
यह एक अत्यंत भावुक क्षण था। अरनब गोस्वामी की बहस में जब कुछ वार्ताकारों ने सरकार की केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने की योजना पर सवाल उठाया तो कई सैनिक के अभियानों नायक रिटायर्ड मेजर जनरल गगन बक्शी भावुक हो उठे। आंखें पौंछते हुए जनरल बक्शी ने मीडिया के एक वर्ग तथा कथित बुद्धिजीवियों द्वारा फैलाए जा रहे माहौल पर यह टिप्पणी की ‘‘दुख हो रहा है हम अकेले रह गए। हम फौजी आज अकेले रह गए। रोने के लिए।’’
कितनी तड़प है इन शब्दों में! कितनी हताशा! देश का एक बहादुर यौद्धा परेशान है कि इस देश में एक मुखर राय ऐसी भी है जो उदारवाद के नाम पर उनका समर्थन कर रही है जो देश की बर्बादी की बात कर रहे हैं और जो देश भक्ति की बात करते हैं उनकी आवाज को दबाने का प्रयास कर रहे हैं। जनरल बक्शी हैरान परेशान थे कि इस देश में तिरंगा लहराने पर भी आपत्ति की जा रही है?
यह वही तिरंगा है जिसके लिए हमारे सैनिक अपनी जान बाज़ी पर लगा देते हैं। जब हाजीपीर या कारगिल में टाईगर हिल पर भारी कुर्बानी के बाद हमने फतह पाई तो गर्व के साथ हमारे सैनिकों ने सबसे पहले तिरंगे के साथ तस्वीर खिंचवाई। जब किसी भारतीय ने एवरेस्ट पर फतह पाई तो सबसे पहले तिरंगा निकाल उसे वहां फहराया। हर अंतर्राष्ट्रीय खेल में जीत के बाद हमारे खिलाड़ी सबसे पहले तिरंगे में लिपट कर स्टेडियम का चक्कर लगाते हैं। और यहां कुछ लोगों को तिरंगा फहराने पर ही आपत्ति है?
जनरल बक्शी लिखते हैं ‘‘अरनब की बहस में अचानक मुझे हम सैनिकों तथा दूसरे में अंतर समझ आ गया। मुझे धक्का लगा…अब हमें राष्ट्रीय ध्वज लहराने पर ही समस्या है। क्या विश्वविद्यालय जो हमारे टैक्सों से चलतें है के लिए यह जायज है कि वह हर अफजल गुरु, मकबूल बट्ट, हर माओवादी का गुणगान करे और 76 सीआरपीएफ के जवानों की माओवादियों द्वारा हत्या का जश्न मनाएं? समस्या है कि इन वामपंथी उदारवादियों के ठिकानों ने ऐसी व्यवहार कुशल बहस तैयार कर दी है जहां पर देश भक्त गुंडा है और यह जो स्मार्ट सैट है वह चुस्त बुद्धिजीवी हैं। केवल हमारे जैसे सैनिक ऐसे बेवकूफ हैं जो बेहद राष्ट्रवादी बन जाते हैं। झंडा इस बात का प्रतीक है कि हम क्या हैं। यह वह रेश्म का टुकड़ा है जिसके लिए हम लड़ते हैं और मरते हैं।’’
लेकिन मैं मेजर जनरल गगनदीप बक्शी को कहना चाहता हूं कि जनरल साहिब, आप अकेले नहीं। देश आपकी और आपके जवानों की कदर करते हैं। उनकी जवानी और कुर्बानी पर नाज़ है। अब फिर कश्मीर में पांपोर में दो जवान अफसर और एक जवान शहीद हुए हैं। यह असली भारत के प्रतिनिधि हैं वह नहीं जो ‘आजादी’ के नारे लगाते हैं।
मीडिया का एक हिस्सा सारे संवाद को हाईजैक करने का प्रयास कर रहा है। इन्हें इनका बीफ मुबारिक! उन्हें उनके कन्हैया तथा उमर खालिद मुबारिक! वह इस देश की ज़मीर के ठेकेदार नहीं। आज जो कन्हैया कुमार को मासूम बेकसूर केन्द्रीय सरकार की ज्यादती का शिकार बताने की कोशिश कर रहे हैं उनसे पूछना है कि क्या कारण है उसने 9 फरवरी जो अफजल गुरु की बरसी थी उसी दिन कार्यक्रम रखा था जबकि अनुमति भी नहीं मिली थी? ‘बंदूक के बल पर….आजादी’ जैसे नारे क्या देशद्रोह नहीं है?
