हमारे आजादी के आंदोलन ने बड़े-बड़े नायक पैदा किए हैं लेकिन भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु तथा सुखदेव की अपनी अलग जगह रहेगी। भगत सिंह विशेष तौर पर आजादी की लड़ाई के क्रांतिकारी लोकनायक थे। उनकी शहादत के 87 वर्ष के बाद भी आज कई युवा पीली पगड़ी पहन कर भगत सिंह के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं जबकि भगत सिंह ने कभी पीली पगड़ी नहीं डाली। याद रखना चाहिए कि वह अलग समय था। अब कोई भगत सिंह पैदा नहीं होगा।
भगत सिंह का जीवन अत्यंत रोचक है। जन्म जाट सिख परिवार में हुआ जिस पर आर्य समाज का बड़ा प्रभाव था। बाद में मार्कसी विचारधारा से प्रभावित होकर भगत सिंह नास्तिक बन गए और उन्होंने भगवान के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। उनका प्रश्न था कि “क्या कारण है कि आपके सर्वव्यापी भगवान उस आदमी को रोकते नहीं जो अपराध या पाप करने जा रहा है?”
आखिर में भगत सिंह समाजवादी क्रांतिकारी बन गए। अहिंसा में उनका विश्वास नहीं था जिस कारण गांधी जी से उनके मतभेद रहे। कई लोग गांधी की आलोचना करते हैं कि उन्होंने भगत सिंह को बचाने का पर्याप्त प्रयास नहीं किया।
खुद गांधी जी ने लिखा था, “ भगत सिंह अहिंसा में विश्वास नहीं रखता था लेकिन वह हिंसा के धर्म को मानता भी नहीं था। उसने अपनी मातृ भूमि की रक्षा तथा बेबसी में अहिंसा का सहारा लिया था… इन नायकों ने मौत पर विजय पा ली थी। हमें उनकी बहादुरी के आगे हजार बार झुकना चाहिए…।“
भगत सिंह को बचाने में नेतृत्व की असफलता का बड़ा कारण यह भी था कि खुद भगत सिंह में बचने की कोई इच्छा नहीं थी। वह तो कहते थे कि “सर पर कफन डाले कातिल को ढूंढते हैं!”
कुछ लोगों के दबाव में उनके वकील मेहता प्राणनाथ जेल में भगत सिंह से मिलने आए ताकि दया अपील तैयार की जा सके। भगत सिंह ने उन्हें बता दिया कि अपील तो वह भेज चुके हैं। जब मेहता प्राणनाथ ने अपील पढ़ी तो हैरान-परेशान हो गए। यह दया की याचना नहीं मृत्यु का आह्वान था! इस प्रार्थना पत्र में भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु ने वायसराय को लिखा था, “आपने हमें फांसी पर लटकाने का फैसला कर लिया है, आप ऐसा करेंगे ही… हम यह अवश्य निवेदन करना चाहते हैं कि हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का आरोप है इसलिए हम युद्धबंदी हैं। इसलिए हम मांग करते हैं कि हमारे साथ भी वही व्यवहार किया जाए जो युद्धबंदियों के साथ किया जाता है और हमें फांसी देने की बजाए गोलियों से उड़ा दिया जाए…।“
भगत सिंह शहीद होने के लिए दृढ़ थे। फांसी से कुछ दिन पहले कुछ कैदियों ने उनसे सवाल किया था कि “सरदार आप बताएं कि आप चाहते क्या हो?” भगत सिंह का उत्तर था, “मेरा जिंदा रहना सशर्त है। मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीवित नहीं रह सकता। मेरा नाम भारत की क्रांति का निशान बन चुका है… मेरा वीरतापूर्ण हंसते-हंसते फांसी पाने की स्थिति में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनाने की कामना करेंगी… मुझसे भाग्यशाली कौन होगा? अब तो बड़ी उत्सुकता से अंतिम परीक्षा की प्रतीक्षा है। कामना है कि यह और निकट आ जाए।“
बच वही सकता है जो बचना चाहे। पर भगत सिंह ने तो एक पत्र में इकबाल को उद्दत किया था,
कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले महफिल,
चराग-ए-सहर हूं बुझा चाहता हूं
यह चराग-ए-सहर आखिर 23 वर्ष की अल्पायु में 23 मार्च, 1931 को बुझ गया। लेकिन इस देश और इस कौम को रोमांचित छोड़ गया।
मेरे पिताश्री वीरेन्द्र जी चंद्रशेखर आजाद तथा भगत सिंह के क्रांतिकारी साथी थे। बम बनाए, यातनाएं झेलीं, नौ बार गिरफ्तार हुए। वह उस दिन लाहौर की सैंट्रल जेल में कैद थे जहां भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई। उस दिन जेल के अंदर क्या घटा इसका वर्णन वीरेन्द्र जी ने अपनी किताब ”वे इन्कलाबी दिन” में दिया है। उसके कुछ अंश पाठकों के लिए प्र्रस्तुत कर रहा हूं…
“23 मार्च 1931- किस प्रकार का मनहूस दिन था वह?
