रमज़ान के दौरान इफतार जो भाईचारा बढ़ाने तथा अपने से कमज़ोर लोगों के साथ मेलजोल का मौका है, को हमारे लाजवाब नेताओं ने राजनीति का इवेंट बना दिया है। विशेष तौर पर दिल्ली में इफतार पार्टी का आयोजन एक बड़ी सैक्युलर कवायद बन गई है। किसने पार्टी दी है, कौन-कौन इसमें हाजिर हुआ, कौन नहीं आया, बड़ा राजनीतिक बयान भी बन गया। कांग्रेस पार्टी इफतार का आयोजन करती रही। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इफतार पार्टी देते रहे जबकि परम्परा के अनुसार तो इफतार पर ‘पार्टी’ बनती ही नहीं। रोज़ा तोड़ने के बाद खजूर तथा सेवेइयां के सेवन की जगह इन बड़ी पार्टियों में कबाब, मुगलई खाना तथा गोश्त पलाव खाने का मौका बन गया। ऐसी कथित इफतार पार्टियों से आम मुसलमान को दूर रखा जाता है। वह तो गरीब निकट भी नहीं फटक सकता केवल जिन्हें ‘बिग-विग’ कहा जाता है वह ही इतराते रहे और मुसलमानों से बड़े मुसलमान बनने की कोशिश करते रहे।
कईयों ने खुद को दूसरों से बड़ा सैक्युलर नेता साबित करने के लिए मुस्लिम टोपी भी डालनी शुरू कर दी जैसे अपनी इफतार पार्टी में नीतीश कुमार ने भी डाली थी, अरविंद केजरीवाल भी डालते हैं। इस बार भी केजरीवाल ने टोपी डाली और कंधे पर अरब पुरुषों जैसा कपड़ा रख लिया। आम आदमी पार्टी के नेताओं ने चिकन बिरयानी भी परोसी। लेकिन केजरीवाल तो दिल्ली के वह शेख लग रहे थे जिसके कुएं में तेल खत्म हो रहा है! पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे लोग इफतार पार्टी पर खर्च होने वाले पैसे को जरूरतमंदों में वितरित करने की सलाह दे चुके हैं। पर जहां राजनीति हो वहां सियाने की बात कौन सुनता है और जरूरतमंदों को कौन याद करता है?
कांग्रेस पार्टी इस बार रमज़ान में इफतार पार्टी नहीं दे रही। फैसला है कि पैसा बचाया जाए और ईद पर गरीबों को खाना खिलाया जाए। समझदारी है। लेकिन ऐसी सोच पहले क्यों नहीं उपजी? पर पहले तो कांग्रेस पार्टी फाइव स्टार होटलों में इफतार पार्टी देती रही। इस साल क्या हो गया? एक स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि राहुल फिर गुप्त विदेश यात्रा पर थे। उनकी अनुपस्थिति में पार्टी इफतार का आयोजन नहीं करना चाहती थी लेकिन ऐसा तो पहले भी कई बार हो चुका है। राहुल तो अकसर अचानक विदेश निकल जाते हैं उनकी अनुपस्थिति ने सोनिया को अपनी राजनीति करने से कभी नहीं रोका। और अब तो राहुल वापिस भी आ चुके हैं।
फिर इस बार क्या हो गया? इस बार नया यह है कि कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को अपने इतिहास में सबसे अधिक झटका पहुंचा है और उसके बाद गठित एंटनी कमेटी रिपोर्ट ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को पार्टी की हार का बड़ा कारण बताया है। और यह बात गलत भी नहीं। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बहुसंख्यकों की भावनाओं की उपेक्षा कर दी थी। ईसाई होने के कारण शायद वह ऐसे अधिक सहज महसूस करती हैं।
