वह एक अद्भुत क्षण होगा जब 25 जुलाई 2022 को द्रौपदी मुर्मू देश के राष्ट्रपति का पद सम्भालेंगी। चाहे यशवंत सिन्हा मुक़ाबला कर रहें हैं पर यह प्रतीकात्मक ही है क्योंकि बहुमत दूसरी तरफ़ है। द्रौपदी मुर्मू का झोंपड़ी से 500 कमरों वाले राष्ट्रपति भवन का सफ़र हमारे लोकतंत्र का जश्न है कि एक आदिवासी महिला जिसने दुनिया भर का अन्याय सहा, अत्यन्त ग़रीबी देखी, समाज का तिरस्कार सहा, निजी त्रासदी सही, वह देश की प्रथम नागरिक बनने जा रही हैं। उड़ीसा में मयूरभंज में उनके गाँव बैदापोसी में तो बिजली के खम्बे अब लगने शुरू हुए हैं। वह गाँव हर सुविधा से वंचित है। राष्ट्रपति बनने के बारे उन्होंने स्वयं कहा है, “हम जिस समुदाय से आते हैं वहाँ कोई यह सपना भी नहीं देख सकता”। यह सपना केवल उनका ही नहीं, सारे देश का साकार हो रहा है। सुखद अहसास है कि इस देश में अभी भी बहुत कुछ सही है। देश में 10 करोड़ आदिवासी है। 700 ऐसी जनजातीय हैं जो जनसंख्या का 8 प्रतिशत है। आदिवासी लोग देश की विकास गाथा के हाशिए पर हैं। इनमें से बहुत हैं जिन्हें अभी भी शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त करने के लिए बहुत सी बाधाएँ पार करनी पड़ती है। इज़्ज़त की ज़िन्दगी जीना भी समस्या है। द्रौपदी मुर्मू का चयन कर भाजपा यह संदेश दे रही है कि जहां विपक्ष अभी भी पुराने स्टाइल की राजनीति कर रहा है, वह पिछड़े वर्गों को आगे लाने की कोशिश कर रहें हैं। जिन्होंने उन्हें चुना है उनकी सोच मुबारक !
लेकिन द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना भाजपा की राजनीति से भी बड़ा है। यह संकेत है कि हमारे लोकतंत्र में खुद को सही करने की क्षमता है। अहसास है कि लुटियंस की दिल्ली ही भारत नहीं है। एक आदिवासी महिला का राष्ट्रपति बनना शानदार है। ठीक है उनका वह अनुभव नहीं जो यशवंत सिंन्हा का है पर उनकी ज़िन्दगी की कहानी खुद बेहद प्रेरणादायी है। वह अत्यंत पिछड़े संथाल समाज से आती हैं। छोटी सी नौकरी मिल गई पर ससुराल वालों के कहने पर छोड़नी पड़ी। दिल नहीं लगा तो बच्चों को मुफ़्त पढ़ाना शुरू कर दिया। फिर काउंसलर, विधायक, मंत्री और राज्यपाल बनीं। 2009 में चुनाव हारने के बाद गाँव आ गई। इस बीच एक बेटे की दुर्घटना में मौत हो गई। इससे कुछ सम्भाली ही थी कि 2013 में दूसरे बेटे की भी दुर्घटना में ही मौत हो गई। अगले साल पति को भी खो दिया। वह बताती हैं कि वह इतनी टूट गईं थी कि डिप्रेशन में चली गईं। फिर खुद को सम्भाला और समाज सेवा में झोंक दिया। अब वह इतिहास बनाने जा रही हैं। इससे महिला और आदिवासी सशक्तिकरण को बल मिलेगा। आशा है उनकी असाधारण और दमदार ज़िन्दगी की कहानी हमारी स्कूली किताबों का हिस्सा बनेगी। दूसरी तरफ़ विपक्ष में अनिश्चितता और अविश्वास है। यशवंत सिन्हा से पहले शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और गोपालकृष्ण गांधी इंकार कर चुकें थे। जिस विपक्ष को राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने में इतनी जद्दोजहद करनी पड़ी वह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा का कैसे मुक़ाबला करेगा? पर यह अलग बात है।
राष्ट्रपति के अधिकारों और प्रधानमंत्री के साथ उनके रिश्ते को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। 