जनरल साहिब के इन शब्दों के बाद उन सबको शर्म से डूब जाना चाहिए जो देश भक्ती को एक दकियानूसी आऊट ऑफ डेट भावना मानते हैं। आपत्ति केवल राष्ट्रीय ध्वज पर ही नहीं राष्ट्रगान पर भी है कि सिनेमा में इसे क्यों बजाया जाए? क्या आप केवल 52 सैंकेंड के लिए खड़े नहीं हो सकते? जब स्मृति ईरानी ने जनरल बक्शी को ढांढस देने के लिए भारत माता का जिक्र किया तो इसका उपहास उड़ाया गया। बंदे मातरम् पर आपत्ति की जाती है जबकि सारी आजादी की लड़ाई इस एक उद्घोष के सहारे लड़ी गई। लेकिन आज देश नकली उदारवादियों के हाथ चढ़ गया है जो देश के अंदर एक नाजायज़ खोखली उदार संस्कृति फैलाना चाहते हैं जहां हर बात की पूर्ण आजादी हो। गद्दारी की भी।
यह देश वैचारिक विविधता पर टिका हुआ है। अभिव्यक्ति की आजादी केवल संविधान ही हमें नहीं देता यह हमारी परम्परा भी है पर इसकी लक्ष्मण रेखा भी है। अमेरिका में बहुत लोग अपने घर में अपना झंडा गर्व के साथ लहराते हैं लेकिन हमारे यहां तो देशभक्ति को प्रकट करना ही गुनाह बना दिया जाता है। अब फिर सोनिया गांधी की शिकायत है कि सरकार छात्रों की आवाज दबा रही है और बहस तथा असहमति की भावना को खत्म कर रही है। इसका मतलब क्या है? कांग्रेस की अध्यक्षा देश की राजधानी में करदाता के पैसों से चलाए जा रहे विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे लगाने को जायज़ ठहराने की क्यों कोशिश कर रहीं हैं?
सच्चाई है कि कुछ शिक्षा संस्थान देश विरोधी गतिविधियों का अड्डा बन रहे हैं। हमारे यहां जरूरत से अधिक आजादी है पर आजादी कई बार अराजकता का पर्याय बन जाती है जैसे हम हरियाणा में भी देख कर हटे हैं। जाधवपुर विश्वविद्यालय में ‘जब कश्मीर ने मांगी आजादी, मणिपुर भी बोला आजादी, नगालैंड भी बोला आजादी’ के नारे लग चुके हैं। और देखिए कि किस तरह जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं, इस सारे मामले को निगल गया। जो रोजाना ‘संघ के एजेंडे’ की शिकायत करते हैं उन्होंने जाधवपुर की घटना पर सार्थक बहस नहीं की।
मीडिया का एक वर्ग है जिसे संघ/भाजपा/नरेन्द्र मोदी से चिड़ है। यह लोग कांग्रेस तथा वाम के राजनीतिक निधन को स्वीकार नहीं कर सके। वह उन्हीं मामलों को उछालेंगे जिनके द्वारा वह सरकार को घेर सकते हैं। जो कामरेड जेएनयू में ‘आजादी’ के समर्थक हैं वह केरल में उनके लोगों द्वारा लगातार की जा रहीं संघ के कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर खामोश हैं। हाल ही में कन्नूर में 21 वर्षीय सुजीत की उसके मां-बाप के सामने हत्या कर दी गई। उसके टुकड़े किए गए। मेरा सवाल तो यह है कि मीडिया ऐसी घटनाओं को दबा क्यों देता है? सिर्फ इसलिए कि यह उनकी कथा में फिट नहीं बैठतीं? दूसरा पक्ष न देकर मीडिया का यह हिस्सा वैचारिक बेईमानी कर रहा है और उस अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग कर रहा है जिसका ध्वजारोही बनने का वह दावा करते हैं। कन्हैया कुमार या उमर खालिद के तो मानवाधिकार हैं पर केरल में संघ के कार्यकर्ताओं के मानवाधिकार नहीं हैं? क्या यही इस मीडिया का संदेश है?
जो संघ पर अपना ‘वैचारिक वर्चस्व’ कायम करने का आरोप लगाते हैं वह खुद ऐसा करने का प्रयास कर रहे हैं। जेएनयू की वैचारिक आजादी की बात उठाई जाती है जबकि इस वैचारिक आजादी को तो पहले ही वामपंथियों के पास गिरवी रखा गया है। लेकिन अब पासा पलट रहा है। बहुत देर खामोश रहा बहुमत देख रहा है कि किस तरह कुछ शिक्षा संस्थाएं देश विरोध के अड्डे बन रही हैं। इसीलिए मेजर जनरल गगनदीप बक्शी जैसे लोग व्यथित हैं। जिस देश के लिए, जिस तिरंगे के लिए, सैनिक मर मिटने के लिए तैयार हैं उसी की अवधारणा को चोट पहुंचाने की कोशिश हो रही है। लेकिन कन्हैया या उमर खालिद जैसे लोग देश की असली भावना के प्रतीक नहीं। जनरल बक्शी हैं। इसीलिए जनरल साहिब को कहना चाहता हूं कि आप अकेले नहीं, देश का बहुत बड़ा, चाहे खामोश, बहुमत आपके साथ है। तिरंगे के साथ है। राष्ट्रगान के साथ है। अगर हमें चरम राष्ट्रवादी कहा जाए तो हम इसे स्वीकार करते हैं। हां, हम चरम राष्ट्रवादी हैं! जय हे! जय हे! जय हे!