
इस साल 13 अप्रैल बैसाखी के दिन ब्रिटिश राज के सबसे नृशंस कांड की 100वीं वर्षगांठ है। 100 साल पहले उस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांतमय ढंग से इकट्ठे हुए निहत्थे लोगों पर ब्रिगेडियर जनरल डायर ने फायरिंग का आदेश दिया था। 1000 से उपर लोग मारे गए जिनमें गर्भवती महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पास कर ब्रिटिश सरकार से “ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सबसे भयंकर याद” के लिए माफी की मांग की है। दूसरी तरफ ब्रिटिश संसद के हाऊस ऑफ लाडर्स में भारतीय मूल के लाडर्स ने इस नरसंहार पर बहस का प्रस्ताव रखा है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले 1920 में हाऊस ऑफ लाडर्स ने इस पर बहस की थी और डायर की क्रूरता की माफी दे दी थी। अर्थात पिछले 100 सालों में ब्रिटिश संसद ने अपनी उस ज़ालिम कार्रवाई पर कोई बहस नहीं की जो आज तक भारतीय ह्रदयों को तड़पाती आ रही है। अब इतना जरूर बताया गया कि ब्रिटिश सरकार माफी मांगने पर ‘विचार’ कर रही है।
ब्रिटिश सरकार में व्हिप बैरनॅस एनॉबल गोल्डी ने कहा है कि उनकी सरकार इस शताब्दी को “बहुत सम्मानपूर्ण तथा उचित” तरीके से मनाना चाहती है लेकिन उनकी असली मंशा क्या है यह बैरनॅस के इस कथन से पता चलता है कि “इतिहास दोबारा नहीं लिखा जा सकता और यह महत्वपूर्ण है कि हम अतीत के जाल में न फंसे।” इसके साथ उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि “जैसे हम सब जानते ही हैं कि उस वक्त की सरकार ने इस अत्याचार की भारी भर्त्सना की थी।” पर जैसा हम सब जानते हैं, वह झूठ बोल रहीं है। इसके बारे मैं आगे चल कर बताऊंगा लेकिन जहां तक “अतीत के जाल में फंसने” की बात है, असली मामला यह नहीं है बल्कि असाधारण पाशविकता तथा चरम नसलवाद की क्रूरता पर प्रायश्चित करने का है।
समरण रहे कि 13 अप्रैल,1919 को पुरुष-महिलाओं तथा बच्चों के जलियांवाला बाग मेें इकट्ठ पर डायर के आदेश पर फायरिंग की गई थी। यह जगह तीन तरफ से बंद थी ओर चौथी तरफ डायर ने अपनी बख्तरबंद गाड़ी तथा सैनिक इकट्ठे कर लिए थे। मशीनगनों से 150 गज़ की दूरी से फायरिंग करवाई गई। शशि थरुर जिन्होंने अंग्रेजों के काले युग पर किताब लिखी है, बताते हैं, “कोई चेतावनी नहीं दी गई, कोई घोषणा नहीं की गई कि यह इकट्ठ गैर कानूनी है… कोई आदेश नहीं दिया गया कि शांतमय ढंग से लोग चले जाएं। डायर ने अपने सैनिकों को यह आदेश नहीं दिया कि वह हवा में फायंरिग करे या लोगों के पैरों को निशाना बनाए। उसके आदेश पर इस निहत्थे और असुरक्षित जनसमूह की छातियों, चेहरों तथा कोख को निशाना बनाया गया।”
उस वक्त 1650 राऊंड चलाए गए और फायरिंग तब रोकी गई जब गोलियां खत्म हो गईं। ब्रिटिश सरकार के अनुसार 370 लोग मारे गए लेकिन गैर सरकारी अनुमान था कि 1400 लोग उस दिन वहां शहीद हुए। संतुष्ट डायर ने बाद में कहा था कि, “शायद ही कोई गोली फिज़ूल गई थी।” जो घायल थे और जो मरने वाले थे उन्हें कोई सहायता नहीं दी गई। इतिहासकार राजमोहन गांधी लिखते हैं, “13 की रात मरने वाले तथा मारे गए लोगों ने कुत्तों और गिद्दों के साथ बिताई थी।”
उसके बाद जो हुआ वह भी शर्मनाक था। इस हत्याकांड पर पछतावा व्यक्त करने की जगह दमन चक्र शुरू कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू ने “बड़ी क्रूरता तथा अकथनीय अपमान” का जिक्र किया है जहां पंजाब में भारतीय नेताओं को उन तंग पिंजरों में रखा गया जहां वह पूरी तरह से खड़े भी नहीं हो सकते थे। आदेश था कि एक जगह विशेष से गुजरने के लिए लोगों को रेंगना पड़ता था। कुछ शहरों में नरसंहार के विरोध में इकट्ठे हुए लोगों पर ब्रिटिश वायुसेना ने बमबारी की थी।
