
मार्च 1985 की बात है। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के चुनाव में अच्छा बहुमत प्राप्त किया था। जीत की ख़ुशी में वह प्रधानमंत्री राजीव गाँधी से मिलने गए यह सोचते हुए कि शाबाश मिलेगी। पर उल्टा राजीव गांधी ने यह कहते हुए कि पंजाब की स्थिति अच्छी नहीं आप जैसे योग्य व्यक्ति की वहाँ ज़रूरत है, उन्हें राज्यपाल बना कर पंजाब भेज दिया। उनकी जगह मोतीलाल वोरा को मध्य प्रदेश का सीएम बना दिया गया। अनिच्छुक और अप्रसन्न अर्जुन सिंह को पंजाब जाना पड़ा जहां उन्होंने बड़ी मुश्किल से आठ महीने काटे थे। तब ही दिल्ली के एक प्रभावशाली मित्र ने समझाया था कि दिल्ली वाले अपने मुताबिक़ चलते हैं,किसी की ज़्यादा परवाह नहीं करते। जो हाल महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस का बना है उससे यह पुराना प्रसंग याद आ गया। उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने और मुम्बई-सूरत-गुआहाटी-गोवा-मुम्बई फ़्लाइट तमाशे के सूत्रधार वह थे। जब सरकार अपना बहुमत खो बैठी तो फडणवीस भी समझ बैठे कि अब उनकी ताजपोशी होने वाली है आख़िर अढ़ाई साल से वह खुद को महाराष्ट्र का बेताज बादशाह समझते रहें हैं। लेकिन राजनीति ने ऐसी करवट ली कि ताज उन एकनाथ शिंदे के सर रख दिया गया जो देवेन्द्र फडणवीस के मंत्रीमंडल में मंत्री थे और कड़वा घूँट पी कर फडणवीस को उनका डिप्टी बनना पड़ा। बधाई के जो लड्डू खाए थे वह कड़वे पड़ गए।
फडणवीस की यह हालत क्यों बनी कि सार्वजनिक तौर पर पार्टी अध्यक्ष ने उन्हें डिप्टी सीएम बनने का आदेश दे दिया? एक कारण तो यह है कि फडणवीस बहुत महत्वाकांक्षी बन गए थे इसलिए पर कतर दिए गए। 2019 चुनाव से पहले उनके समर्थकों ने यह नारा लगाया था, ‘नरेन्द्र के बाद दवेन्द्र’। महाराष्ट्र जैसे अमीर और महत्वपूर्ण प्रदेश के मुख्यमंत्री का अपना महत्व है। कांग्रेस के प्रथम परिवार के भी महाराष्ट्र के नेताओं के साथ असुखद सम्बंध रहे हैं। इंदिरा गांधी ने लोकप्रिय यशवंतराव चव्हाण को एक तरफ़ लगा दिया था तो बाद में शरद पवार को पार्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। अब दवेंन्द्र फडणवीस को उनकी जगह दिखा दी गई। आप खुद को कितना भी शक्तिशाली समझो दिल्ली वाले आपसे भी अधिक शक्तिशाली हैं! लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा की राजनीति दवेन्द्र फडणवीस की स्थिति से बड़ी है। नज़रें 2014 के आम चुनाव और वहाँ की 48 सीटों पर हैं। ‘मराठी मानुष’ को साधने और उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति को बेअसर करने के लिए शिवसेना की शाखा से उभरे पूर्व ओटो रिक्शा चालक एकनाथ शिंदे को गद्दी पर बैठा दिया गया। बालासाहेब ठाकरे की विरासत महाराष्ट्र में भाजपा के विस्तार में बड़ा रोड़ा था। राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण भाजपा मराठी अस्मिता की राजनीति नहीं कर सकती थी। इसका मुक़ाबला करने कि लिए देवेन्द्र फडणवीस जिनकी ब्राह्मण जाति के केवल 3 प्रतिशत लोग है, सही नहीं थे। महाराष्ट्र में मराठा समाज 33 प्रतिशत है, केवल मुम्बई में ही मराठा जनसंख्या 30-35 प्रतिशत हैं । इसलिए मराठा शिंदे को वरीयता दी गई। आगे एशिया के सबसे अमीर नगर निगम बृहन्मुम्बई जिसका 40000 करोड़ रुपये का बजट है के भी चुनाव है। इस पर 25 साल से शिवसेना का क़ब्ज़ा है। अक्तूबर में 20 अमीर नगर निगम, 25 ज़िला परिषद और 210 नगर परिषदों के चुनाव है। भाजपा की कोशिश इन पर क़ब्ज़ा करने की होगी।
