जेएनयू में ‘संक्रमण’ (Infection in JNU)

जेएनयू की हालत से परेशान दिल्ली हाईकोर्ट की माननीय न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने टिप्पणी की है कि ‘जब भी शरीर में संक्रमण फैलता है पहले मुंह के रास्ते दवाई देकर उसे फैलने से रोकने का प्रयास किया जाता है…कई बार सर्जरी करनी पड़ती है लेकिन अगर संक्रमण इतना फैल जाए कि मांस गलने लगे (गैंग्रीन) तो अंग काटना ही एकमात्र इलाज रह जाता है।’ जो लोग कन्हैया की रिहाई को बड़ी जीत समझ रहे हैं उन्हें न्यायाधीश की यह चेतावनी गंभीरता से लेनी चाहिए। वह दूषित अंग को अलग करने की चेतावनी भी दे रहीं हैं।
जो लैफटिस्ट तथा कथित बुद्धिजीवी कन्हैया को मिली अंतरिम जमानत पर विजय दिवस मना रहे हैं उन्हें माननीय न्यायाधीश के पूरे फैसले को पढ़ना चाहिए जिसके हर वाक्य से उनकी जेएनयू में बढ़ती हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर चिंता व्यक्त होती है। आखिर वह जेएनयू के छात्र संघ के प्रधान को यह असामान्य आदेश क्यों दें कि वह अपने कैम्पस में देश विरोधी गतिविधियों पर नियंत्रण करे? कन्हैया कुमार से यह भी कहा गया है कि ‘वह किसी भी प्रकार की राष्ट्र विरोधी गतिविधि में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर हिस्सा नहीं लेगा।’ यह भी असामान्य आदेश है।
कन्हैया कोई आदर्शवादी छात्र नेता नहीं जैसा कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तथा जेएनयू की फैकल्टी के कुछ सदस्य पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। उसने जानबूझ कर 9 फरवरी को अफजल गुरू की बरसी के दिन कार्यक्रम क्यों रखा? यह शरारत तो उसकी अपनी थी। जेएनयू के रजिस्ट्रार का भी कहना है कि जब कार्यक्रम करने की अनुमति नहीं दी गई तो कन्हैया ने इस पर बड़ी आपत्ति की थी। बाद में उसने जरूर कहा कि मुझे नहीं पता कौन लोग कार्यक्रम में देश विरोधी नारे लगा रहे थे पर मंच तो तुमने ही उन्हें दिया था बेटे। फिर जिम्मेवारी भी तुम्हारी ही बनती है।
सवाल है कि जेएनयू में कन्हैया जैसे छात्र गुमराह क्यों हो रहे हैं? क्यों देश विरोध वहां फैशन बनता जा रहा है कि खुद को अति ‘लिबरल’ साबित करने के लिए ऐसे नारे लगाए जाते हैं जो देश को गाली देने के बराबर हैं? और वह फैकल्टी जो आज अभिव्यक्ति की आजादी तथा मानवाधिकारों की बात कर रही है, वह क्या करती रही? इसका जवाब है कि विश्वविद्यालय की फैकल्टी के ही कुछ लोग चरम विचारों से प्रभावित होकर छात्रों को गलत दिशा में धकेल रहे हैं जिस कारण कन्हैया जैसे बेवकूफ फंस रहे हैं। एक गरीब परिवार के बेटे कन्हैया को तो पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए था ताकि वह कमा कर अपने मां-बाप का सहारा बन सके लेकिन यह कहते हुए कि ‘चढ़ जा बेटा सूली पर भगवान भली करेगा’, उसे जेएनयू के माहौल ने गलत दिशा में धकेल दिया जहां देश को गालियां देना आम बात है और जहां देश विरोध को केवल स्वीकार ही नहीं किया जाता बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया जाता है और लिबरल बैज की तरह प्रदर्शित किया जाता है। इसीलिए उसे तिहाड़ की हवा भी खानी पड़ी।
अस्मिता सिंह जो वहां कानून पढ़ती हैं, ने कहा है कि जेएनयू को पहले खुद को भारत विरोधी गतिविधियों से दूर करना चाहिए बाकी सब बाद की बात है। यह विश्वविद्यालय देश विरोधियों का अड्डा बन गया है जहां 2010 में दंतेवाड़ा में जब सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे जश्न मनाया गया था। जो आज वहां अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं क्या वह समझते हैं कि जवानों की शहीदी पर जश्न मनाना भी उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है?