ब्रिटिश साम्राज्य की बर्बरता और हमारे नेताओं की बेवफाई ने तीन शेरों को सदा की नींद सुला दिया।
आप मेरा सौभाग्य समझें या दुर्भाग्य, उस समय मैं जेल में ही था इसलिए इस करुणाजनक नाटक के अंतिम दृश्य को पूरी तरह तो नहीं किन्तु कुछ न कुछ तो देख ही सकता था।
23 मार्च को समाचारपत्र मिला तो उसमें लिखा था कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के संबंधियों को सूचना दे दी गई है कि इन तीनों को 24 मार्च को फांसी हो जाएगी। जेल के नियमानुसार गर्मी के मौसम में प्रात: सात बजे और सर्दी के मौसम में प्रात: 8 बजे फांसी दी जाती है। जब हमने पढ़ा कि फांसी 24 मार्च को मिलनी है तो हम समझते रहे कि नियमानुसार 24 मार्च की प्रात: ही यह कार्यवाही की जाएगी। किन्तु 23 मार्च दोपहर के दो बजे के लगभग वही नाई जो हमारे पास भी आता था, भागा-भागा आया और कहने लगा कि सब कुछ खत्म हो रहा है। सरदार जी कहते हैं कि सम्भवत: फांसी आज ही दी जाएगी। उन्होंने आप दोनों को ‘वंदे मातरम्‘ कहा है।
उस नाई की बात सुनने के बाद मैंने कहा कि वह तुरन्त चला जाए और भगत सिंह के पास उसकी जो भी निशानी पड़ी है वह ले आए। वह चला गया और आधे घंटे के बाद एक काले रंग का पैन और एक कंघी ले आया। कंघी के ऊपर भगत सिंह ने किसी तेज चीज से अपना नाम लिखा हुआ था। कलम अहसान इलाही ने अपने पास रखी ली और कंघी मैंने रख ली।
हम अभी बातें कर रहे थे कि जेल के घडिय़ाल ने 4 बजा दिए। उनके जीवन के केवल तीन घंटे शेष रह गए थे। जैसा कि जेल का नियम होता है कि फांसी के समय शेष सब कैदियों को बंद कर दिया जाता था। प्राय: प्रतिदिन जेल का मुख्य वार्डर जिसका नाम सरदार चतर सिंह था, सारे जेल के कैदियों को बंद करके सायं सात बजे हमें बंद करने आता था। उस दिन वह चार बजे ही आ गया। हमने पूछा कि क्या बात है? वह उत्तर न दे सका और जोर-जोर से रोने लग गया। वह बता भी न सका कि बात क्या है।
7 बजे जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी घर की ओर ले जाने के लिए उनकी कोठरियों से निकाला गया तो उन तीनों ने जोर-जोर से इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाए जो षडयंत्र केस के कैदियों ने सुन लिए। उसके उत्तर में उन्होंने भी जोर-जोर से नारे लगाने शुरू कर दिए। जो सारी जेल में फैल गए।
उस रात सैंट्रल जेल में न तो किसी ने खाना खाया और न कोई सोया।
हम यह जानना चाहते थे कि फांसी से पहले क्या हुआ और फांसी के बाद क्या हुआ? हमें यह चीफ वार्डर ही बता सकता था जो कि फांसी के समय पास खड़ा रहता है। हम सारी रात उसकी प्रतीक्षा करते रहे। प्रात: 7 बजे आकर उसने हमें खोल दिया।
हमारा प्रश्न यही था कि अंतिम समय में इन तीनों ने मौत का मुकाबला कैसे किया?
