
हिजाब डालना एक प्रतिगामी, पीछे की तरफ लौटने वाली प्रथा है। कटटरवादी मुस्लिम घरों में बचपन से ही लड़कियों को बताया जाता है कि मज़हब में विश्वास के कारण उन्हे ख़ुद को ढकना है। इस मामले में उनकी अपनी राय का महत्व नही है, उन्हे सोचने ही नही दिया जाता। यही कारण है कि बड़े हो कर और पढ़ लिख कर कई मुस्लिम लड़कियाँ यह बंधन उतार फेंकती है जैसे हिन्दू समाज में घुंघट का रिवाज लगभग खत्म हो गया है। अगर मुस्लिम लड़कियों ने मुख्यधारा का हिस्सा बनना है तो उन्हे हिजाब जैसे बंधनों से ख़ुद को मुक्त करना है। कल को अगर कोई मुस्लिम लड़की पायलट बनना चाहती है या सैनिक स्कूल में पढ़ना चाहती है तो उसकी यह शर्त मानी नही जाएगी कि ‘मैं तो हिजाब डालूँगी’। सानिया मिर्ज़ा जब टैनिस खेलतीं है तो छोटी स्कर्ट डालटी है जिस पर कई कट्टरवादियों को आपति थी लेकिन उन्होने स्पष्ट कर दिया कि यह मेरा खेल है, मैं अपने मुताबिक़ खेलूँगी। इस देश में पहरावे समेत धार्मिक आज़ादी है। जब तक आप किसी और की आज़ादी का उल्लंघन नही करते आपको पूरा अधिकार है कि आप अपने मुताबिक़ अपना जीवन व्यतीत कर सकते है। पर शिक्षा संस्थाएँ अलग दायरे में आती है। यहां बराबरी सिखाई जाती है। यहाँ कुछ नियम है, अनुशासन है, जिनका पालन करना पड़ता है। यहाँ वह आज़ादी नही मिल सकती जो बाहर मिलती है इसलिए हिजाब को लेकर जो लड़कियाँ कर्नाटक और दूसरे प्रदेशों में प्रदर्शन कर रही है मैं समझता हूँ वह ग़लत रास्ते पर हैं या उन्हे गुमराह किया गया है।
दुनिया में कई देश है जिनमें फ़्रांस, डैनमार्क से लेकर चीन और श्रीलंका शामिल है जहाँ हिजाब पर पाबंदी है। फ़्रांस में तो हिजाब डालने पर जुर्माना है। दिलचस्प है कि मिस्त्र, सीरिया, कोसोवो, अज़रबाइजान, टर्की, ट्यूनिशिया, वह मुस्लिम बहुमत वाले देश हैं जहाँ स्कूलों, कालेजो, विश्वविद्यालयों या सरकारी इमारतों में हिजाब डालना या मुँह ढकने पर पाबन्दी है। इंडोनेशिया, मलेशिया, मोराक्को, मालदीव और सोमालिया में हिजाब डालना अनिवार्य नही है। ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में यह क़ानूनी तौर पर अनिवार्य है पर इन दोनो देशों में कटटरवादियो के नियंत्रण से पहले महिलाएँ आजाद घूमती थी यहां तक कि सकर्ट डालने पर भी कोई पाबंदी नही थी। जो कहते है कि महिलाएँ मर्ज़ी से यह डालती है उन्हे ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं की शोचनीय स्थिति को देखना चाहिए। अगर हमने वह नही बनना तो कट्टरवाद, चाहे उसका सम्बंध किसी भी धर्म से हो, से निजात पाना है। कट्टरवाद तरक़्क़ी का विपरीत है।
कई इस्लामी विद्वान कह रहें हैं कि क़ुरान महिलाओं के लिए लिबास निर्धारित नही करता। विज़डन फ़ाउन्डेशन की डायरेक्टर जीनत शौक़त अली लिखती हैं, “ बुर्क़ा, अबाया, निकाब शब्द क़ुरान में नही है…चाहे वस्त्रों की मर्यादा पर जोर दिया गया है पर मज़हब में कोई निर्धारित पोशाक नही है… हज़रत मुहम्मद साहिब ने पहरावे में मर्यादा और शालीनता पर बल दिया था पर यह सोचना कि उनके कहने का मतलब आज महिलाओं के लिए कोई बंद वर्दी है, उनके सुधारोँ का ग़लत मतलब निकालना है”। जावेद अख़तर का भी कहना है कि वह कभी भी