हैदराबाद तथा उन्नाव की दर्दनाक घटनाओं, तथा हैदराबाद मेें मुठभेड़ में आरोपियों की मौत पर देश भर में मनाई गई खुशी के बाद मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा है कि न्याय कभी तत्काल नहीं होना चाहिए और अगर यह प्रतिरोध बन गया तो उसे न्याय नहीं कहा जा सकता। माननीय मुख्य न्यायाधीश की बात सही है। अगर अदालतों से बाहर न्याय होने लगा तो अराजक स्थिति बन जाएगी। हमने तो अजमल कसाब को भी प्रक्रिया पूरी करने के बाद फांसी पर लटकाया था लेकिन हैदराबाद में दोषियों का ‘एनकाऊंटर’ कर दिया गया जिसके बाद लोगों ने पुलिस वालों पर फूल बरसाए और उन्हें कंधों पर उठा लिया। यह एनकाऊंटर असली था या फर्ज़ी यह तो जांच बताएगी लेकिन इस पर देश भर में इतनी खुशी क्यों है? कुछ बुद्धिजीवी अवश्य आपत्ति कर रहे हैं लेकिन आम जनता समझती है कि आखिर इंसाफ हो गया। कपिल सिब्बल ने कहा है कि ऐसे तो अदालतें अप्रासंगिक और व्यर्थ हो जाएंगी। लेकिन असली चिंता तो यह है कि तारीख पर तारीख डालती अदालतें ही खुद को अप्रासंगिक न कर दें। मुख्य न्यायाधीश ने माना है कि आपराधिक न्याय प्रणाली की मौजूदा स्थिति और ढिलाई भरे रवैये पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। राष्ट्रपति ने कहा है कि न्याय महंगा तथा आम आदमी से दूर है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि वक्त पर न्याय मिलना जरूरी है। प्रधानमंत्री का कहना है कि महिला सुरक्षा के लिए प्रभावी पुलिसिंग चाहिए पर माननीय, सवाल वही कि यह होगा कैसे? करेगा कौन? तेज़ी से न्याय देगा कौन?
निर्भया कांड के बाद उत्तेजित जनभावना को शांत करने के लिए सख्त कानून बनाया गया लेकिन सात साल के बाद भी मामला लटक रहा है। वह ‘फास्ट ट्रैक’ गया किधर? निर्भया की मां ने बताया कि किस तरह वह अदालतों में भटकती रहीं है। एक बार तीन महीने तो जज नहीं था। अब फिर याचिका राष्ट्रपति भवन में लम्बित है। एक बार अदालतें फैसला कर ले तो फिर राष्ट्रपति भवन के दखल की जरूरत क्या है? और राष्ट्रपति भी किसी मामले को दबा कर क्यों बैठे रहें? कई पूर्व राष्ट्रपति तो याचिकाएं पूरी अवधि दबा कर बैठै रहे कोई फैसला ही नहीं किया। इसका परिणाम है कि अपराधी समझते हैं कि आखिर में राष्ट्रपति भवन याचिका डाल देंगे और फाईल विभिन्न मंत्रालयों तथा राष्ट्रपति भवन के बीच चक्कर काटती रहेंगी। और यह नहीं कि अगर चाहे तो व्यवस्था चुस्ती से काम नहीं कर सकती। महाराष्ट्र में हम देख कर हटे हैं कि किस प्रकार रातोंरात गवर्नर, ग्रहमंत्रालय, प्रधानमंत्री के कार्यालय तथा राष्ट्रपति भवन ने मिल कर राष्ट्रपति राज हटा कर तड़के देवेन्द्र फडनवीस तथा अजीत पवार को शपथ दिलवा दी थी।
आंकड़े पेरशान करने वाले हैं। 2017 में महिलाओं से अपराध के साढ़े तीन लाख मामले दर्ज किए गए। हर 15 मिनट बाद यहां एक बलात्कार होता है। एनसीआरबी के अनुसार 2017 में बलात्कार के 85 प्रतिशत मामलों में आरोप पत्र तो दाखिल कर दिए गए लेकिन निचली अदालतों ने 13 प्रतिशत में ही फैसले दिए। और यह वह मामले हैं जो सार्वजनिक किए गए और जिनकी शिकायत पुलिस तक पहुंची थी। लोकलाज़ के डर से कितने मामले दबा दिए गए वह अलग है। बलात्कार के मामले को विशेष तौर पर पुलिस वाले हाथ नहीं लगाना चाहते। हैदराबाद पुलिस ने भी बलात्कार के बाद मामला दूसरे थाने पर फेंकने की कोशिश की थी। उन्नाव की पीड़िता आज जीवित होती अगर उसके अत्याचारियों को जमानत न मिलती। लडक़ी को जला कर मारने वाले 5 लोगों में से 2 को एक दिन पहले ही जमानत मिली थी। इन्होंने ही ने दिसम्बर, 2018 में इस महिला से बलात्कार किया था। 2013 में आपराधिक कानून को सख्त बनाते हुए इसके गैर जमानती बना दिया गया लेकिन इसके बावजूद बलात्कार के अपराधी जमानत पर बाहर आते रहें। यह कैसे हो गया? इसका अर्थ है कि पुलिस ने जमानत याचिका का विरोध नहीं किया। इसका अर्थ यह भी है कि जमानत देते वक्त न्यायाधीश ने भी कानून की अनदेखी की। इसी लिजलिज रवैये के कारण अपराधी अब कानून से डरते नहीं।
