वही दुनिया है। वही देश है। पर दो सालों में रिश्ता किस कद्र बदल गया!
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पांच देशों की 33000 किलोमीटर की यात्रा फिर स्पष्ट कर गई कि भारत अब विश्व राजनीति के केन्द्र में मज़बूती से स्थापित है। नरेन्द्र मोदी समझ गए कि दुनिया में सैनिक तथा आर्थिक ताकत बनने के लिए अमेरिका का सहयोग बहुत जरूरी है। अमेरिकी पूंजी, तकनीक तथा समर्थन के बिना भारत विश्व ताकत नहीं बन सकता। इसलिए वीज़ा न दिए जाने की व्यक्तिगत तकलीफ को एक तरफ रखते हुए उन्होंने अमेरिका तथा भारत के बीच वह घनिष्ठता बना दी जो पहले कभी देखने को नहीं मिली। बराक ओबामा ने भी बराबर की गर्मजोशी तथा उदारता दिखाई। दिलचस्प है कि 1974 में भारत द्वारा परमाणु विस्फोट करने के बाद उसे बाहर रखने के लिए जो एनएसजी बनाई गई थी उसी में भारत के प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने में अमेरिका ज़ोर-शोर लगा है।
दो सालों में भारत के प्रधानमंत्री तथा अमेरिका के राष्ट्रपति के बीच सात बार वार्ता सामान्य नहीं है। जिस तरह मोदी को अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान मिलना सामान्य नहीं और जिस तरह मैक्सिको के राष्ट्रपति द्वारा खुद कार चला कर उन्हें रेस्टोरेंट ले जाना सामान्य नहीं। यह सब हवा के रुख का संकेत है। मोदी का बढ़ता कद इसे तेजी दे रहा है।
यह भारत की उभरती छवि का प्रमाण हैं। दो साल में हमारी छवि का कायाकल्प हो गया। अमेरिकी संसद में मोदी का जोरदार भाषण बाकी कसर पूरी कर गया। मालूम नहीं कि इस इंसान में ऐसी ऊर्जा कहां से आती है? लम्बी-लम्बी यात्रा के बाद भी कहीं थकावट नज़र नहीं आती। सारे देश का भार उन्होंने अपने कंधों पर उठाया हुआ है। अब तो विदेश यात्राओं के आलोचक भी खामोश पड़ गए हैं।
मानना पड़ेगा कि विदेश नीति के मामले में मोदी लाजवाब हैं। नरसिम्हाराव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह, सब प्रधानमंत्रियों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई। भारत-अमेरिका के रिश्तों में परिवर्तन लाने की शुरुआत तो वाजपेयी के समय में की गई थी जब जसवंत सिंह तथा स्ट्रॉब टैलबॉट बार-बार दुनिया के प्रसिद्ध शहरों में मिलते रहे। मनमोहन सिंह ने इस प्रक्रिया को तेज़ कर दिया जब 2006 में उन्होंने राष्ट्रपति बुश के साथ भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस प्रक्रिया को नरेन्द्र मोदी बहुत आगे ले गए हैं। वह समझ गए कि अगर चीन की धौंस से बचना है और विश्व मंच पर भारत को मजबूती से स्थापित करना है और विदेशी निवेश लाना है तो अमेरिका के साथ रिश्ते मजबूत करने होंगे। दुनिया अभी भी अमेरिका के इशारे पर चलती है। मिसाइल टैक्नोलोजी कंट्रोल मिशन में भारत की सदस्यता से भारत के लिए एक और दरवाजा खुल गया है।
अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में व्यक्तिगत रिश्तों की गुंजाइश तो है लेकिन एक सीमा तक। आखिर में राष्ट्रीय हित सर्वोपरि रहते हैं। अगर ओबामा को भारत तथा उसके प्रधानमंत्री में सब कुछ अच्छा नज़र आता है तो इसका एक कारण यह भी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब दोनों देशों के हित समानांतर चल रहे हैं। शुरू में जब ओबामा राष्ट्रपति बने तो वह ‘जी-2’ पर चलना चाहते थे अर्थात् अमेरिका तथा चीन। चीन से मिले धक्के के बाद ओबामा सही रास्ते पर आ गए हैं। दोनों देशों के हित ऐसे हैं कि अगले अमेरिकी राष्ट्रपति को भी भारत के प्रति ऐसा ही मैत्रीपूर्ण रवैया रखना पड़ेगा।