बुर्क़ा या हिजाब के पक्ष में नही रहे। मौलाना आजाद उर्दू विश्वविद्यालय के पूर्व चॉसलर फिरोज बखत अहमद का कहना है, “ हर संस्था के अपने नियम होते हैं। एक स्कूल या कालेज में धार्मिक पहचान आप की निर्धारित पहचान नही होनी चाहिए…वह सब जो दरारें चौड़ी करने में लगे है उन्हे समझना चाहिए कि देश शरिया या सनातन धर्म के अनुसार नही बल्कि संविधान के अनुसार चलेगा”। वह एक मुस्लिम जज का ज़िक्र करते हैं जो घर में हिजाब डालती थी पर जब न्यायालय में पहुँचती थी तो उसे उतार देती थीं। जो महिलाएँ डाक्टर या पायलेट या अफ़सर बनती है वह कोई हिजाब नही डालती। केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद खान का कहना है कि इस्लाम के इतिहास में ऐसी कई मिसालें हैं जहाँ औरतों ने हिजाब डालने से इंकार कर दिया था। उनका मानना है कि यह मुस्लिम महिलाओं को घर की चारदीवारी में बंद करने की साजिश है। हमारी राजनीति में चाहे उनकी संख्या कम है, पर जो भी मुस्लिम महिलाऐं है वह कोई भी हिजाब नही डालती। महिला अधिकारों के लिए सक्रिय जाकिया सोमन का कहना है कि “ बहुत प्रमाण है कि हिजाब इस्लाम में जरूरी नही… यह आधुनिक घटना है। हमारी दादियाँ या नानियाँ यह नही डालती थीं”।
विवाद कर्नाटक के उडुपी के कालेज से शुरू हुआ है जहाँ आधा दर्जन लड़कियाँ अचानक एक दिन हिजाब डाल पढ़ाई के लिए कालेज पहुँच गईं जहाँ उन्हे रोका गया। इस सरकारी जूनियर कालेज में 100 से अधिक मुस्लिम लड़कियाँ पढ़ रही है जो अधिकतर हिजाब या बुर्क़ा पहन कर कालेज आती है पर कक्षा में जाने से पहले उसे उतार देती हैं। पर अचानक एक दिन इन छ: लड़कियों ने हिजाब उतारने से इंकार कर दिया और उनकी प्रिंसिपल और प्रबंधन से बहस भी हुई। बताया जाता है कि मामला सुलझ गया था कि राजनीति ने एंट्री कर ली। कुछ छात्र संगठन इसमें कूद पड़े और आख़िर में हमने देखा कि भगवा गमझा डाले कुछ लड़कों ने इन लड़कियों का विरोध करना शुरू कर दिया और प्रशासन तमाशा देखता रहा। और देखते देखते यह आग कर्नाटक के 20 जिंलों में और फिर देश के कई कोने तक पहुँच गई। जो मामला एक कालेज तक सीमित किया जा सकता था वह कर्नाटक सरकार की अक्षमता और बेकारी के कारण चारों तरफ फैल गया। वह कर्नाटक जो आईटी का हब है और जो प्रतिभाशाली नौजवानों की मंज़िल है, अब दुनिया भर की हैडलाइन में आगया कि यहां कपड़ों को लेकर युवाओं के दो वर्गों में उग्र टकराव हो रहा है। अब वह सरकार बहाने बना रही है। आईएसआई से लेकर खालिस्तानियों पर आरोप लगाए जा रहे हैं। अगर यह बात सही है तो आप उस वक़्त हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहे जब मामला पहले उठा था? एक वीडियो में एक आदमी को लड़कों को भगवा गमछे बाँटते देखा गया है। यह कौन शख़्स था जो टकराव की तैयारी करवा रहा था? अगर यह विदेशी साजिश है तो जो टकराव करवाने में व्यस्त थे वह सब भी तो उसी का हिस्सा हैं। यह भी स्पष्ट है कि अगर लड़के विरोध नही करते तो मामला इतना न भड़कता। क्या राजनीतिक कारणों से इसे भड़कने दिया गया? हमने वह वीडियो भी देखा है जहाँ अकेली बुर्का डाले लड़की मुस्कान का दर्जनों लड़कों ने विरोध किया। ऐसी बेहूदगी की इजाज़त क्यों दी गई?
