United States of India

 विपक्ष का सर्कस शुरू हो गया है। नेता जगह-जगह इकट्ठे हो रहे हैं। ममता बैनर्जी विशेष तौर पर रिंग मास्टर बनना चाहतीं है। कई नेताओं जिनमें सोनिया गांधी भी शामिल है, से वह मिल चुकी हैं।

सर्कस की तरह ट्रपीज़ पर चंद्र बाबू नायडू जैसे इधर से उधर झूल रहे हैं। कई और झूलने की तैयारी में है। जब से भाजपा गोरखपुर तथा फूलपुर में बुरी तरह से पिटी है तब से यह प्रभाव फैल गया कि इसे हराया जा सकता है। वह अजेय नहीं रही।

तर्क गलत भी नहीं। पिछले चुनाव में भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत वोट पर ही बहुमत मिल गया था क्योंकि बाकी 69 प्रतिशत बिखरा हुआ था। 2014 में भारी कांग्रेस विरोधी तथा मोदी पक्षीय लहर थी। ऐसा 2019 में नहीं होगा।

इसको अब सब भांप गए हैं इसलिए कोशिश है कि सारा विपक्ष एकजुट हो कर मोदी तथा भाजपा को चुनौती दे। रिंग मास्टर ममता बैनर्जी ने ‘वन टू वन’ का मंत्र दिया है कि सर्कस के सारे प्राणी एकजुट हो कर शेर का मुकाबला करे जिसके दांत अब कुछ कमजोर नजर आ रहे हैं।

लेकिन यह होगा कैसे? यह कितना व्यवहारिक है?

ममता बैनर्जी के लिए तो पश्चिम बंगाल में भाजपा के खिलाफ ‘वन टू वन’ करना भी कठिन होगा क्योंकि कामरेड तथा कांग्रेस जगह नहीं छोड़ेंगे। अगर ममता की बात मानी जाए तो कांग्रेस को उत्तर पूर्व तथा दक्षिण, कर्नाटक को छोड़, से अपना बोरिया-बिस्तर बांध लेना चाहिए तथा खुद को गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब तक ही सीमित रखना चाहिए। कांग्रेस जो खुद को भाजपा का एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प समझती है यह फिजूल राय क्यों मानेगी? न ही ममता को राहुल का नेतृत्व ही स्वीकार है। वह सोनिया गांधी से मिली, राहुल गांधी से नहीं। फिर सहयोग कैसे मिलेगा? उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हाशिये पर है और दोनों उपचुनाव में उसके उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई थी लेकिन किसी भी हालत में पार्टी नेहरू-गांधी परिवार की कर्मभूमि को नहीं छोड़ेगी, न ही वह बिहार ही छोड़ेंगे। चाहे वहां भी उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है।

कांग्रेस का कहना है कि वह ‘व्यवहारिक गठबंधनों’ के लिए तैयार है। इसका अर्थ क्या है? वह गठबंधन अपनी शर्तों पर करेगी जैसे शायद वह महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी के साथ करने जा रहे हैं। प्रादेशिक पार्टियों का प्रादेशिक नजरिया है, इनके र्स्कीण हित है। कांग्रेस इसे उपर उठना चाहेगी।

और सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश का क्या होगा जहां मायावती तथा अखिलेश यादव के गठबंधन ने भाजपा का बैंड बजा दिया? अगर, और यह ‘अगर’ बहुत जरूरी है, यह गठबंधन चुनाव तक चलता है तो भाजपा को भारी हानि पहुंचेगी। लेकिन मायावती के बारे निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। क्या ममता बैनर्जी मायावती को स्वीकार करेंगी या मायावती ममता को स्वीकार करेंगी? अभी तक तो दोनों में मुलाकात भी नहीं हुई। मायावती को कम नहीं आंकना चाहिए। वह किसी और पर मेहरबानी करने के लिए उदार नहीं रही। वह जानती है कि राहुल गांधी या ममता बैनर्जी से अधिक मोदी रथ को रोकने की उनमें क्षमता है। चाबी उनके पास है। वह उत्तर प्रदेश में भाजपा का गणित बिगाडऩे की क्षमता रखती है। इसलिए वह करेंगी तो बड़ा सौदा। इसमें प्रधानमंत्री के पद की मांग भी हो सकती है। वह राहुल या ममता को पीएम बनाने के लिए भाजपा से टक्कर नहीं लेंगी।

केवल तीन प्रदेशों तक सीमित कांग्रेस के लिए कर्नाटक का चुनाव जीने-मरने का सवाल बन चुका है। नए अध्यक्ष राहुल गांधी को भी साबित करना है कि वह चुनाव हारते ही नहीं जीतने की भी उनमें क्षमता है। कांग्रेस किस तरह हताश है यह उसकी कर्नाटक सरकार द्वारा लिंगायत समुदाय को गैर हिन्दू अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने की मांग से पता चलता है। कहा जा रहा है कि यह 900 साल पुरानी मांग है। इस मांग को खुद यह पार्टी रद्द कर चुकी है पर चुनाव से ठीक पहले इसे फिर उछाल दिया गया है। वोट की खातिर हिन्दू समाज को और बांटने का यह अत्यंत घटिया प्रयास है। ए.के. एंटनी रिपोर्ट ने बताया था कि कांग्रेस का चुनाव में इसलिए भट्ठा बैठ गया क्योंकि यह प्रभाव फैल गया है कि यह पार्टी हिन्दू विरोधी है। लिंगायत के बारे इस मांग से यह प्रभाव बाकी देश में फिर प्रबल होगा। खेद है कि सोनिया गांधी की कांग्रेस फिर अंग्रेजों की ‘डिवाइड एंड रुल’ की नीति पर चल रही है। क्या यही सोनिया गांधी की देश को विरासत होगी?

