
देश में एक बार फिर वही सहिष्णुता/असहिष्णुता बहस शुरू हो गई है। अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग तथा सोशल मीडिया के बल पर फिर यह प्रभाव दिया जा रहा है कि जैसे देश असहिष्णु बन रहा है। विशेषतौर पर दिल्ली के रामजस कालेज तथा शहीद की बेटी गुरमेहर के फिज़ूल बयान के बाद प्रभाव यह दिया जा रहा है कि जैसे देश में बर्दाश्त खत्म हो रही है। जिन्हें संघ/भाजपा/मोदी सरकार को लताड़ने के लिए कुछ चाहिए वह इन दो घटनाओं को लेकर देशभर में तूफान खड़ा कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की बात की जा रही है जबकि केरल में तो जीने की आजादी छीनी जा रही है।
एक मामला शहीद की बेटी के इस कथन से सम्बन्धित है कि उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं मारा, युद्ध ने मारा है। यह लड़की अपरिपक्व है और बेवकूफ है। मुम्बई में 26/11 की घटना में कसाब तथा उसके साथियों ने 166 लोगों को मार डाला। क्या इसके लिए पाकिस्तान जिम्मेवार है या वह समुद्र जिसके रास्ते किश्ती से ये लोग मुम्बई पहुंचे थे? अब तो पाकिस्तान के पूर्व रक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी ने भी मान लिया है कि हमले में पाकिस्तान का हाथ था।
लेकिन इसके बावजूद गुरमेहर को जो धमकियां दी गईं वे पूरी तरह से अनुचित हैं और निंदनीय हैं। न ही गुरमेहर की देशभक्ति पर ही सवाल उठ सकता है। वह नादान है लेकिन इससे अधिक नहीं। वह गलत संदेश भेज रही है कि पाकिस्तान बेकसूर है। अब वह कह रही है कि मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। लेकिन जो उसका समर्थन करने का दावा करते हैं वह ही मामला छोड़ने को तैयार नहीं क्योंकि उसे मिली धमकियों को लेकर वह अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं कि यहां एक शहीद की बेटी भी सुरक्षित नहीं है। हाथ में आए बटेर को वह जाने नहीं देना चाहते।
जहां तक रामजस कालेज में टकराव का सवाल है उन्होंने एक सेमिनार में विवादास्पद उमर खालिद को बुला लिया। यह वह ‘छात्र नेता’ है जो देश विरोधी नारे लगाने के लिए कुख्यात है। इसे बुलाने की क्या जरूरत थी? यह भी दिलचस्प है कि उमर खालिद और कन्हैया कुमार जैसे लोग स्थायी छात्र हैं। वर्षों से ये लोग विश्वविद्यालयों तथा कालेजों में डटे हुए हैं। सामान्य छात्रों की तरह अपनी पढ़ाई पूरा कर नौकरी करने का इनका कोई इरादा नहीं क्योंकि जो संगठन इन्हें समर्थन दे रहे हैं वे चाहते हैं कि ये लोग विश्वविद्यालयों/कालेजों में बने रहें और उनका एजेंडा आगे बढ़ाते रहें।
ऐसे कथित छात्रों के कारण ही दिल्ली विश्वविद्यालय तथा जेएनयू जैसी संस्थाएं राजनीति का अखाड़ा बन चुकी हैं। शैक्षणिक वातावरण बिगड़ रहा है। 95 प्रतिशत छात्र जो पढ़ाई करना चाहते हैं वे इन उपद्रवियों के इरादों के शिकार बन रहे हैं। आखिर किसी भी विश्वविद्यालय में याकूब मेमन या अफजल गुरू के हक में नारे क्यों लगें? जेएनयू में फिर कश्मीर की आजादी के पोस्टर लगे हैं। कश्मीर या बस्तर या मणिपुर की आजादी के नारे भी क्यों लगें? ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’, ‘भारत की बर्बादी तक’ जैसे नारे क्यों लगें? और जो इनका विरोध करें वह अभिव्यक्ति की आजादी के विरोधी हो गए? राजनेताओं को कैम्पस में दखल देना बंद करना चाहिए।
