जिस दिन अप्रैल 2019 को कर्नाटक में कोलार की एक सभा में राहुल गांधी ने यह कहा था कि, “ नीरव मोदी, ललित मोदी, नरेन्द्र मोदी, का सरनेम कॉमन क्यों है? सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है”, तब ही स्पष्ट हो गया था कि इस कथन की क़ीमत एक न एक दिन चुकानी पड़ेगी। उनके समर्थक लाख कहें कि ‘ यह नहीं कहा कि सारे मोदी चोर है, यह कहा है कि सारे चोर मोदी है’, पर जो राहुल गांधी ने कहा उसका अभिप्राय तो साफ़ है। राजनीति में आलोचना की जगह है पर यह तो एक समुदाय को सीधी गाली है। अब उनका कहना है कि “मैं डरने वाला नहीं, न माफ़ी माँगूँगा क्योंकि मेरा नाम सावरकर नहीं है”। यह तो अच्छी बात है कि वह डरने वाले नहीं पर बार बार यह दोहराने की भी क्या ज़रूरत है? और सावरकर को बीच में घसीटने की क्या ज़रूरत थी? आपने अनावश्यक उद्धव ठाकरे को नाराज़ कर लिया। पर ऐसे राहुल गांधी है। कई बार सोच विचार कर बोलने की ज़रूरत नहीं समझते। अगर 27 सितंबर 2013 को वह जोश में आकर पत्रकार सम्मेलन में अपनी ही सरकार का अध्यादेश न फाड़ते जो सजायाफ्ता नेताओं को राहत देता था, तो आज उनकी सदस्यता न जाती। पर उस समय तो उत्तेजित राहुल गांधी ने इसे बकवास कहते हुए रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक़ बताया। बहादुरी ठीक है, स्टैमिना भी है जो वह भारत जोड़ों यात्रा में दिखा चुके है, संकल्प भी है, पर इसके साथ विवेक की भी ज़रूरत है जिसका अभाव कई बार आवेश में आकर राहुल प्रदर्शित कर चुकें हैं। जैसे कहा गया है,
ज़माना बेअदब है,बेवफा है, बेसलीका है
मगर उलफत में हमने भी तो कुछ नादानियाँ की हैं!
इतना लिखने के बाद मैं ज़रूर कहना चाहूँगा कि जो सजा उन्हें दी गई है वह अपराध से बहुत अधिक लगती है। एक फ़िज़ूल टिप्पणी के लिए आठ साल चुनावी राजनीति से बाहर रखना तो अत्यधिक है। 1861 के बाद आपराधिक मानहानि के मामले में केवल दो व्यक्तियों की सदस्यता रद्द हुई है। एक राहुल गांधी हैं। 2013 के बाद 12 सांसदों या विधायकों की सदस्यता ज़रूर रद्द हुई है पर यह भ्रष्टाचार या हत्या से जुड़े मामलों में हुई थी, मानहानि में नहीं। और जिस तरह तेज़ी से राहुल के खिलाफ पहिया घूम रहा है यहां तक कि बंगला ख़ाली करने का नोटिस भी पहुँच गया, उससे तो लगता है कि उनका राजनीतिक कैरियर ख़त्म करने का प्रयास हो रहा है। राजनीति में विशेष तौर पर चुनाव के समय, नेता गण लापरवाह टिप्पणी करते रहते है। खुद राहुल गांधी को पप्पू से मीर जाफ़र तक कहा जा चुका है। अभी तक एक प्रकार कि आम सहमति थी कि चुनाव की गर्मा गर्मी में दिए गए राजनीतिक भाषण ऐसे अपराधिक मानहानि के दायरे से बाहर रखे जाएँगें। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव ने कहा था कि राजनीति में रहना है तो मोटी चमड़ी चाहिए। पर अब सब बदल रहा लगता है। अगर हर राजनेता के भाषणों को बारीकी से देखा जाए तो 70 प्रतिशत अयोग्य करार दिए जाएँगे। वैसे भी यह सोचने की बात है कि भारत जैसे ज्वलंत लोकतंत्र में अंग्रेजों के समय के आपराधिक मानहानि के क़ानून की ज़रूरत भी है? दुनिया के बहुत देशों में यह ख़त्म कर दिया जा चुका है।