सोनिया गांधी के परिवार पर भी इस नजरिए का असर हुआ और राहुल गांधी ने अमेरिकी राजदूत को बताया था कि देश को सबसे बड़ा खतरा ‘हिन्दू आतंकवाद’ से है। और यह वार्तालाप मुम्बई पर हुए हमले के एक साल बाद हुआ था। जब राजदूत ने कहा कि भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग में लश्कर-ए-तोयबा के समर्थन के सबूत हैं तो कांग्रेस के भावी अध्यक्ष का कहना था कि ‘इस (इस्लामिक आतंकवाद) से बड़ा खतरा कट्टरवादी हिन्दू संगठनों का विकास है जो राजनीतिक तनाव तथा मुस्लिम समुदाय के साथ राजनीतिक टकराव पैदा करते हैं।’ कांग्रेस के लोगों ने ही बाद में ‘भगवा आतंकवाद’ का जुमला भी निकाला था।
इसकी कीमत कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में चुकानी पड़ी। दूसरी तरफ मोदी हैं जो पाखंड में विश्वास नहीं रखते और जिन्होंने सबके सामने मुस्लिम टोपी पहनने से इन्कार कर दिया था। वह ईमानदार हैं, सैक्युलर ड्रामा नहीं करते। वह इफतार पार्टी भी नहीं देते और न ही उसमें शामिल होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा दी गई इफतार पार्टी में भी शामिल नहीं हुए। अब कांग्रेस पार्टी को भी समझ आ गई कि वह मुख्यधारा से कट गई है इसलिए जिसे अब ‘नरम हिन्दुत्व’ कहा जाता है उसे अपनाया जा रहा है। इसलिए जिस इफतार पार्टी को कांग्रेस एक प्रकार से कौमी एकता का प्रतीक समझती थी, उससे वह पीछे हट गई है।
कांग्रेस एक-एक कर प्रदेशों में कटती जा रही है। हिन्दू दूर चले गए। असम जहां भारी संख्या में मुसलमान हैं वहां भी पार्टी हार गई क्योंकि बहुसंख्यक कांग्रेस से दूर चले गए हैं। इसलिए कांग्रेस अब संतुलन कायम करने का प्रयास कर रही है। राहुल गांधी जगह-जगह मंदिरों में जा रहे हैं, आस्था हो न हो। अर्थात् कुछ अकल आ रही है कि सैक्युलरिज़्म में वह अधिक ही बह गए थे। अपने वामपंथी साथियों के साथ समझ लिया था कि भारत के लोगों को और कुछ नहीं चाहिए केवल सैक्युलरिज़्म का नारा ही चाहिए।
अगर भारत सैक्युलर है तो इसलिए कि यहां बहुसंख्या हिन्दू है। कुछ अपवादों को छोड़ कर हमारे लोग उदार तथा सहिष्णु हैं। यहां भावनात्मक एकता के लिए कृत्रिम तमाशे की जरूरत नहीं। इसलिए हैरानी है कि संघ से जुड़े मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भी इफतार पार्टी दी जिसमें तीन दर्जन मुस्लिम राजदूतों को बुलाया गया चाहे पम्पोर की घटना के बाद पाकिस्तान के राजदूत को बुलाने का निर्णय बदल लिया गया। इस मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का कहना है कि ग्रैंड इफतार पार्टी देकर वह एकता, सद्भावना तथा दंगा मुक्त भारत का संदेश देना चाहते हैं। मंच ने सारे देश में छोटी छोटी इफतार पार्टियां करने का अपने लोगों को निर्देश भी दिया था। संयोजकों का कहना है कि दुनिया को भारतीयता के बारे बताने तथा सभी समुदायों के लोगों को सद्भावना तथा शांति से रहने का संदेश देने के लिए यह आयोजन किया गया है।
इतना आसान काम है? आपने इफतार पार्टी दी और देश में सद्भावना की लहर चल पड़ी? बस इतनी सी ही बात है? अपनी भारतीयता और धर्मनिरपेक्षता सिद्ध करने के लिए क्या इफतार पार्टी का आयोजन या टोपी पहननी जरूरी है? फिर क्या डीजे तथा नाच गाने और केक के साथ क्रिसमस पार्टी भी दी जाएगी? संघ के यह नेता गलतफहमी में हैं। इन नाटकों से कुछ नहीं होता। सद्भावना 365 दिन और 24 घंटे रहनी चाहिए। उन्हें नरेन्द्र मोदी से सीखना चाहिए जो हर प्रकार के पाखंड से दूर रहते हैं।