लेकिन निकृष्टतम अभी बाकी था। बैरनॅस के कथन की उस दिन की सरकार ने इस क्रूरता की भारी निंदा की थी के उलट उस वक्त की ब्रिटिश सरकार ने इस निंदनीय कांड की न केवल अनदेखी कर दी बल्कि उनके संसदीय आयोग ने डायर को केवल “अनुमान की गलती” का दोषी पाया। हाऊस ऑफ लाडर्स ने इस बूचड़ में विश्वासमत पारित कर हमारे जख्मों पर नमक छिडक़ दिया। इंगलैंड में लोगों ने इकट्ठा कर उसे 20,000 पौंड तथा एक तलवार भेंट की। आज वह डायर की हरकत को एक अपवाद नहीं कह सकते क्योंकि तब उन्होंने इस बूचड़ को गले लगाते हुए उसे अपना हीरो मान लिया था। जहां डायर को सम्मानपूर्ण रिटायर होने दिया गया वहां प्रभावित परिवारों को केवल 500-500 रुपए दिए गए।
रविंद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश शासन के अत्याचार के विरोध में अपना खिताब वापिस कर दिया और गांधी जी में भारतीय आजादी की नैतिक सच्चाई की धारणा पक्की हो गई। ब्रिटेन तथा भारतीयों के बीच रिश्ता पूरी तरह से टूट गया और वहां पहुंच गया जहां से वापिसी संभव नहीं थी। यह साम्राज्यवाद का सबसे कुरुप और खतरनाक चेहरा था। भारत में आज तक उस दिन को ‘खूनी बैसाखी ‘ज्के तौर पर याद किया जाता है। डायर की क्रूरता को उस विदेशी व्यवस्था का प्रतीक माना गया जो हमारे लोगों पर अमानवीय अत्याचार ढहाती रही है।
अक्तूबर 1997 में भारत की तीसरी यात्रा पर जब महारानी एलिजाबेथ जलियांवाला बाग गई तो 30 सैकंड वह वहां खामोश खड़ी रही लेकिन शाही घमंड में इस खामोशी को उन्होंने तोड़ा नहीं। न माफी मांगी, न सहानुभूति प्रकट की और न ही उस खूनी कांड की निंदा ही की जो उनके दादा जार्ज पंचम के नाम पर किया गया। उससे एक दिन पहले एक भोज के दौरान उनके लापरवाह कथन थे, “यह छिपी हुर्इ बात नहीं है कि हमारे अतीत में कई मुश्किल घटनाएं हुई थी। जलियांवाला बाग इसकी दुखद मिसाल है… लेकिन इतिहास दोबारा नहीं लिखा जा सकता… इसमें कई दुखद क्षण हैं और कई खुशी के क्षण हैं।”
लेकिन जलियांवाला कांड हमारे लिए तो “खुशी का क्षण” नहीं था, न ही ब्रिटिश राज ‘खुशी का क्षण ‘ था। कई साल बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने इसे “ब्रिटिश इतिहास की शर्मनाक घटना ” करार दिया पर उन्होंने भी माफी नहीं मांगी और महारानी की तरह हमें लैक्चर दे गए कि “इतिहास में वापिस जाना सही नहीं है।” लेकिन फैसला कौन करेगा? जिनके लोगों ने गोली चलाई या जिनके कई सौ निहत्थे मारे गए? जर्मनी ने दशकों नाज़ी अत्याचार के लिए प्रायश्चित किया है क्योंकि वहां अंग्रेज माफ करने को तैयार नहीं थे। उनका नाक रगड़वाया गया। वहां ब्रिटेन इतिहास में वापिस गया और बार-बार गया। वहीं पैमाना ब्रिटेन पर लागू क्यों न किया जाए? इसीलिए अब उनसे माफी की मांग उठ रही है। अंग्रेजों को समझना चाहिए कि भारतीय मानस पर खूनी बैसाखी का जख्म गहरा है और अगर यह पूर्व महाशक्ति अब आश्वस्त तथा तेजी से महाशक्ति बन रहे भारत की जनता के साथ अच्छा रिश्ता चाहती हैं तो इस शर्मनाक कांड पर पर्दा गिरना चाहिए और ऐसा खुली माफी से ही हो सकता है।
क्या ब्रिटिश माफी मांगेंगे? मैं नहीं समझता कि ऐसी उदारता तथा शालीनता उनमें है। उनका पुराना बादशाही घमंड खत्म नहीं हुआ लेकिन भारत के साथ सामान्य रिश्ता कायम करने के लिए उन्हें झुकना होगा नहीं तो यह कड़वाहट कायम रहेगी। इसी के साथ कोहीनूर हीरे की वापिसी का मामला भी है। एक ब्रिटिश अधिकारी कह चुका है कि “अगर इसे वापिस कर दिया तो ऐसी मांग के जलद्वार खुल जाएंगे कि जो लूटा गया है उसे वापिस करो।” उसका कहना है कि अगर लूट का माल वापिस करना शुरू कर दिया तो उनके संग्रहालय में बचेगा क्या? ठीक है, आपकी मर्ज़ी है, तो फिर बेहतर होगा कि आप अपने संग्रहालयों का नाम बदल कर ‘चोर बाज़ार’ रख लें।