महाराष्ट्र के अक्तूबर 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। 288 के सदन में भाजपा के पास 105 विधायक थे जबकि शिवसेना बहुत पीछे 56 पर थी। राजनीतिक लालच और अवसरवादिता दिखाते हुए शिवसेना ने यह ज़िद्द पकड़ ली थी कि मुख्यमंत्री बारी बारी बने। आधा समय भाजपा का और आधा समय शिवसेना का। इस माँग का कोई औचित्य नहीं था। भाजपा ने सही इस माँग को मानने से इंकार दिया और हिन्दुत्व की विचारधारा को त्यागते हुए शिवसेना ने उस कांग्रेस और उस एनसीपी से गठबंधन कर लिया जिनके साथ सत्ता के लालच के अतिरिक्त कुछ भी साँझा नहीं था। उद्धव ठाकरे ने महाविकास अघाड़ी गठबंधन बना कर जनादेश की धज्जियां उड़ा दी। निर्लज्ज राजनीतिक बेईमानी की ऐसी कम मिसाल मिलेगी कि सत्ता के लिए मूल विचारधारा की ही तिलांजलि दे दी गई। कांग्रेस और शरद पवार को फ़ायदा हुआ कि कुछ देर सबसे समृद्ध प्रदेश में वह सत्ता में भागीदार रहे पर ठाकरे परिवार का तो नुक़सान हुआ। अब अगर वह कहें कि उनके साथ ग़द्दारी हुई है तो परम्परा तो उन्होंने ने ही डाली थी।
वैचारिक भ्रम ने उन्हें पतन तक पहुँचा दिया है। उद्धव ठाककरे ने खुद शिवसेना के विचार को कमजोर कर दिया और भाजपा का खेल बना दिया। बालासाहेब ठाकरे ने इसे विशेष बनाया था उद्धव ठाकरे ने इसे सामान्य अवसरवादी राजनीतिक दल बना दिया। अपने देहांत से पहले बालासाहेब ठाकरे ने मुम्बई के प्रसिद्ध शिवाजी पार्क में एक विशाल सभा को सम्बोधित किया था जहां उन्होंने अपने शिवसैनिकों से कहा था कि मृत्यु के बाद उनके पुत्र उद्धव और पौत्र आदित्य का वह ध्यान रखें। शिवसैनिक अभी भी बालठाकरे की याद से जुड़ें हैं पर जैसा मुम्बई के सबसे प्रसिद्ध वरिष्ठ नागरिकों में से एक जूलियो रिबेरो, ने भी लिखा है, ‘ उद्धव बालासाहब नही है’। दोनों का स्टाइल ही अलग है। बालासाहब उग्र थे और कई बार मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को पार कर जाते थे। बहुत लोग उनके साथ इसलिए जुड़े हुए थे क्योंकि वह अपने लोगों का बचाव करते थे चाहे वह कानून को अपने हाथ में ले लेते। एकनाथ शिंदे पर ही 18 मामले हैं। ऐसे लोगों का बचाव किया जाता था। शिवसेना ने कभी दक्षिण भारतीयों को खिलाफ तो कभी उत्तर भारतीयों के खिलाफ उत्पात मचाया था। ग़रीब ओटो रिक्शा चालकों तक पर हमले हो चुकें हैं। नगर निगमों पर शिवसेना के नियंत्रण के कारण बहुत कार्यकर्ताओं की वहां से रोज़ी रोटी चलती थी। अब यह सब बंद होने का ख़तरा है। उद्धव ठाकरे न वैसे उग्र है और न ही वह वैचारिक स्पष्टता है, न हीं लड़ने की वह क्षमता है। बताया तो यह जाता है कि वह तो सीएम बनना ही नहीं चाहते थे पर पारिवारिक दबाव में तैयार हो गए। पिता की ही तरह उनकी भी इच्छा है कि पुत्र आदित्य उनका उत्तराधिकारी बने। पर देश बदल चुका है। वंश पर टिकी सत्ता अब लड़खड़ा रही है।
शिवसेना का वही हश्र हो रहा है जो पंजाब में अकाली दल का हुआ है। अकाली दल भी एक आन्दोलन था पर एक परिवार के इर्द गिर्द सिमट कर रह गया। सत्ता के लिए पार्टी की पंथक विचार धारा को नरम करते हुए भाजपा के साथ समझौता कर लिया गया। इससे पंजाब का फ़ायदा हुआ और प्रदेश उग्रवाद से उभर सका पर परिवारवाद और सैद्धांतिक समझौतों से अकाली दल अपना आधार खोता गया और हाल के संगरूर लोकसभा उपचुनाव में चौथे नम्बर पर रहे। उद्धव ठाकरे ने भी सत्ता के लिए जो समझौते किए वह अब उनकी मुश्किल बढ़ा रहे हैं। यह समझौता कितना अवसरवादी हैं यह इस बात से पता चलता है कि शिवसेना सावरकर को ‘वीर’ मानती हैं जबकि सहयोगी कांग्रेस का कहना है कि उन्होंने माफ़ी माँगी थी। बाबरी मस्जिद गिराए जाने की घटना को लेकर भी मतभेद हैं। शरद पवार की दक्ष राजनीति के कारण यह सब ढका रहा है पर जब एकनाथ शिंदे यह कहें कि वह वास्तव में शिवसेना है क्योंकि वह हिन्दुत्व का समर्थन करते हैं, तो कार्यकर्ता सोचने पर मजबूर हो जाता है। यह भी याद रखना चाहिए कि शिवसेना ही महाराष्ट्र नहीं है। बड़े शहरों में समर्थन जरूर है पर विधानसभा चुनाव में तो 56 विधायक ही जीत सके। वह एनसीपी और कांग्रेस के बराबर की पार्टी है, भाजपा की नही।
बहुत कुछ उद्धव और आदित्य ठाकरे पर निर्भर करता है कि उनमें स्ट्रीट फाइट का दम है या नहीं? उद्धव ठाकरे की न वह सेहत है न टकराव लेने का स्टैमिना ही नज़र आता हैं। अगर परिवार में से किसी ने सड़कों पर धक्के खाने है तो यह आदित्य ही हो सकतें हैं। उद्धव फ़िल्मी भाषा में ज़रूर कह रहें हैं कि ‘मेरे पास शिवसेना है’, पर यह तो भविष्य ही बताएगा कि कितनी शिवसेना उनके पास बची है ? अगर वह शिवसेना को दक्षिण भारत की तरह एक प्रादेशिक पार्टी में बदलने में सफल रहे तो बच जाएँगे, नहीं तो भाजपा निगल जाएगी। शिवसेना के हश्र से उन सब पार्टियों को सचेत हो जाना चाहिए जो एक परिवार पर केन्द्रित है। भाजपा ने हैदराबाद (भाग्यनगर ?) से टीआरएस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वहाँ भी मुख्यमंत्री केसीआर अपने पुत्र को सीएम बना कर खुद राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करना चाहते हैं। यही कारण है कि वह देश भर के मीडिया में बड़े बड़े विज्ञापन दे रहें हैं। पर सब कुछ इच्छा पर ही निर्भर नहीं करता।
आख़िर में महाराष्ट्र की राजनीति क्या करवट लेती है, एकनाथ शिंदे की हुकूमत कितनी स्थाई रहती है, ठाकरे ब्रैंड का क्या बनता है, भाजपा कितनी सफल होती है, क़ानूनी लड़ाई का क्या बनता है, यह समय ही बताएगा पर हमारी राजनीति कितनी घटिया और कमीनी बन चुकी है यह प्रकरण बता गया है। विधायकों को पहले सूरत ले ज़ाया गया।फिर वहाँ से रात के अंधेरे में दूर गुवाहाटी पहुँचा कर कई दिन फ़ाईव स्टार होटल में रखा गया। चार्टर फ़्लाइट इधर उधर घूमती रहीं। वह उस असम में मौज-मस्ती करते रहे जो तीन चौथाई पानी में डूबा हुआ था और लोगों में हाहाकार मची हुई थी। उस समय मुस्कुराते शिवसेना के बाग़ी विधायकों के चित्र देख कर घृणा हो रही थी। कुछ तो टेबल पर नाचने लगे थे। बिलकुल आभास नहीं था कि आसपास कैसी विपत्ति है? वापिस भी उन्हें सीधा मुम्बई लाने की जगह पहले गोवा लाया गया। किसका डर था? वह तब तक मुम्बई नहीं लौटे जब तक शिंदे ने शपथ नहीं ले ली। किसने मनी-पावर का इस्तेमाल किया? किसने जहाज़ और होटल का खर्चा उठाया? यह सामान्य हो गया है कि नाज़ुक राजनीतिक स्थिति में विभिन्न राजनीतिक दल अपने विधायकों को भेड़ बकरी की तरह हांक कर होटलों और रिसॉर्ट्स में बंद कर देते हैं। हमारे देश में दुनिया भर के क़ानून है पर अगर राजनीतिक वर्ग इन्हें निष्प्रभावी बनाना चाहे तो क़ानून क्या कर सकता है? दल बदल क़ानून ही अशक्त बन गया है। अनेक बार देखा गया है कि गवर्नर और स्पीकर भी इस क़ानून को कमजोर कर देते हैं। अदालतें भी बेबस नज़र आती हैं।