्रोह से कम नहीं। कई पूर्व वरिष्ठ सैनिक अफसर जेएनयू की डिग्री लौटाने की बात कर रहे हैं। राहुल गांधी कहते हैं कि विरोध तथा बहस का अधिकार हमारे लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा है पर देश के टुकड़े करने की धमकी या मारे गए आतंकवादियों के समर्थन में नारे लगाना लोकतंत्र का जरूरी हिस्सा कैसे बन गया? राहुल गांधी की बुद्धि तथा विचारधारा पर तरस आता है वह उन्हें समर्थन करते नज़र आ रहे हैं जो अफजल गुरू की फांसी को ‘न्यायिक हत्या’ कह रहे हैं जबकि फांसी भी उनकी अपनी सरकार के समय लगाई गई थी। अफसोस है कि वहां जो देश विरोधी हरकत की गई यहां तक कि पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगे उनके विरोध में राहुल गांधी ने एक शब्द नहीं कहा। वह भी खुद को राष्ट्रवादी विचारधारा से अलग कर रहे हैं। उन्हें तो सरकारी कार्रवाई में हिटलर की बू आ रही है। इसे कहते हैं कि अल्प जानकारी खतरनाक चीज़ है!
भारत एक नरम राज्य है। ‘साफ्ट स्टेट’। हमने 3 लाख कश्मीरी पंडितों का पलायन बर्दाश्त कर लिया लेकिन देश विरोध की कोई तो सीमा होनी चाहिए। जो छात्र जेएनयू में पढ़ते हैं उन पर साढ़े तीन लाख रुपए प्रति छात्र प्रति वर्ष खर्च किया जाता है। यह कैसी शिक्षा, कैसा विश्वविद्यालय कि वहां देश को गालियां निकालना ही प्रचलित हो गया है? अगर आपने पढ़ाई नहीं करनी और ऐसी राजनीति करनी है जो देश विरोध की लक्ष्मणरेखा को पार करती है तो हम करदाता आपकी शिक्षा का बोझ क्यों उठाएं? हमने आपकी पढ़ाई के लिए पैसे देने हैं अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में आपकी ऐसी अवांछनीय राजनीति के लिए नहीं। सरकार ने जो सख्ती की है उसका पूरा समर्थन है।
यह कैम्पस देश विरोधी गतिविधियों तथा चरमपंथियों की गतिविधियों का केन्द्र बनता जा रहा है। जब 2010 में दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ जवान मारे गए तो जेएनयू के छात्रों के एक वर्ग ने जश्न मनाया था। अफजल गुरू का महिमागान चाहे जेएनयू में हो या हैदराबाद विश्वविद्यालय में, इसे अभिव्यक्ति की आजादी या विचारों की बहस नहीं कहा जा सकता। यह गद्दारी है। दिल्ली के प्रैस क्लब में कश्मीर की आजादी के पोस्टर लगाए गए। आप इस्लामाबाद के प्रैस क्लब में ब्लूचिस्तान की आजादी के पोस्टर लगा कर तो देखो? वामदलों को आपत्ति है कि पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में घुस गई तथा होस्टल से छात्रों को पकड़ रही है। निश्चित तौर पर पुलिस को शिक्षा संस्था में नहीं जाना चाहिए पर अगर वह उच्च शिक्षा संस्था देश विरोधी गतिविधियों का अड्डा बन जाए जहां देश के प्रति नफरत फैलाने की इजाज़त दी जाए तो सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रह सकती।
