
मनोवैज्ञानिक LOVE-HATE RELATIONSHIP की बात करते हैं अर्थात वह रिश्ता जो कभी प्यार का है तो कभी नफरत में बदल जाता है। कांग्रेस पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का रिश्ता भी प्यार-नफरत वाला ही रहा है चाहे इसमें नफरत की मात्रा अधिक रही है। महात्मा गांधी की हत्या से इस रिश्तों में अधिक तनाव आ गया था। उनकी हत्या के अगले ही महीने अर्थात फरवरी 1948 में संघ पर पाबंदी लगा दी गई। संघ को लेकर जवाहर लाल नेहरू तथा सरदार पटेल में मतभेद रहे।
गांधी जी की हत्या के दो सप्ताह के बाद पंजाब सरकार को लिखे अपने पत्र में देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था, “इन लोगों के हाथ महात्मा गांधी के खून से सने हैं।“ लेकिन यह आंकलन गृहमंत्री पटेल का नहीं था। इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, “आरएसएस के बारे पटेल की मिश्रित भावना थी। पटेल उनके मुस्लिम विरोधी रवैये की निंदा करते थे लेकिन वह उनके समर्पण तथा अनुशासन के प्रशंसक थे। पटेल संघ को देश भक्त लेकिन पथ से भटका हुआ मानते थे।“
इस संदर्भ में राजमोहन गांधी जिनकी सरदार पटेल की जीवनी को गंभीर दस्तावेज समझा जाता है भी लिखते हैं, “इन समाचारों के बाद कि कई जगह संघ के लोगों ने गांधी की हत्या का जश्न मनाया था पटेल का कहना था कि यह लोग ‘खतरनाक गतिविधियों’ में संलिप्त हैं’ और इस बात के लिए सहमत हो गए कि इन पर पाबंदी लगाई जाए। लेकिन दोनों नेताओं के बीच आंकलन को लेकर मतभेद थे। फरवरी के अंत में नेहरू ने पटेल को बताया था कि बापू की हत्या अकेली घटना नहीं थी तथा बड़े अभियान का हिस्सा थी जिसे मुख्यतय: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तैयार किया था।“
लेकिन पटेल इस से सहमत नहीं थे। उन्होंने नेहरू को जवाब दिया कि वह दैनिक स्तर पर मामले पर नज़र रखे हैं और अपराधियों के बयानों से यह सिद्ध होता है कि “आरएसएस बिल्कुल संलिप्त नहीं था। यह साजिश हिन्दू महासभा के उन्मादियों की थी।“ संघ के खिलाफ कोई प्रमाण ने मिलने के कारण पाबंदी हटा ली गई लेकिन कांग्रेस का एक वर्ग आज तक इस संगठन को खलनायक ही कहता आ रहा है। हैरानी यह भी है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं ने समय-समय पर संघ का सहयोगी भी लिया था। गांधी जी जिन्होंने कभी संघ की तुलना हिटलर के नाजियों से की थी महाराष्ट्र में वर्धा में आयोजित संघ के शिविर में पहुंचे थे। उन्होंने लिखा था कि “मै स्वयंसेवकों के कड़े अनुशासन, सादगी तथा छूआछूत की पूर्ण समाप्ति को देख कर प्रभावित हुआ हूं।“ नेहरू जिन्होंने पटेल के इस कथन से अपनी असहमति स्पष्ट कर दी थी कि ‘संघ के लोग भी हमारे भाई हैं’, ने 1962 की लड़ाई में संघ के कार्यकर्त्ताओं की देशभक्ति से प्रभावित होकर उन्हें 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया और 3000 स्वयंसेवकों ने पूरे गणावेश में हिस्सा लिया।
लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के समय भी ऐसे मौके आए जब कांग्रेस की सरकार तथा संघ नजदीक नजर आए लेकिन इंदिरा गांधी की एमरजैंसी का संघ ने डट कर विरोध किया और जेल भर दिए। तब से लेकर अब तक रिश्ते गिरते ही गए। सोनिया गांधी के हाथ में कांग्रेस की बागडोर आने के बाद यह रिश्ते और बिगड़ गए। संघ ने उनके इतालवी मूल को लेकर तीखा अभियान चलाया तो सोनिया की कांग्रेस ने सैक्यूलर-नॉन सैक्यूलर का मुद्दा बना कर संघ तथा भाजपा को बदनाम करना शुरू कर दिया। राहुल गांधी भी स्पष्ट कर रहें हैं कि वह संघ को खलनायक ही समझते हैं।
इस बीच पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जो कांग्रेस की सरकारों में बड़े मंत्री रह चुके हैं संघ प्रमुख मोहन भागवत के निमंत्रण पर नागपुर संघ मुख्यालय पहुंच गए जहां उन्होंने हजारों स्वयं सेवकों को संबोधित किया और देश की राजनीति में भूचाल ला दिया।
प्रणब मुखर्जी की इस यात्रा से कांग्रेस तड़प रही है। न केवल कांग्रेस बल्कि कुलदीप नैय्यर जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी दुखी हैं कि मुखर्जी की यात्रा से ‘भ्रम पैदा होगा।‘ हैरानी है कि इस कथित सैक्यूलर जमात ने कभी कम्यूनिस्टों से हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सहयोग नहीं दिया था। लेकिन ऐसी हमारी राजनीति बन गई है जहां एक यात्रा जो सामान्य होनी चाहिए थी को लेकर कांग्रेस के नेता गश खा रहे हैं यहां तक कि प्रणब मुखर्जी की बेटी जो कांग्रेस की प्रवक्ता है ने भी आपत्ति की थी। लेकिन दादा माने नहीं।