अमेरिकी संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने जो भाषण दिया वह उनकी अमेरिका के साथ रिश्तों के बारे सोच स्पष्ट करता है। प्रधानमंत्री मोदी का कहना था कि ‘आज हमारे रिश्ते ने इतिहास की हिचकिचाहट को पार कर लिया है।’ आपसी सुविधा, साफदिली तथा समिलन का जिक्र करते हुए नरेन्द्र मोदी ने दुनिया को बता दिया कि भारत अप्रासंगिक हुए गुटनिपरेक्ष आंदोलन के बोझ से मुक्त होकर अमेरिका का स्वभाविक दोस्त बनने को तैयार है। भारत तथा अमेरिका के सैनिक रिश्तों को भी नया आयाम दिया जा रहा है। अमेरिका भारत को प्रमुख रक्षा सहभागी समझता है जिसका अर्थ यह भी है कि अमेरिका की सरकार यह संदेश दे रही है कि अमेरिका भारत को वह टैक्नोलॉजी देगा जो घनिष्ठ मित्र देशों को दी जा रही है। अमेरिका द्वारा भारत को छ: परमाणु रिएक्टर बेचने का फैसला भी बताता है कि दोनों देशों के रिश्ते किस तेजी से बढ़ रहे हैं।
स्वभाविक है कि भारत तथा अमेरिका में बढ़ते याराने से दो देश बेचैन हैं। पाकिस्तान तड़प रहा है कि अमेरिका ने उन्हें लावारिस छोड़ दिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बढ़ती हनक से पाकिस्तान इतना परेशान है कि उनकी संसद में सरकार से पूछा गया है कि वह इस मामले में क्या कर रही है? उनको यह भी चिंता है कि मुस्लिम देश ईरान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, कतर और यूएई जो पाकिस्तान के स्वभाविक मित्र हैं का रुख भी मोदी भारत की तरफ झुकाने में सफल रहे हैं। कराची के डॉन अखबार में अमीर वसीम लिखते हैं कि मोदी की कूटनीतिक सफलता को लेकर पाकिस्तान में गहरी चिंता है। लाहौर से प्रमुख पत्रकार अहमद रशीद ने लेख लिखा है कि पाकिस्तान लगातार अलग-थलग पड़ रहा है।
पाकिस्तान की इस सिरदर्द को संभालना मुश्किल नहीं, समस्या चीन से आएगी जो भारत तथा अमेरिका के बीच घनिष्ठ हो रहे रिश्तों को गहरी शंका से देख रहा है। चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने चेतावनी दी है ‘किसी एक पक्ष का समर्थन कर या किसी दूसरे पक्ष के खिलाफ खेमेबंदी करने से भारत आगे नहीं बढ़ सकता।’ एनएसजी के मामले में वह हमारा विरोध तो कर ही रहा है। चीन पाकिस्तान की तरह मामूली देश नहीं जिसकी उपेक्षा की जा सकती है। वह दूसरी महाशक्ति है जिसका हमारे साथ पुराना सीमा विवाद है। अब फिर अरुणाचल प्रदेश में चीनी सेना के अतिक्रमण की शिकायत है। लेकिन चीन का हमें सहयोग भी चाहिए। हमारी उससे 3488 किलोमीटर लम्बी विवादित सीमा है और हमारे पड़ोस में शरारत करने की उसकी अपार क्षमता है।
चीन को यह भी पसंद नहीं आएगा कि एक लोकतांत्रिक एशियाई देश उसके बराबर आ खड़ा हो। चीन से बात करना तथा रिश्ते सामान्य रखना विकल्प ही नहीं बल्कि हमारी सामरिक जरूरत भी है। भारत को चीन को समझाना पड़ेगा कि अमेरिका के साथ उसकी दोस्ती चीन के विरुद्ध नहीं है और हम इस दोस्ती की खातिर अपनी ‘सामरिक स्वायत्तता’ का परित्याग करने नहीं जा रहे। चीन को मैनेज करना उभरते भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक परीक्षा होगी।