पठानकोट ऐयरबेस पर हुए हमले में शहीद हुए लांस नायक मूलराज की बेटी ने गुरमेहर कौर से कहा कि ‘‘प्लीज, अपने पिता की शहादत का मज़ाक मत बनाओ’’। पूजा की भावना समझ आती है। पाकिस्तानी आतंकियों के हमले में उसके पिता शहीद हो गए और गुरमेहर कह रही है कि पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने उन्हें मारा है। जिनके परिवारजन पाकिस्तानी हमले में शहीद हो गए या जो सीमा पर पाकिस्तान का मुकाबला कर रहे हैं, सब गुरमेहर के पाकिस्तान को दिए नेक चलन के प्रमाणपत्र से तड़प रहे हैं। एक जवान का वीडियो बाहर आया है जिसमें उसने कहा है कि देश को आतंकियों से अधिक खतरा उनसे है जो देश विरोधी नारे लगाते हैं। और जब देश विरोधी नारे लगते हैं तो दर्द होता है। अरुण जेतली ने सही कहा है कि राष्ट्रवाद भारत में ही बुरा शब्द है।
गुरमेहर जैसे नादान समझ नहीं रहे कि पाकिस्तानी की नीतियों के कारण ही हमारे हजारों परिवार अपने बाप, भाई, बेटे को खो चुके हैं। यह खोखला आदर्शवाद अंग्रेजी की किताबों के लिए सही होगा पर हमारी हकीकत अधिक खूनी है। उल्लेखनीय है कि जो कथित उदारवादी गुरमेहर का समर्थन कर रहे हैं उन्होंने लांस नायक मूलराज की बेटी की आपत्ति को नज़रदाज कर दिया है और न ही इस जवान की भावना का ही सम्मान किया है। कारगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन विक्रम बत्तरा के पिता गिरधारी लाल बत्तरा का कहना है कि पाकिस्तान ने हर बार भारत पर हमला किया। इसी युद्ध के प्रथम शहीद कैप्टन सौरभ कालिया, जिन्हें पाकिस्तानियों ने बुरी यातनाएं देकर मार डाला था, के पिता डा. एन.के. कालिया का कहना है कि गुरमेहर का बयान अन्य शहीदों का अपमान है। उनके अनुसार जो युद्ध करता है वह ही मौत का जिम्मेदार होता है। ऐसे लोगों के बयानों को मीडिया हाईलाइट क्यों नहीं करता?
मेरे पिताजी स्वर्गीय वीरेन्द्रजी 9 बार आजादी की लड़ाई में जेल गए थे। भगत सिंह और दूसरे क्रांतिकारियों के साथ मिल कर बम बनाए। मुझे मालूम है कि भारत की आजादी के लिए कैसी कैसी कुर्बानियां दी गई थीं इसलिए जब कोई ‘भारत की बर्बादी’ का नारा लगाता है तो कष्ट होता है। मैं कट्टरवादी नहीं हूं। मैं आजकल के सोशल मीडिया की भाषा में ‘भक्त’ भी नहीं हूं, संघी नहीं हूं, पर राष्ट्रवादी हूं और समझता हूं कि अभिव्यक्ति की आजादी की भी लक्ष्मणरेखा है। देश विरोध अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा नहीं है। श्रीश्री रविशंकर ने सही कहा है कि ‘देश सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है पर अपनी जड़ों पर कुल्हाड़ी मारने को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता। कहीं न कहीं एक मर्यादा, एक सीमा को बनाए रखना आवश्यक है।’ पर ऐसा उलटा माहौल मीडिया तथा सोशल मीडिया द्वारा बना दिया गया है।
अलगाववाद अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा कैसे हो गया? और जो शिक्षा संस्थाओं की स्वायत्तता की वकालत करते हैं वह उस समय क्यों चुप रहे जब बाबा रामदेव को जेएनयू में भाषण देने से रोका गया? तारिक फतेह को धक्के मारे गए? शाजिया इलमी को जामिया मिलिया इस्लामिया में तीन तलाक विषय पर आयोजित सेमिनार में शामिल होने से रोका गया? शाजिया खुद इस विश्वविद्यालय की छात्रा रहीं हैं। जिन्हें गुरमेहर की अभिव्यक्ति की आजादी की चिंता है उन्हें शाजिया इलमी को ऐसी आजादी न मिलने पर आपत्ति क्यों नहीं हुई?
हमारी हकीकत अधिक खूनी है (Our Reality is More Bloody),