इस मामले का एक दिलचस्प पहलू है कि जो ख़ुद को लिबरल कहतें हैं वह शिक्षा संस्थाओं में हिजाब का समर्थन कर रहें है! भाजपा विरोध में अंधे हो कर वह कट्टरवाद का पक्ष ले रहें हैं। यह लोग एक तरफ महिला सशक्तिकरण की बात करतें है पर अब हिजाब जैसी बंदिश का समर्थन कर रहे हैं। हैरानी है इन्हें इसमें कोई विरोधाभास नजर नही आता। जो ‘जैंडर इकवालिटी’ अर्थात लैंगिक समानता की बात करतें हैं वह हिजाब का कैसे समर्थन कर सकते हैं? प्रियंका गांधी का कहना है कि यह महिला का अधिकार है कि वह हिजाब डाले या जीन्स डाले या घुंघट डाले या बिकिनी पहने। पर इस अधिकार पर तो कोई सवाल नही कर रहा। सवाल स्कूलों में हिजाब पहनने का है। यहां जीन्स या घुंघट या बिकिनी का तो सवाल ही नही। बाहर तो हम एक भगवा वस्त्र डाले सीएम को रोज़ाना सक्रिय देखते है। सार्वजनिक जीवन में ऐसी कोई पाबंदी नही। हज़ारों नागा साधु कुम्भ के दौरान गंगा स्नान करते हैं, निहंग सिख अपनी विशेष पोशाक डालतें हैं। ऐसे में अगर कोई मुस्लिम महिला हिजाब डाले या बुर्क़ा डाले तो आपति क्यों हो? ए आर रहमान की एक बेटी बुर्का डालती है तो दूसरी बिलकुल मार्डन है और इनसे बहुत दूर है। यह व्यक्तिगत आज़ादी का मामला है। हम यहाँ वह पाबन्दियाँ नही लगा सकते जो फ़्रांस में लगी है या चीन में लगी है। राजस्थान में अभी भी कई महिलाऐं घुंघट रखती है चाहे शिक्षा के प्रसार के कारण यह प्रथा लगभग लुप्त हो गई है।
आशा है कि बुर्का और हिजाब जैसे प्रथाएँ भी धीरे धीरे स्वेच्छा से खत्म हो जाऐंगी। जो हज़ारों साल पहले अरब देशों में शुरू हुई थी उसकी आधुनिक समाज में जगह नही होनी चाहिए। हमे अफ़ग़ानिस्तान या ईरान नही बनना। लेकिन शिक्षा संस्थाओं में रोकना सरकार का या प्रबंधन का काम है। जिन्होने उत्तेजना देकर लड़कों को विरोध में खड़े किया और टकराव करवाया वह देश में अशान्ति फैलाने के दोषी है। यहाँ मौरल पुलिस की कोई जगह नही होनी चाहिए। किसी को अधिकार नही कि वह हिजाब डाले लड़कियों को रोके या सड़क पर नमाज़ पढने वालो को रोके। अगर नियमों का उल्लंघन है तो रोकना प्रशासन का काम है। अगर हर कोई क़ानून हाथ में लेने लगा तो अराजक स्थिति पैदा हो जाएगी। और एक अकेली लड़की को घेरने की कोशिश गुंडागर्दी से कम नही। कर्नाटक हाईकोर्ट कक्षाओं में धार्मिक पहरावे, हिजाब या भगवा गमछे, पर पाबंदी लगा चुका है। माननीय अदालत का रहना है कि प्रबन्धन ने जो ड्रेस कोड निर्धारित की है उसका पालन होना चाहिए। मद्रास हाईकोर्ट ने देश में धार्मिक सद्भाव बिगाड़ने की प्रवृति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सवाल किया है कि राष्ट्र सर्वोपरि है या धर्म ? हिजाब डालना चाहे प्रतीगामी प्रथा है पर यह फिर भी व्यक्तिगत इच्छा का मामला है पर शिक्षा संस्थाओं के अपने अलग नियम है। इनका पालन होना चाहिए। न्यायालय अब फ़ैसला करेगा आशा है उसके बाद इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम का अंत हो जाएगा।