अडवाणीजी को राम राम I (Farewell To Advani Ji)

 

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व ने अपने मार्गदर्शक मंडल को बाहर का मार्ग दिखा दिया। लाल कृष्ण अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, बीसी खंडूरी, कारया मुंडा और उनसे पहले यशवंत सिन्हा सबकी हैसीयत अब दर्शक की रह गई है। इनको भी समझना चाहिए था कि इनका समय गुज़र चुका है। आखिर अडवाणीजी की आयु 91 वर्ष है। जोशीजी कुछ ही वर्ष कम है। कितनी और राजनीति करनी है? सही कहा गया कि आदमी को तब छोड़ देना चाहिए जब लोग कहें ‘क्यों?’ तब नहीं जब लोग कहें  ‘क्यों नहीं?’ है। इन महापुरुषो का  ‘क्यों नहीं’ समय आ चुका था।

अफसोस इस बात का नहीं कि इन्हें एक तरफ कर दिया गया अफसोस जिस ढंग से किया गया उसका है। मुरली मनोहर जोशी ने सही कहा है कि बेहतर होता कि पार्टी अध्यक्ष खुद मिल कर यह संदेश देते पर इन्हें बताने का शिष्टाचार न प्रधानमंत्री मोदी ने और न ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने निभाया। विशेष तौर पर लाल कृष्ण अडवाणी ऐसे तिरस्कार के हकदार नहीं थे। यह अडवाणीजी की राम रथयात्रा थी जिसके बल पर भाजपा मजबूत हुई और वह 2 सीटों से 2014 में 282 की संख्या तक पहुंच पाई। अगर वाजपेयी सरकार बन पाई तो इसका बड़ा श्रेय भी अडवाणी को जाता है। उन्होंने ही भाजपा के संगठन को इतना मज़बूत कर विशाल बनाया जिसका 2013-14 में नरेन्द्र मोदी बढ़िया इस्तेमाल कर सके। अडवाणी का यह भी बड़ा योगदान था कि उन्होंने भाजपा की अगली पीढ़ी खड़ी की। नरेन्द्र मोदी, उमा भारती, अरुण जेतली, सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन सबने नेतृत्व का गुर अडवाणीजी से ही सीखा था। अडवाणी सचमुच इन सबके मार्गदर्शक थे और इनमें से नरेन्द्र मोदी विशेष तौर पर इनके प्रिय थे।

नरेन्द्र मोदी की लिखी हुई जीवनी ‘नरेन्द्र मोदी, द मैन, द टाईम्स’ में निलंजन मुखोपाध्याय लिखते हैं,  “शुरू से यह साफ था कि मोदी अडवाणी की निजी पसंद थे।“ वह समझते थे कि गुजरात में अगर कोई पार्टी को खड़ी कर सकता है  तो यह नरेन्द्र मोदी ही है। गुजरात को हिन्दुत्व की लैबॉरटरी बनाया जाना था। मोदी ने ही अडवाणी की राम रथयात्रा आयोजित की थी। मोदी के कहने पर ही अडवाणी ने गुजरात में गांधीनगर को अपना चुनाव क्षेत्र बनाया और पांच बार वहां से निर्वाचित हुए। अब वहां से अमित शाह पार्टी उम्मीदवार हैं। नामांकन पत्र भरने के समय एनडीए के अन्य बड़े नेताओं को बुलाया गया पर अडवाणीजी को बुलाने की ज़ेहमत नहीं उठाई गई। यह और भी हैरान करने वाला है क्योंकि जब नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक कैरियर का सबसे बड़ा संकट आया तो अडवाणी ने ही चिट्टान की तरह उनकी रक्षा की थी। 2002 में गुजरात के दंगों के बाद जब पार्टी का एक वर्ग मोदी को हटाना चाहता था तो अडवाणी ने ही यह नहीं होने दिया। गोवा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जो इन दंगों के कारण अपनी तथा देश की छवि पर आई आंच से विचलित थे, ने स्पष्ट कर दिया था कि वह मोदीे को हटता देखना चाहते हैं। उनकी यह टिप्पणी अर्थपूर्ण है कि, ” मुख्यमंत्री के लिए मेरा एक ही संदेश है, राजधर्म अपनाओ। यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है।“ लेकिन उस वक्त अडवाणी तथा प्रमोद महाजन जैसे नेता मोदी की मदद के लिए आगे आए और पार्टी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को अभयदान दे दिया। बाद में अपनी जीवनी,च् माई कंट्री, माई लार्इफ ज् में अडवाणी ने लिखा था,  “मेरी नज़र में पिछले 60 वर्षों में भारत का कोई नेता नहीं जिसे इस कू्ररता तथा निरन्तरता के साथ बदनाम किया गया…. जिस तरह 2002 के बाद नरेन्द्र मोदी को किया गया।“

लेकिन राजनीति बड़ी ज़ालिम है। आज हालत है कि मोदी अटलजी को तो याद करतें है पर अडवाणी को खुड्डेलाईन लगा दिया गया है। इसका कारण 2014 के चुनाव में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनने को लेकर अडवाणी तथा उनके शिष्य मोदी में रस्साकसी थी। 2009 में अडवाणी के नेतृत्व में भाजपा बुरी तरह पराजित हो गई थी। पार्टी नया चेहरा चाहती थी पर अडवाणी छोडऩे को तैयार नहीं थे। सितम्बर, 2013 में भाजपा ने मोदी के नाम पर मोहर लगा दी और नाराज अडवाणी इस बैठक में शामिल नहीं हुए। तब जो मनमुटाव शुरू हुआ वह अब संबंध विच्छेद तक पहुंच गया लगता है। निलंजन मुखोपाध्याय ने लिखा है,  “मोदी के चरित्र का यह विशेष पक्ष है कि वह अपने विरोधियों तथा बागियों से बहुत कठोरता से पेश आते हैं।“