1975-1977 एमरजैंसी के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा पास करवाए गए 42वें संशोधन द्वारा राष्ट्रपति को मंत्रीमंडल की सलाह पर चलना ज़रूरी हो गया है। उन्हें मंत्रीमंडल की सलाह पर चलना है, पर कोई उन्हें सलाह देने से नहीं रोक सकता। और उनकी सलाह का वजन है। यह दिलचस्प है कि बाद में जनता सरकार ने इंदिरा गांधी के कई ग़लत क़ानून रद्द कर दिए थे, पर राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित करते संशोधन को रद्द नहीं किया गया। पर राष्ट्रपति रबर स्टैम्प नहीं है। उनकी शपथ ही उन्हें विशिष्ट बनाती है। जहां मंत्री और सांसद ‘भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा’ की शपथ लेतें है राष्ट्रपति, और केवल राष्ट्रपति, ‘संविधान और विधि के परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण’ की शपथ लेते हैं। अर्थात् बाक़ी उस संविधान की शपथ लेते हैं जिससे संरक्षक राष्ट्रपति हैं। लेकिन राष्ट्रपति की वह शक्ति नहीं जो अमेरिका या फ़्रांस के राष्ट्रपति की है। संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर बहुत बहस की थी। अम्बेडकर के अनुसार भारत के संविधान में राष्ट्रपति की स्थिति इंग्लैंड के किंग जैसी हैं। उनके अनुसार राष्ट्रपति ‘राष्ट्राध्यक्ष है पर कार्यपालिका के अध्यक्ष नहीं है।वह देश के प्रतीक हैं पर देश पर शासन नही करते’। इंग्लैंड के महाराजा/महारानी की तरह सरकार राष्ट्रपति के नाम से चलती है पर निर्णय वह नहीं लेते। निर्णय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्यपालिका लेती है। राष्ट्रपति सत्ता के स्रोत हैं पर सत्ता उनके हाथ में नहीं होती। संविधान ने उन्हें एक प्रकार से अभिभावक का दर्जा दिया है जो सरकार, विशेष तौर पर प्रधानमंत्री, का फ्रैंड, फिलौसफर एंड गाइड अर्थात् मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक हो।
इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के रिश्ते मधुर हों और दूसरा, राष्ट्रपति का स्तर ऐसा हो कि प्रधानमंत्री उनकी बात को गम्भीरता से सुने। अगर उन्हें लगे कि सरकार संविधान सम्मत नहीं चल रही तो प्रधानमंत्री को अपनी बेबाक़ राय से अवगत करवाएँ, चाहे उनकी राय पसंद की जाए या न। मंत्रीमंडल राष्ट्रपति की सलाह मानने के लिए मजबूर नहीं है पर राष्ट्रपति की सलाह देने पर तो कोई रोक नहीं है। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से नियमित मिलते और सलाह मशविरा करते थे। मुलाक़ात पर बाक़ायदा प्रेस नोट जारी किया जाता था। इस परम्परा को उस वकत धक्का लगा जब राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के रिश्तों में भारी कड़वाहट आगई और यह पूछे जाने पर कि उन्होंने राष्ट्रपति को नियमित मिलने की परम्परा क्यों बंद कर दी, राजीव गांधी का लापरवाह जवाब था कि ‘मैंने कई परम्पराऐं तोड़ी है’। दोनों में रिश्ते इतने गिर गए कि 1987 में राष्ट्रपति ज़ैलसिंह प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बर्खास्त करने की तैयारी कर रहे थे जबकि प्रधानमंत्री के पास लोकसभा में 414 का भारी बहुमत था। जैलसिंह ने उपराष्ट्रपति आर वैंकटरामन को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की थी पर वेंकटरामन ने इंकार कर दिया था। वी पी सिंह को भी पेशकश की गई उन्होंने भी इंकार कर दिया। जैलसिंह को भी संदेश मिल गया कि वह जो करना चाहते हैं उसे देश पसंद नहीं करेगा इसलिए कदम वापिस ले लिया। देश संवैधानिक संकट से बच गया लेकिन दोनों के रिश्ते अंत तक कड़वे रहे।
मतभेदों के बावजूद रिश्ते को कैसे सम्भालना है, यह पहले राष्ट्रपति और पहले प्रधानमंत्री बता गए। दोनों का लालन पालन ही अलग था। नेहरू किसी युवराज से कम नहीं थे और उन पर समाजवादी असर बहुत था, जबकि राजेन्द्र प्रसाद अधिक अनुदार थे। नेहरू की जीवनी के एक लेखक एस गोपाल ने तो राजेन्द्र प्रसाद के बारे लिखा था कि वह ‘ मध्य युग में फँसे हुए हैं’। यह परिभाषा अनुचित थी पर दोनों में हिन्दू कोड बिल और सोमनाथ मंदिर को लेकर गंभीर मतभेद थे। 