प्रणब मुखर्जी का भी गांधी परिवार के साथ प्यार-नफरत वाला रिश्ता रहा है। वह इंदिरा गांधी के भक्त रहें जिन पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद से ही रिश्ते बिगड़ गए। परिवार ने बार-बार उनका अपमान किया और उपेक्षा की। हत्या के समय दोनों राजीव गांधी तथा प्रणब मुखर्जी पश्चिम बंगाल में थे। रास्ते में हवाई जहाज में प्रणब ने राजीव से कहा कि क्योंकि वह वरिष्ठ मंत्री हैं इसीलिए उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। बस इस जुर्रत के लिए उन्हें माफ नहीं किया गया। उन्हें पार्टी से निकाल भी दिया गया। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया तो 2004 में उन जूनियर मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बना दिया जो प्रणब मुखर्जी को ‘सर’ कहा करते थे। मुखर्जी मंत्री तो बना दिए गए पर आपसी अविश्वास रहा। बाद में अगर प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बन सके तो यह भी सोनिया गांधी के कारण नहीं बल्कि उनके बावजूद था।
राष्ट्रपति पद से हटने के बाद उनका संघ मुख्यालय जाना बहुत बड़ी घटना है। वहां उनके और संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषण भी लगभग एक जैसे ही थे। प्रणब मुखर्जी का कहना था कि “सहिष्णुता हमारी ताकत है… यह सदियों से हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा रहा है। हमारी राष्ट्रीयता को मत, धर्म, क्षेत्र, घृणा तथा असहिष्णुता के आधार पर परिभाषित करने का कोई भी प्रयास हमारी राष्ट्रीय पहचान को धूमिल करेगा।“ मोहन भागवत ने भी कहा कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति अपना है, कोई पराया नहीं।
इस वार्तालाप से कई लोग दुखी हैं। यह वही लोग हैं जो बार-बार हुर्रियत कांफ्रेंस से बात करने की वकालत करते हैं। ‘डॉयलॉग’ शब्द बार-बार उछाला जाता है पर देश की इस बड़ी संस्था से डॉयलॉग के वह खिलाफ है। इसमें कुछ दोष संघ और भाजपा के उन लोगों का भी है जो उग्रवादी हो जाती है, धर्मान्ध बन जाते है और नफरत फैलाते हैं। इन लोगों ने हिन्दुत्व को बदनाम कर दिया है। हमें आगे बढ़ना है पर आर्टिफिशल इनटैलिजैंस के इस युग में कई लोग रुढ़ियों से चिपके हुए हैं। प्रणब मुखर्जी को वहां बुला कर और उनकी बात सुन कर मोहन भागवत ने बहुत समझदारी दिखाई है। संघ को देश की मुख्यधारा में आना चाहिए। उसे अपनी यह छवि बदलनी चाहिए कि उनके कार्यक्रम में राष्ट्रीय ध्वज लहराया नहीं जा सकता और राष्ट्रगान गाया नहीं जा सकता। संघ को अपने उग्रवादियों तथा जो फिजूल बातें करते हैं पर लगाम लगानी चाहिए। यह संवाद जारी रखना चाहिए क्योंकि देश में बहुत कुछ नकरात्मक है। बहुत नफरत है, तनाव है, हिंसा है। इसे बदलने का बीड़ा संघ को उठाना चाहिए।
प्रणब मुखर्जी इस मौके पर संघ मुख्यालय क्यों गए? इसको लेकर बहुत अटकलें हैं। कई लोग कह रहे हैं कि मलेशिया के प्रधानमंत्री महातीर बिन मुहम्मद अगर 93 साल की आयु में प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो उनसे 10 वर्ष कम आयु वाले प्रणब मुखर्जी क्यों नहीं बन सकते? कुछ पत्रकार कह रहे हैं कि वह फैडरल फ्रंट के नेता हो सकते हैं तो शिवसेना का मानना है कि अगर भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो संघ नरेन्द्र मोदी की जगह प्रणब मुखर्जी को गठबंधन का प्रधानमंत्री बनवा देगा।
वैसे तो राजनीति में कुछ भी कहा नहीं जा सकता पर मैं नहीं समझता कि प्रणब दा नागपुर सक्रिय राजनीति में कदम रखने के लिए गए थे। वह बहुत अनुभवी और समझदार नेता हैं जो अपनी इज्जत को दांव पर नहीं लगाएंगे। उनकी नागपुर यात्रा से अंग्रेजी का यह मुहावरा याद आता है कि REVENGE IS A DISH BEST SERVED COLD अर्थात बदला सबसे अच्छा ठंडा परोसा जाता है। संघ मुख्यालय जाकर और उन्हें मान्यता देकर प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस और विशेष तौर पर राहुल गांधी से बड़ा हथियार छीन लिया। अगर पूर्व राष्ट्रपति वहां जा सकते हैं तो इसका मतलब है कि संघ अछूत नहीं रहा। प्रभाव यह गया कि संघ तो विपरीत विचारों के प्रति सहिष्णु है पर कांग्रेस का अपरिपक्व नेतृत्व बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। 1984 से हो रहे अपने तिरस्कार का बदला 2018 में ठंडा परोसा गया।
कांग्रेस, संघ और प्रणब मुखर्जी (Congress, RSS and Pranab Mukherjee),