हैदराबाद तथा उन्नाव के मामलों में विशेष बर्बरता देखी गई। बलात्कार के बाद लडक़ी पर तेल छिडक़ कर उसे आग लगा दी गई। हैदराबाद की डाक्टर की हत्या करने वाले एक आरोपी ने बताया कि गैंगरेप के बाद लडक़ी के हाथ-पैर बांध दिए। उसे जबरन शराब पिलाई गई और जिस वक्त उसे जलाया गया वह जिंदा थी क्योंकि आग लगने पर वह चीख उठी थी और उसके बाद वह काफी देर तक महिला को जलते देखते रहे। ऐसे दरिंदे पुलिस एनकाऊंटर में मारे गए। अब पीड़िता का परिवार कह रहा है कि न्याय हो गया और उन्नाव में मारी गई लडक़ी का परिवार कह रहा है कि वहां भी एनकाऊंटर किया जाए। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का भी कहना है कि वह उत्तर प्रदेश की पुलिस से कहना चाहेंगी कि तेलंगाना पुलिस से सबक लें। अर्थात वह भी एनकाऊंटर चाहती है। इससे पहले संसद में जया बच्चन मांग कर चुकी है कि रेपिस्ट को ‘लिंच’ अर्थात पकड़-पकड़ कर मार दिया जाए।
एक सभ्य समाज में यह भावना सही नहीं है लेकिन समाज भी क्या करे अगर व्यवस्था भ्रष्ट, बेपरवाह तथा असंवेदनशील बन जाए और लोगों को इंसाफ न मिले? मेनका गांधी ने मुठभेड़ की घटना को भयानक कहा है और वह तो महिला कल्याण मंत्री रह चुकी हैं लेकिन लोक भावना का जो विस्फोट हुआ है उसे भी समझने की जरूरत है। कसाब मामले में वरिष्ठ वकील उज्जवल निगम का सही कहना है कि लोग समझते हैं कि कानून अंधा हो गया है। यह असली बात है। देश भर में इस एनकाऊंटर के बाद जो तसल्ली महसूस की गई वह लोगों की व्यवस्था की नाकामी तथा बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के प्रति हताशा तथा क्रोध का ही प्रकटन है। यह खुशी न्यायिक व्यवस्था के प्रति एक बेबस और लाचार समाज का अविश्वास भी प्रकट करती है।
कई लोग इसे तालिबानी इंसाफ कह रहें हैं। यह कथित बुद्धिजीवी समझते नहीं कि हर जगह उनका तर्क नहीं चलता। मानवाधिकार केवल अपराधियों के ही नहीं होते, जो उनके पीड़ित हैं उनके भी होते हैं। पंजाब में पुराने समय में डाकुओं की बड़ी समस्या पैदा हो गई थी उस वक्त की सरकार ने मुठभेड़ों के द्वारा इस समस्या को जड़ से खत्म कर दिया और आज तक पंजाब इससे मुक्त है। जब व्यवस्था अपने हाथ खडे़ कर ले तो लोग क्या करें? केरल से समाचार है कि बलात्कार के आरोपी को लोगों ने खूब पीटा। नगालैंड में दीमापुर में 7000 की भीड़ ने जेल तोड़ कर रेप के आरोपी को मार-मार कर उसकी हत्या कर दी। बाद में पता चला कि वह असली रेपिस्ट नहीं था। लोग समझते हैं कि हिंसा रेपिस्ट के दरवाज़े तक पहुंचनी चाहिए। उसे भी इस बात का अनुभव होना चाहिए कि भयभीत होना या मौत या सजा का सामना करना कैसा अनुभव हो सकता है। जहां तक हैदराबाद तथा उन्नाव की घटनाओं का संबंध है यह भी समझना चाहिए कि इनके लिए केवल लचर व्यवस्था ही नहीं समाज का पतन भी जिम्मेवार है। हमारे समाज की चूलें हिल चुकी हैं। यह अलग विषय है।
व्यवस्था पर से लोगों का उठता विश्वास हमारे लिए एक गंभीर मामला बनता जा रहा है। जहां बेटियों को रेप के बाद जलाया जा रहा है वहां समाज का अपना संतुलन खोना अस्वाभाविक नहीं है। समझने की जरूरत है कि यह भावना आ कहां से रही है। जो हुआ है वह इंतकाम है या इंसाफ? या इंतकाम ही इंसाफ है? इसका उत्तर मैं पीड़ित परिवारों पर छोड़ता हूं जिनमें से एक के मां-बाप का कहना है कि अब उनकी बेटी की आत्मा को शांति मिल गई होगी।
इंसाफ या इंतकाम? (Justice or Revenge?),