1951 में राष्ट्रपति प्रसाद से अनुरोध किया गया कि वह नव पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करें। इसे अंतिम बार औरंगजेब ने तोड़ा था। अढ़ाई शताब्दी यह खंडहर की तरह पड़ा रहा। सितम्बर 1947 में सरदार पटेल ने यहाँ का दौरा किया और इसके नव निर्माण का वायदा किया और यह ज़िम्मेवारी के एम मुंशी को सौंपी गई। गांधी जी को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी वह केवल यह चाहते थे कि नव निर्माण पर सरकारी पैसा ख़र्च न किया जाए। जो नही किया गया। पर जब खुद राष्ट्रपति प्रसाद वहां जाने के लिए तैयार हो गए तो प्रधानमंत्री नेहरू को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने राष्ट्रपति को पत्र लिखा कि बेहतर होगा कि वह इस उद्घाटन समारोह में शामिल न हों पर राष्ट्रपति ने उनकी सलाह की उपेक्षा कर दी। वह वहाँ गए पर उन्होंने सोमनाथ मंदिर परिसर में जो भाषण दिया वह आज भी प्रासंगिक है कि ‘धार्मिक असहिष्णुता केवल नफ़रत और दुराचार पैदा करती है’।
उल्लेखनीय है कि राजेन्द्र बाबू को पहले चुनाव में 83 प्रतिशत और दूसरे चुनाव में 99 प्रतिशत वोट मिले थे।
मतभेद के बावजूद दोनों जानते थे कि उन्होंने भविष्य के लिए स्वस्थ परम्परा क़ायम करनी है। राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच दोस्ताना सम्बंध रहे। दोनों में दर्शन और धर्म पर खूब चर्चा होती थी पर राष्ट्रपति सरकार की आलोचना से कतराते नहीं थे। उन्होंने बढ़ती महंगाई पर सरकार की आलोचना की थी। नेहरू की चीन नीति से भी वह असंतुष्ट थे। उन्होंने चीन के प्रति नेहरू के ‘सहज विश्वास’ और ‘लापरवाही’ की सार्वजनिक आलोचना की थी जिस पर नेहरू को मानना पड़ा था कि ‘ हम आधुनिक दुनिया की हक़ीक़त से दूर चले गए थे और अपने बनाए बनावटी माहौल में जी रहे थे’। मुझे मालूम नहीं कि इसमें कितनी सच्चाई है पर राष्ट्रपति भवन के पूर्व सुरक्षा अधिकारी मेजर सीएल दत्ता के अनुसार राष्ट्रपति राधाकृष्णन और कांग्रेस अध्यक्ष के.कामराज नेहरू को रिटायर करने के फ़ार्मूले पर भी विचार कर रहे थे। शंकर दयाल शर्मा ने 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने की आलोचना की थी जबकि आर.वैंकटरामन ने वी पी सिंह, चन्द्रशेखर और पी वी नरसिम्हा राव, की अस्थिर सरकारों को सम्भाला था। तीन राष्ट्रपति मुसलमान हुए हैं। लोकप्रियता में एपीजे कलाम का भी मुक़ाबला नहीं। वह आम आदमी के प्रतिनिधि थे लेकिन उन्होंने भी स्वीकार किया था कि यूपीए सरकार के साथ तीन साल उनके रिश्ते अशांत रहे थे। एकमात्र बदनाम राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद रहें हैं जिन्होंने बिना आपत्ति किए या क़ानूनी सलाह लिए जून 25 1975 की आँधी रात को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफ़ारिश पर बेरहम एमरजैंसी घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए और पूरे देश को कारागार में तब्दील कर दिया। मंत्रीमंडल की सहमति भी अगले दिन ली गई।यह एमरजैंसी दोनों तत्कालीन राष्ट्रपति और तत्कालीन प्रधानमंत्री कि प्रतिष्ठा पर कलंक रहेगा।
बहरहाल अगले महीने देश को नया राष्ट्रपति मिल जाएगा। राष्ट्रपति केवल संविधान के संरक्षक ही नहीं, वह सशस्त्र सेनाओं के कमांडर इन चीफ़ तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के विज़िटर भी है। उनकी ज़िम्मेवारी है कि विभिन्न संस्थाऐं सही काम करें और उनके बीच समन्वय हो। वह रबर स्टैम्प नहीं है पर वह प्रधानमंत्री के वैकल्पिक सत्ता केन्द्र भी नहीं बनने चाहिए। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच समरसतापूर्ण रिश्ते होने चाहिए। जिस इज़्ज़त के साथ द्रौपदी मुर्मू को इस सर्वोच्च पद के लिए मनोनीत किया गया उसे देखते तो विश्वास है कि दोनों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच सहयोग पूर्ण सम्बंध रहेंगे। द्रौपदी मुर्मू देश की 15वीं राष्ट्रपति की शपथ ग्रहण करेंगी। वह सचमुच आज़ादी का अमृत महोत्सव होगा।