यह संतोष की बात है कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की हालत अब स्थिर है। वाराणसी में उनके रोड शो में लोगों में जोश था लेकिन ऐसा रोड शो करने के लिए सेहत भी चाहिए, जो नहीं है। इस महिला की हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि इसके बावजूद पार्टी को उत्तर प्रदेश में खड़ा करने के लिए वह खुद मैदान में कूद गई थीं। शुरुआत धर्म की नगरी वाराणसी से की जो प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र भी है। सावन में वाराणसी में धार्मिक माहौल रहता है इसीलिए सोनिया गांधी के कार्यक्रम में काशी विश्वनाश मंदिर में पूजा तथा गंगा पूजा को शामिल किया गया था। यह हो न सका। लेकिन वहां उन्हें मिला जनसमर्थन भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए कि प्रधानमंत्री के अपने चुनाव क्षेत्र के लोग कहीं असंतुष्ट चल रहें हैं।
2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को जो कमरतोड़ पराजय मिली थी उसके बाद गठित एंटनी कमेटी रिपोर्ट में हाईकमान को बताया गया था कि पार्टी की छवि हिन्दू विरोधी बन गई है। यूपीए सरकार के समय सोनिया गांधी के इर्दगिर्द अधिकतर कथित सैक्युलर गैर हिन्दुओं का इकट्ठ हो गया था जो सैक्युलरवाद के नाम पर पार्टी को मुख्यधारा से दूर ले गए थे। अब भरपाई करने की कोशिश की जा रही है और मुस्लिम परस्त छवि को बदला जा रहा है। अपनी वाराणसी यात्रा से सोनिया गांधी पार्टी को गंगा-जमुना संस्कृति तथा हिन्दू रीति रिवाजों से जोड़ने का प्रयास कर रही हैं। अनिच्छुक पंजाबी खत्री शीला दीक्षित जो उत्तर प्रदेश के बड़े ब्राह्मण नेता उमा शंकर दीक्षित की बहू हैं, को जीतने की स्थिति में पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर ब्राह्मणों को आकर्षित करने का भी प्रयास किया गया।
लेकिन वहां हालत यह है कि प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर खुद कह रहे हैं कि वहां जीतना चमत्कार से कम नहीं होगा। इस ‘चमत्कार’ के प्रयास में सोनिया खुद आगे आ गई थीं पर यह उनकी मजबूरी भी बताता है कि खराब सेहत के बावजूद उन्हें चुनाव की दलदल, गर्मी, भीड़, अराजकता का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस ने दर्द-ए-बनारस अभियान शुरू किया था लेकिन यह दर्द-ए-कांग्रेस बयां कर गया। इस दर्द का नाम राहुल गांधी है। सोनिया की मजबूरी का नाम पुत्र राहुल गांधी है जो दस वर्ष के प्रयास के बावजूद लोगों के साथ रिश्ता नहीं जोड़ सके। अगर बेटे में दम होता तो मां को रोड शो करने की जरूरत नहीं पड़ती, बेटा करता। पर बेटे को तो देश ने संसद में दलित उत्पीड़न पर गर्मागर्म बहस के बीच आराम से झपकी लेते देख लिया। अब वह चाहे कितना भी दलितों के घरों में जाए दलितों की हालत के प्रति उनकी उदासीनता तो सब ने देख ही ली है।
और क्या इतनी पुरानी पार्टी में उत्तर प्रदेश में कोई युवा चेहरा नहीं जिसे वह मैदान में उतार सके? क्यों एक स्पेयर टायर की तरह सम्मानीय 78 वर्षीय शीला दीक्षित का इस्तेमाल किया जा रहा है? पहले पंजाब में भी उन्हें उतारने की कोशिश की गई। राज बब्बर को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया है। वह वर्षों समाजवादी पार्टी से सांसद रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में राज बब्बर गाजियाबाद से जनरल वीके सिंह से 5.65 लाख वोट से हारने का रिकार्ड बना गए थे। इमरान मसूद को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है। यह वही मसूद हैं जिन्होंने 2014 में नरेन्द्र मोदी के टुकड़े-टुकड़े करने की घोषणा की थी और सहारनपुर से बुरी तरह से हार गए थे।