पहले तो वह बोला नहीं, जब उसने बोलना शुरू किया तो उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। वह सरकारी कर्मचारी था और उसका कहना था कि जब से उसने जेल में नौकरी की है उसने दर्जनों लोगों को फांसी पर चढ़ते देखा है, परन्तु जिस दिलेरी और बहादुरी से ये तीनों फांसी पर चढ़े हैं इसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। उसने हमें भगत सिंह के संबंध में एक घटना सुनाई। जब भगत सिंह फांसी की पोशाक पहन कर तैयार हो गया और अपनी कोठड़ी से निकल कर फांसी घर की ओर रवाना होने लगा तो चीफ वार्डर ने उससे कहा कि अब तो कुछ मिनटों का खेल बाकी रह गया, अब तो वाहे गुरु को याद करो।
चीफ वार्डर का कहना था कि उसकी यह बात सुन कर भगत सिंह ने जोर से एक ठहका लगाया और कहने लगा “सरदार जी, सारी आयु में तो मैंने याद नहीं किया बल्कि गरीबों और दलित लोगों पर जो अत्याचार ढाए जाते हैं उन्हें देख कर मैंने उन्हें कई बार बुरा-भला कहा है। अब जबकि मौत मेरे बिल्कुल सामने खड़ी है, मैं उन्हें याद करुं तो वह क्या कहेगा कि यह नौजवान बेईमान भी है और बुझदिल भी। मेरी अरदास का उस पर क्या प्रभाव होगा और अगर मैं अब उसके संबंध में अपने रवैये में तबदीली करने में तैयार न हूं तो कहेगा कि ईमानदार भी था और बहादुर भी।“
यह कह कर भगत सिंह अपनी निर्दिष्ट मंजिल की ओर चल पड़ा।
उस समय वहां कई चेहरे थे, जेल अधिकारियों के भी जो किसी की जान ले सकते थे और एक कैदी का भी, जो जान देने को तैयार था। परन्तु जेल अधिकारियों के चेहरे उदास थे और मरने वाले का चेहरा खुशी से चमक रहा था।
भगत सिंह ने जेल अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा, हमें हथकड़ी न लगाई जाए, न हमारे मुंह पर नकाब डाला जाए। उसकी ये दोनों बातें मान ली गईं। भगत सिंह ने कोठड़ी की ओर देखा, यहां उसने अपनी जिंदगी के अंतिम दिन बिताए थे और फिर बाहर आ गए। सुखदेव और राजगुरु भी अपनी-अपनी कोठडिय़ों से बाहर आ गए।
तीनों ने एक-दूसरे को देखा, एक-दूसरे को गले मिले और फांसी के तख्ते की तरफ चल पड़े। भगत सिंह बीच में थे। सुखदेव बायें और राजगुरु दायें। भगत सिंह ने अपनी दाईं भुजा राजगुरु की बाईं भुजा में डाल दी और बाईं भुजा सुखदेव की दाईं भुजा में। एक क्षण के लिए तीनों रुके और फिर गाना शुरू कर दिया,
दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत।
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वफा आएगी
आगे-आगे कुछ वार्डर चले, इधर-उधर जेल अधिकारी और बीच में ये तीनों गाते हुए और झूमते जा रहे थे। एक वार्डर ने आगे आकर फांसी घर कर दरवाजा खोला। अंदर लाहौर का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर और जेल का एक अधिकारी मुहम्मद अकबर खड़ा था।
उस अंग्रेज अफसर के पास जा कर भगत सिंह ने कहा,
“Mr. Magistrate, You are fortunate to be able today to see how Indian Revolutionaries can embrace death with pleasure for the sake of their supreme ideal.”
अर्थात मैजिस्ट्रेट साहिब आप भाग्यशाली हैं कि आपको अपनी आंखों से यह देखने का अवसर मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह सहर्ष अपने महान उद्देश्य के लिए मृत्यु को गले लगा सकते हैं।
इसके बाद तीनों उस प्लेटफार्म पर चढ़ गए जहां फांसी के तख्ते लटक रहे थे। तीनों उसके नीचे जा कर खडे़ हो गए। तीनों ने अपने हाथों से फंदे को पकड़ा और गले में डाल लिया। भगत सिंह को इसमें कुछ थोड़ी सी कठिनाई पेश आई। उसने पास खड़े उस जल्लाद को कहा तनिक इस फंदे को ठीक कर दें।
जल्लाद ने भी ऐसे अभियुक्त कभी नहीं देखे होंगे। ऐसी आवाज पहले कभी न सुनी होगी। उसने आगे बढ़ कर तीनों के फंदे ठीक कर दिए और चर्खड़ी घुमाई। तख्त गिरा और वे तीनों भारत मां के चरणों में अर्पित हो गए।
उस समय शाम के 7 बज कर 33 मिनट हुए थे। उस दिन भगत सिंह की जिंदगी के 23 वर्ष 5 महीने 26 दिन पूरे हो गए थे।
भारत की क्रांति का एक अध्याय समाप्त हो गया था।
जिस दिन भगत सिंह को फांसी दी गई (The Day Bhagat Singh was Hanged),