क्योंकि इतने वर्षों से किसी ने इन्हें रोकने का सही प्रयास नहीं किया था इसलिए यह अपरिपक्व छात्र लाल स्याही लगा शहीद बनने की कोशिश कर रहे थे। मीडिया का एक हिस्सा बदमाशी कर रहा है। इसे सरकार बनाम छात्र संघर्ष बनाया जा रहा है जबकि कार्रवाई उनके खिलाफ हो रही है जो देश के टुकड़े करने की धमकी दे रहे हैं और देश विरोधियों को मंच दे रहे हैं। लोगों का ध्यान कन्हैया के भाषण पर रखा गया पर जो न्यायालय ने कहा उसे मीडिया निगल गया। उलटा कई एंकर तो फैसले पर किन्तु परन्तु करते नज़र आए।
किसी भी विश्वविद्यालय परिसर में जिन्दगी जोश से भरपूर होनी चाहिए पर पढ़ाई पर केन्द्रित होनी चाहिए। जेएनयू के बारे तो शिकायत है कि यह एक मार्क्सवादी मदरसा बन गया है जहां केवल एक तरह की चरम विचारधारा को प्रचारित किया जा रहा था। यह वही विचारधारा है जिसे उनके मक्का मास्को तथा बीजिंग से धक्के मार कर निकाल दिया गया है। अब रोक लगेगी क्योंकि छात्रों तथा फैकल्टी को भी समझ आ गई है कि इन चरम विचारों की कीमत देनी पड़ सकती है। लेकिन यह तो ऐसी जगह बन चुकी थी जहां अफजल गुरू के पक्ष में नारे तो लग सकते हैं लेकिन देश के नेता कदम नहीं रख सकते। अगर आपको आजादी चाहिए तो सुब्रह्मण्यम स्वामी या बाबा रामदेव को वहां जाने की आजादी क्यों न हो? जेएनयू देश की राजधानी में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त गणराज्य नहीं जहां केवल वह ही प्रवेश पा सकते हैं जिन्हें हिन्दू शब्द से चिड़ हो और मार्कसी विचारधारा में विश्वास हो। कम्युनिस्ट प्रभाव में इसका मार्कसीकरण हो चुका है, इसके भारतीयकरण की जरूरत है। ऐसी विचारधारा क्यों वहां प्रबल हो गई कि हिन्दू विरोधी या भारत विरोधी होकर ही आप ‘प्रगतिशील’ कहलाए जा सकते हैं?
विडम्बना यह है कि जेएनयू के 7300 छात्रों पर सरकार जो लगभग तीन लाख रुपया प्रति छात्र वार्षिक खर्च करती है वैसी मेहरबानी किसी भी दूसरे विश्वविद्यालय के छात्रों पर नहीं की जाती। कन्हैया व्यवस्था से ‘आजादी’ की बात कह रहा है लेकिन इसी व्यवस्था का बड़ा लाभार्थी तो वह खुद है जो 29 वर्ष की आयु के बाद भी ‘छात्र’ है और छात्रों को मिल रही इन सुविधाओं का लाभ उठा रहा है। देश में कई विश्वविद्यालय हैं जो जबरदस्त आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं लेकिन इन नकली क्रांतिकारियों के इस विश्वविद्यालय में फंड की कमी नहीं है। करदाता की उदारता का जेएनयू में दुरुपयोग बंद होना चाहिए।
अच्छा है कि इस सरकार ने सख्ती दिखाई और जेएनयू के अंदर क्या होता रहा है वह जनता के सामने नंगा कर दिया है। जेएनयू वाले चाहे खुद को विशेष समझें पर वह कोई ‘सेकरेड कॉव’ नहीं हैं जिन पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। उनके केवल अधिकार ही नहीं वह समाज तथा देश के प्रति जवाबदेह भी हैं और उनके लिए भी एक लक्ष्मणरेखा है जिसे पार करने पर कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। जरूरत है कि इस ‘संक्रमण’ पर समय रहते ही रोक लगा दी जाए। इसे गैंग्रीन नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.