इस सर्कस के इर्द-गिर्द कई जोकर भी इकट्ठे हो गए हैं जिनमें एक ही सांझ है कि उन्हें नरेन्द्र मोदी की शक्ल से नफरत है। सब खुद को उदार सैक्यूलर साबित करने में लगे हुए हैं इसलिए उन्हें हटाने के लिए नए-नए करतब के सुझाव दिए जा रहे हैं। पत्रकार-लेखिका सागरिका घोष ने अजब सुझाव दिया है। वह यूएसए की तरह UNITED STATES OF INDIA  अर्थात संयुक्त राज्य भारत चाहती है। तर्क है कि ताकतवर मुख्यमंत्रियों का एक गठबंधन बनाया जाए जो मोदी को चुनौती दे। उनके अनुसार “भारत के राज्यतंत्र को सदैव शक्ति का बिखराव चाहिए ताकि वास्तव में संयुक्त राज्य भारत बन सके।“

हैरानी है कि इस महिला ने इतिहास से कुछ सबक नहीं सीखा। न ही सोचा की अमेरिका और हमारी परिस्थिति में कितना अंतर है। भारत अगर 1000 वर्ष पराधीन रहा तो इसलिए क्योंकि यहां एक मजबूत केन्द्रीय ताकत नहीं थी। ‘शक्ति का बिखराव’ था। 710 में केन्द्रीय एशिया से पहला बड़ा हमला हुआ जब मुहम्मद गजनी आया था। उसके बाद मुहम्मद गौरी, तेमूर, फिर बाबर तथा मुगल। बीच में कई और। जब मुगल सलतनत कमजोर हुई तो योरुप पहुंच गया। पुर्तगाल, फ्रांस, डच सब आ धमके। 1757 से लेकर 1857 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमारा शोषण किया। वह फैलती गई क्योंकि हमारे सूबेदार आपस में बंटे हुए थे। एक समय तो मराठा और सिख पंजाब में लड़ते रहे। केवल महाराजा रणजीत सिंह ने अपना साम्राज्य बनाया लेकिन उसका भी उनके देहांत के बाद बिखराव हो गया और उनके वशंज का अंग्रेजों ने क्या दर्दनाक हाल किया यह हम सब जानते हैं। मराठे, राजपूत, सिख, बंगाली सब आपस में लड़ते रहे और भारत कहीं डूब गया।

फिराख गोरखपुरी ने लिखा है कि “काफिले बसते गए और हिन्दोस्तां बनता गया।“ लेकिन हिन्दोस्तान तो पहले ही बना हुआ था। शशि थरुर ने अपनी किताब च्एन इॅरा ऑफ डार्कनॅसज् में बताया है कि मुगल साम्राज्य के पतन के समय भारत का विश्व की जीडीपी में हिस्सा 23 प्रतिशत था जो अंग्रेजों के जाने के समय मात्र 3 प्रतिशत रह गया। और यह भी अफसोस की बात है कि अंग्रेजों की भारत विजय में कई भारतीयों ने मदद की जिसमें कई सूबेदार शामिल थे जो केवल अपनी रियासत बचाना चाहते थे। जो आखिर में बची भी नहीं। मुगलों के खिलाफ राजपूत राजा भी इकट्ठे नहीं हुए। हमने भी कई जयचंद पैदा किए थे।

आजादी के बाद भी जितने ऐसे ‘सूबेदारों के गठबंधनज’ बने वह अस्थाई थे। हम ऐसा परीक्षण दोबारा क्यों करें?

ठीक है मोदी सरकार ने कई गलतियां की लेकिन मेरा मानना है कि देश को बदलने तथा आधुनिक ज़माने का मुकाबला करने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है जिसके आगे चल कर बढ़िया परिणाम निकलेंगे। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने तो देश को लूटा ही था देश को बदलने का कोई प्रयास नहीं किया। न ही मोदी की ताकत तथा आकर्षण को कम ही आंकना चाहिए। लोग नाराज नजर आते हैं, लेकिन अभी एक साल पड़ा है।

बहरहाल अगर विपक्ष ने मोदी तथा भाजपा को विकल्प देना है तो अधपक्के स्ढ्ढ जैसे शोशों से नहीं हो सकता। उन्हें तीन जवाब देने हैं, (1) कौन चेहरा होगा जो देश को संभालेगा? (2) केन्द्र में किस पार्टी की बुनियाद पर सरकार बनाई जाएगी? (3) उस सरकार की विचारधारा, कार्यक्रम, दिशा क्या होगी?

इन प्रश्नों का जवाब दिए बिना इस सर्कस का तम्बू बहुत देर नहीं टिकेगा।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.