दुख की बात है कि भाजपा को छोड़ कर बाकी राजनीतिक दल इस मामले में या तो सरकारी कार्रवाई पर आपत्ति कर रहे हैं या खामोश हैं। अवार्ड वापिसी ब्रिगेड भी खामोश है। क्या जेएनयू के चरमपंथियों को केवल इसलिए समर्थन दिया जाएगा क्योंकि उनका विरोध संघ परिवार तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कर रहे हैं? आपको नरेन्द्र मोदी की शक्ल पसंद नहीं तो कोई आपत्ति नहीं। आपको भाजपा पसंद नहीं है तो चलेगा। आपको संघ से नफरत है यह आजाद सोचका मामला है पर जब आप यह कहते हैं कि ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी’ तो आप के साथ कोई सहानुभूति नहीं। आपको जूते पड़ने चाहिए। नारे लगाए गए कि ‘अफजल गुरू हम तुम्हारे अरमानों को मंजिल तक लेकर जाएंगे’ इसका क्या अर्थ है? क्या संसद पर और हमले की योजना है? सवाल है कि क्या मानवाधिकारों की आड़ में देश विरोधी गतिविधियां जायज़ हैं? इशरत जहां की मौत पर तूफान खड़ा किया जाएगा चाहे वह लश्कर की फिदायीन थी और मोदी पर हमला करना चाहती थी। इस तथ्य को ढांप दिया गया। ऐसे मानवाधिकार संगठन केवल उनका समर्थन क्यों करते हैं जो देश विरोधी हैं या थे? उन्हें उनकी चिंता क्यों नहीं होती जो इनके नापाक कारनामों के शिकार होते हैं? अफजल गुरू को यह लोग ‘शहीद’ मान रहे हैं तो जो नौ लोग उस दिन देश की संसद की हिफाजत करते मारे गए वह फिर क्या थे?
हर देश अपनी हिफाजत के लिए कदम उठाता है। जो बुद्धिजीवी उदार पश्चिमी विचारधारा की नकल करते हैं उन्हें याद करवाना चाहता हूं कि फ्रांस ने बुर्के पर पाबंदी लगा दी है। ब्रिटेन उन मुस्लिम महिलाओं को निकालने की धमकी दे रहा है जो अंग्रेजी नहीं जानतीं और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी चाहते हैं।
जिस तरह यहां मकबूल बट्ट तथा अफजल गुरू का गुणगान किया गया उस तरह आप अमेरिका में ओसामा बिन लादेन की प्रशंसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकते। पर भारत एक उदारवादी लोकतंत्र है जहां अपनी बात कहने की पूरी इजाज़त है लेकिन आजादी के साथ जिम्मेवारी भी आती है। अभिव्यक्ति की आजादी सम्पूर्ण नहीं। देश विरोध इस आजादी का हिस्सा नहीं होना चाहिए। जेएनयू में बहुत समय से यह लक्ष्मण रेखा पार की जा रही थी। अफसोस है कि न फैकल्टी ने और न ही प्रबंधकों ने इन गतिविधियों पर लगाम लगाने का प्रयास किया। यह तेज तर्रार फैकल्टी जो आज शिकायत कर रही है उस वक्त कहां थी जब दंतेवाड़ा में जवान मारे जाने पर उनके कैम्पस में खुशी मनाई गई थी? इसी लापरवाही या संलिप्तता का परिणाम है कि अब आखिर में सरकार को दखल देना पड़ा और इस दखल को खामोश बहुसंख्या का भारी समर्थन मिला है। कांग्रेस जैसी मुख्यधारा वाली पार्टियों को भी समझ जाना चाहिए कि देश शहीदों के साथ है, गद्दारों के साथ नहीं।
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सत्ता से दूर बैठने की वजह से विपक्षी पार्टियों द्वारा विरोध के लिए विरोध किया जाना समझ आता है,संघ और भाजपा से भी उनकी घोर असहमति समझ आती है, परन्तु क्या सत्ता पाने का लोभ इतना प्रबल हो गया है कि देशविरोधी ताकतों के पक्ष में खड़े होने और बयानबाजी करने में भी इन्हें शर्म नहीं आती। धिक्कार है ऐसी ओछी राजनीती पर। जिन शिक्षण संस्थाओं में राष्ट्र भक्ति और राष्ट्र गौरव का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए वहीं राष्ट्रविरोध का क्रूर तांडव!!! यह अभिव्यक्ति की आजादी नहीं, प्रत्यक्ष राष्ट्र-द्रोह है।