अब उनके चुनाव क्षेत्र से अमित शाह लड़ रहे हैं। क्योंकि हमें संज्ञाएं देने का शौक है इसलिए कहा जा सकता है कि  ‘लौहपुरुष’ की जगह  ‘चाणक्य’  ले रहे हैं! भाजपा में वाजपेयी-अडवाणी के बाद मोदी-शाह का युग शुरू हो चुका है। वाजपेयी की तरह मोदी लोकप्रिय नेता होंगे और अडवाणी की  तरह अमित शाह संगठन को संभालेंगे। याद रखना चाहिए कि अडवाणी की ही तरह अमित शाह भी सख्ती से व्यवहारिक है। पार्टी के हित में वह कोई भी समझौता कर सकते हैं कोई भी सौदेबाजी कर सकते हैं आदर्शों या विचारधारा की इन्हें अधिक चिंता नहीं।

भाजपा में अडवाणी युग का अवसान हो गया। बेहतर होता कि उन्हें सम्मानजनक विदाई दी जाती पर इससे भी बेहतर रहता कि वह सम्मानजनक ढंग से खुद को रिटायर कर लेते। अडवाणी के लम्बे राजनीतिक जीवन में दो और मसले भी जुड़े हुए हैं जिन्हें विवादास्पद कहा जा सकता है। 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। अपनी किताब में अडवाणी लिखते हैं,  “यह हिन्दू जागृति का वास्तव में ऐतिहासिक महत्व का दिन था।“  लेकिन साथ  यह भी लिखते हैं,  “इसी के साथ मैंने इस आंदोलन के दुर्भाग्यपूर्ण समापन पर अपनी भावना व्यक्त की थी …जिस तरह कुछ नेताओं ने उल्लास की भावना व्यक्त की थी मैं उसका हिस्सा नहीं बन सकता था। मैंने लिखा था, यह मेरी जिंदगी का सबसे दुखद दिन था। मैंने शायद ही खुद को कभी इतना निरुत्साहित तथा बेदिल पाया जितना मैंने उस दिन महसूस किया।“

अडवाणी की यह बात समझ नहीं आई। एक तरफ अयोध्या में हज़ारों कारसेवक इकट्ठे कर लिए गए फिर जो हुआ उसकी परेशानी क्यों? दूसरा, अगर यह  ‘हिन्दू जागृति’ का महत्वपूर्ण दिन था तो फिर यह आपके लिए सबसे दुखद दिन क्यों था? हैरानी है कि अडवाणी जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति को इसमें विरोधाभास नज़र नहीं आया। ऐसा ही विरोधाभास उन्होंने 2005 में कराची की अपनी यात्रा के दौरान दिखाया जब उन्होंने मुहम्मद अली जिन्नाह की जम कर तारीफ कर दी। जिन्नाह के मकबरे पर आंगतुक किताब में भाजपा के इस बड़े नेता ने लिख दिया,  “बहुत ऐसे लोग हैं जो इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, लेकिन बहुत कम हैं जो वास्तव में इतिहास बनाते हैं। कायद-ए-आजम मुहम्मद अली जिन्नाह ऐसे विरले शख्स थे… सरोजनी नायडू ने मिस्टर जिन्नाह को हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत कहा था… पाकिस्तान की संविधान सभा में उनका भाषण एक सैक्यूलर राज्य का प्रभावशाली समर्थन था…।“

बाद में जब देश में तूफान उठा तो अडवाणीजी ने चतुर स्पष्टीकरण दिया कि मैंने तो जिन्नाह को  ‘सैक्यूलर’ नहीं कहा था मैंने तो केवल उनके भाषण का जिक्र किया था और न ही मैंने उन्हें  ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहा था यह श्रद्धांजलि तो सरोजिनी नायडू ने दी थी। अडवाणीजी का यह भोलापन उन्हें शोभा नहीं देता। इंसान अपने भाषण में वह उद्धत करता है जिससे वह सहमत हो। ठीक है जिन्नाह का वह भाषण बढ़िया था जिसमें उन्होंने कहा था,  “आपका कोई भी मज़हब, जाति या संप्रदाय हो इसका सरकार के काम से कुछ लेना-देना नहीं।“ यह भी सही है कि जिन्नाह को बाद में समझ आ गई थी कि उन्होंने भारी गलती की है। कई इतिहासकार लिख चुकें हैं कि वह समझ गए थे कि पाकिस्तान को बनाना एक बलंडर था और वह जवाहरलाल नेहरू से मिल कर कहना चाहते थे कि सब भूल जाओ और आओ मिल कर दोस्तों की तरह रहें, लेकिन यह तो अटकलें हैं। मज़हब और दो राष्ट्र के नाम पर जिस व्यक्ति ने देश का बंटवारा करवाया उसे  ‘महान व्यक्ति ‘  नहीं कहा जा सकता, जैसे अडवाणी ने कहा था।

अडवाणी शायद अपनी छवि बदलना चाहते थे लेकिन असावधानी या अधिक आत्म विश्वास में वह शीशा तोड़ गए। आज जहां भाजपा के प्रति उनके योगदान को याद किया जाता है वहां यह भी याद किया जाता है कि वह उस नेता के प्रशंसक थे जिसने देश का बंटवारा करवाया और लाखों जिंदगियां बर्बाद करवा दी। और आज विडम्बना देखिए कि जिस व्यक्ति की राम रथयात्रा ने भाजपा का आधार इतना मज़बूत बनाया कि आज बहुमत वाली सरकार है उसे ही पार्टी ने राम राम कह दिया है!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.