क्या चले हुए कारतूसों से कुछ बनेगा भी? शीला दीक्षित उत्तर प्रदेश से बाहर रही हैं इसीलिए यह जिम्मेवारी संभालने से बहुत हिचक रही थीं पर कांग्रेस की नजरें उत्तर प्रदेश के 10 प्रतिशत ब्राह्मणों पर हैं। कांग्रेस समझती है कि भाजपा का जोर ओबीसी तथा दलितों पर अधिक है इसलिए सवर्ण जातियों तथा मुसलमानों को अपनी तरफ करने का प्रयास कर रही है। लेकिन भाजपा को चिंतित होना चाहिए कि हाल की घटनाओं से दलित समर्थन हिल गया है। प्रधानमंत्री ने अब इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़ी है और कथित गौरक्षकों को चेतावनी दी है लेकिन बहुत देर से।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 27 साल से सत्ता से बाहर है और अब 78 वर्षीय थकी हारी बेचारी शीला दीक्षित को कहा जा रहा है कि हमें अपना ससुराल प्रदेश जीत कर दो। 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी 403 में से केवल 28 सीटें ही जीत सकी थी और 240 विधानसभा क्षेत्रों में जमानत जब्त हुई थी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति की बात जब आती है तो बार-बार प्रियंका गांधी वाड्रा का नाम आगे आता है। अभी तक तो वह केवल अमेठी तथा रायबरेली में ही प्रचार करती रहीं लेकिन बहुत अधिक सफलता नहीं मिली पर यह मानना पड़ेगा कि वह अपने भाई से अधिक आकर्षक व्यक्तित्व हैं। आम लोगों में घुलमिल जाती हैं और हिन्दी अच्छी बोलती हैं। वह सहज नज़र आती हैं। खुद इंदिरा गांधी भी प्रियंका में बहुत सामर्थ्य और संभावना देखती थीं।
माखन लाल फोतेदार ने अपनी किताब ‘द चिनार लीवज़’ में लिखा है कि इंदिरा गांधी ने उन्हें प्रियंका के बारे बताया था, ‘आप उसे बड़े होते तथा राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकते देखोगे। लोग उसमें मुझे देखेंगे और जब उसे देखेंगे तो मुझे याद करेंगे। वह चमकेगी और अगली शताब्दी उसकी होगी।’ बहुत साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने भी मेरे एक सवाल के जवाब में कहा था कि ‘उसमें एक चुनाव जीतने की क्षमता है।’ लेकिन तब से लेकर अब तक गंगा और यमुना में बहुत पानी बह चुका है। अगर दस साल पहले प्रियंका को बाहर निकाला जाता तो शायद और बात होती। अब देश आगे बढ़ गया है। नई पीढ़ी अधिक आकांक्षावान है और ‘परिवार के योगदान’ को भुला चुकी है। नजरें भविष्य की तरफ हैं, अतीत की तरफ नहीं।
लेकिन कांग्रेस नहीं बदलेगी। पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन नहीं होगा। यह एक पारिवारिक जुगाड़ ही बनी रहेगी। यह लोग इस सपने में जी रहे हैं कि एक दिन भाजपा और मोदी लड़खड़ाएंगे और फिर देश राहुलजी के कदमों में होगा।
यह पार्टी का दिवालियापन है जो इसके पुनर्वास में सबसे बड़ी समस्या है। जिन महिलाओं को इस उम्र में घर पर आराम करना चाहिए, सोनिया गांधी तथा शीला दीक्षित, उन्हें बाहर निकाला जा रहा है जबकि राहुलजी संसद में आराम फरमा रहे हैं। उनका अखिलेश यादव जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, के बारे कहना है कि ‘लड़का बुरा नहीं।’
अफसोस! रस्सी जल गई पर बल नहीं गया!