अगर वह उच्च न्यायालय में अपील नहीं करते या अपील नहीं मानी जाती, तो राहुल गांधी के लिए बड़ी समस्या हो सकती है। वह ज़रूर प्रयास करेंगे कि यह प्रदर्शित कर सकें कि वह एक क्रूर प्रतिशोधी व्यवस्था के पीड़ित हैं। इसीलिए अभी तक क़ानूनी विकल्प का सहारा नहीं लिया पर राहुल के लिए समस्या खड़ी हो जाएगी अगर वह अगली लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सके। चाहे वह बाहर लोकप्रिय हो या उन्हें बहुत सहानुभूति भी मिले पर जो नेता खुद चुनाव नहीं लड़ सकता वह किसी पार्टी का नेता कैसे हो सकता है? पर भाजपा के नेताओं को भी चिन्तित होना चाहिए कि देश भर में यह संदेश जा रहा है कि भाजपा सरकार अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं करती और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस से बचने की कोशिश कर रही है। पहली बार है कि सरकारी पक्ष ने ही संसद चलने नहीं दी। राहुल गांधी को रगड़ा लगाने के लिए चार मंत्रियों को उतारा गया। लंडन में राहुल गांधी का अमेरिका और योरूप से यह कहना कि वह यहाँ लोकतंत्र के क्षरण पर ख़ामोश क्यों है, को आपत्तिजनक माना जा सकता है पर उसकी आड़ में संसद को ठप्प करना कितना जायज़ है? कांग्रेस को कहने का मौक़ा मिल गया कि क्योंकि सरकार अडानी मामले में राहुल गांधी के सवालों का जवाब नहीं देना चाहती इसलिए उन्हें बोलने से रोकने के लिए संसद ही चलने नहीं दी गई। एक और बात, क्या संसद का चलना या न चलना केवल सरकार और विपक्ष के बीच का मामला ही रह गया है? क्या जनता इस मामले में मात्र तमाशाई ही हैं?
राहुल गांधी के खिलाफ कार्यवाही का यह कदम विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की सिलसिलेवार कार्यवाही के बाद आया है। ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स विभाग लगातार विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्यवाही कर रहे हैं। शायद ही कोई विपक्षी दल होगा जिसके नेताओं के खिलाफ कार्यवाही नहीं की गई। इसीलिए पहली बार एकता दिखाते हुए 14 विपक्षी दलों ने केन्द्रीय एजेंसियों के कथित ‘दुरूपयोग’ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। सभी यह दल भ्रष्टाचार सहित दूसरे आपराधिक मामलों को लेकर इन ऐजंसियों की सक्रियता से आतंकित है। टीएमसी, शिवसेना, एनसीपी के कई नेता जेल में है या जेल भुगत चुकें हैं। बीमार लालू प्रसाद यादव तथा उनके परिवार को पूछताछ के लिए जाँच ऐजंसिया बुला रही हैं। तपस्वी यादव के घर पर छापा पड़ चुका है। आप के दो पूर्व मंत्री जेल में है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री की पुत्री कविता से ईडी की घंटो पूछताछ जारी है। ममता बैनर्जी के भतीजे और परिवार पर छापा पड़ चुका है। फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को पूछताछ के लिए बुलाया जा चुका है। सरकार का कहना है कि एजेंसियाँ अपना काम कर रही है। यह बात सही हो सकती है पर फिर सवाल उठता है कि ऐसी कार्यवाही केवल ग़ैर-भाजपा दलों के नेताओं पर ही क्यों हो रही है? क्या भाजपा में सब साफ़ सुथरें है? जिनके ख़िलाफ़ आपराधिक मामले थे वह भाजपा में शामिल हो कर पवित्र कैसे हो गए? अगर बराबर की कार्यवाही होती तो शोर न मचता पर क्योंकि कार्यवाही एकतरफ़ा है इसलिए विपक्ष को शिकायत करने का मौक़ा मिल गया।
हमारे राजनीतिक माहौल में जहां बड़ी मात्रा में हेट स्पीच और ओछी राजनीति होती है बहुत नेता हैं जो धार्मिक और भाषाई दुश्मनी बढ़ाने के अपराध में अयोग्य ठहराए जा सकते है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई क़ुरैशी का भी पूछना है कि विपक्ष के नेताओं को अयोग्य करार देने के मामले में कुशलता क्यों है जबकि सरकारी पक्ष के सदस्यों के मामले में आँखें मूँद लीं जाती हैं? राहुल गांधी के खिलाफ कार्यवाही के अनचाहे नतीजे भी निकल रहा है। एक, इससे राहुल गांधी को राजनीतिक संवाद के ठीक बीच स्थापित कर दिया गया है। दूसरा, भाजपा की छापामारी ने विपक्ष को इकट्ठा कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी कह रहें हैं कि सब भ्रष्टाचारी इकट्ठे हो गए पर विपक्ष द्वारा वह एकता दिखाई जा रही है जिसके अब से पहले सारे प्रयास असफल रहें हैं। विपक्ष में ख़तरे की घंटी बज रही है। समझ लिया गया है कि अगर सब इकट्ठा हो कर सरकार के हमलों का मुक़ाबला नहीं करते तो चुन चुन कर ख़त्म कर दिए जाएँगे। डूबेगी किश्ती तो डूबेंगे सारे, वाली बात विपक्षी दलों को समझ आगई लगती है। विपक्ष की सोच प्रतीत होती है कि अगर नरेन्द्र मोदी फिर सत्ता में आगए तो उनके लिए राजनीतिक स्पेस बिलकुल संकुचित हो जाएगी और 2024 की पराजय उनके भविष्य की सम्भावना को तमाम कर जाएगी। इसलिए अपने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आपसी रंजिश को फ़िलहाल एक तरफ़ रख विपक्ष इकट्ठा हो रहा है।
अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। जब मनीष सिसोदिया को गिरफ़्तार किया गया तो कांग्रेस ने आप का समर्थन नहीं किया था पर राहुल गांधी पर कार्यवाही पर केजरीवाल का कहना था कि दलों के बीच सम्बंध अब महत्व नहीं रखते। अब लड़ाई देश को तानाशाही से बचाना है। ममता बैनर्जी और कांग्रेस के रिश्ते भी कड़वे रहें हैं पर अब दीदी खुल कर राहुल गांधी के समर्थन में उतर आई हैं। भविष्य में यह दल इकट्ठे रहेंगे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता पर इस वकत आतंकित विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ एक मोर्चा बनाने की तरफ़ चल रहे प्रतीत होते हैं। राहुल गांधी पर तेज़ी से कार्यवाही विपक्ष के लिए, मुहावरे के अनुसार, वह अंतिम तिनका है जिसने ऊँट की पीठ तोड़ दी। पहली बार तृणमूल कांग्रेस भी प्रदर्शन में शामिल हुई है। जो पार्टियाँ प्रदर्शन कर रही हैं उनकी संख्या अब 18 हो गई है।
प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को मदर ऑफ डैमोक्रैसी कहा है। पर स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ विपक्ष लाज़मी है। उसे कमजोर करने का कोई भी प्रयास सही नहीं और न ही लोग ही इसे समर्थन देंगें, जैसे एमरजैंसी के बाद पता चल गया था। न ही इसकी ज़रूरत है। नरेन्द्र मोदी की भाजपा का आज कौन मुक़ाबला कर सकता है ? सरकार को विपक्ष की तरफ़ अधिक उदारता दिखानी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2016 में एक इंटरव्यू में कहा था कि “मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों की,सरकार के कामकाज का, कठोर से कठोर अनैलसिस होना चाहिए, क्रिटिसिज़म होना चाहिए वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता”। बहुत सही विचार हैं पर संदेश उल्टा जा रहा है इसे सही करने की ज़रूरत है। दिल्ली में मोदी विरोधी पोस्टर लगाने वालों पर 100 एफ़आइआर दर्ज किए गए हैं। हमें अच्छी सरकार चाहिए पर मज़बूत विपक्ष भी चाहिए। ‘हम भारत के लोग’ विपक्ष- मुक्त भारत नहीं चाहते। सरकारें तो चीन या रूस या अफ़ग़ानिस्तान में भी है। हमारा उनसे अंतर है कि यहाँ विपक्ष भी है। सरशार सैलानी की यह पंक्तियां याद आती हैं,
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हम ही हम है तो क्या हम है, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो।