हमारी आज़ादी की लड़ाई ने अनेकों नायक पैदा किए हैं पर दो हैं जो अपनी विशेष छाप छोड़ गए। दोनों ही शहीद हुए। अगर गांधी जी सबसे आदरणीय नेता थे तो भगत सिंह सबसे प्रिय। दोनों के सिद्धांत बिलकुल अलग थे लक्ष्य चाहे एक था, भारत की आज़ादी। गांधीजी का अहिंसा में पूर्ण विश्वास था जबकि भगत सिंह और उनके साथी समझते थे कि लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा की ज़रूरत पड़ जाए तो इस्तेमाल की जा सकती है। दोनों की अलग अलग विरासत है। गांधी जी का अहिंसा का सिद्धांत दुनिया आज भी याद करती है चाहे अमल कोई नहीं करता। भगत सिंह आज भी युवाओं के प्रेरणा स्रोत है। उत्तर भारत में आज भी युवा पीली पगड़ी डाल उन्हें याद करते है जबकि भगत सिंह ने कभी पीली पगड़ी नहीं डाली। भगत सिंह और उसके साथी राजगुरू और सुखदेव ने जो बहादुरी दिखाई इसकी बहुत कम मिसाल मिलती है। न माफ़ी माँगी न अंग्रेजों से पैन्शन लेने के बारे ही सोचा, उल्टा खुद मौत को न्योता दिया।
गांधी-इरविन समझौते के समय कुछ आशा थी कि शायद इससे भगत सिंह और साथी फाँसी से बच जाएँ। जब इससे भी कुछ न बना तो एक ही रास्ता बचा था, वायसराय से दया की अपील की जाए पर भगत सिंह इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। वह तो यह चाहते थे कि वह और उनके साथी जो भी करें उससे क्रांति का मार्ग प्रशस्त हो सके। इसलिए उनके द्वारा कमजोरी के प्रदर्शन का सवाल ही नहीं था। जब बहुत दबाव डाला गया तो कहा कि मुझे सोचने का समय दो। दो दिन के बाद वकील प्राणनाथ मेहता जेल में उनसे मिलने आए ताकि अपील का मसौदा तैयार किया जाए पर भगत सिंह का कहना था कि अपील तो वायसराय को भेज दी गई है। प्रतिलिपि वकील साहिब को सौंप दी गई। प्राणनाथ मेहता ने इसे पढ़ा तो हैरान रह गए। यह दया की अपील थी कि मौत का वॉरंट ? इस ‘प्रार्थना पत्र’ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव ने लिखा था, “ हमारे पर सबसे बड़ा आरोप बादशाह के विरूद्ध युद्ध करने का है…आपने हमें फांसी पर लटकाने का फ़ैसला कर लिया है,आप ऐसा करेंगे ही … इस मुक़द्दमे के दौरान हमने कभी दया की प्रार्थना नहीं की और न अब दया की प्रार्थना करना चाहते हैं। हाँ ! यह निवेदन ज़रूर करना चाहते हैं कि हमारे ख़िलाफ़ युद्ध करने का आरोप है। इस दृष्टि से हम युद्धबंदी है। इसलिए हम माँग करते हैं कि हमारे साथ भी वही व्यवहार किया जाए जो युद्धबंदियों के साथ किया जाता है और हमें फाँसी देने की बजाए गोली से उड़ा दिया जाए… सेना विभाग को आदेश दें दीजिए कि वह हमें गोली से उड़ाने के लिए सिपाही भेज दे”।
वीरता और देशभक्ति की ऐसी मिसाल दुनिया के इतिहास में कम मिलेगी। वह तीनों चाहते थे कि न केवल उनकी ज़िन्दगी बल्कि उनकी मौत भी देश के काम आनी चाहिये। फाँसी से कुछ दिन पहले कुछ क़ैदियों ने भगत सिंह से पूछा था, “सरदार, आप बताइये कि आप चाहते क्या हो”? भगत सिंह का उत्तर था, “मेरा ज़िन्दा रहना सशर्त है। मैं क़ैद रह कर जीवित नहीं रह सकता। मेरा नाम भारत की क्रान्ति का निशान बन चुका है…मेरे वीरता पूर्वक फांसी पाने की स्थिति में हिन्दोस्तानी माताएँ अपने बच्चे को भगत सिंह बनाने की कामना करेंगी। मुझ से भाग्यशाली कौन होगा। अब तो बड़ी उत्सुकता से अंतिम परीक्षा का इंतिज़ार है”। भगत सिंह ने अपने एक पत्र में इक़बाल का यह शे’र लिखा था,‘कोई दम का मेहमान हूँ अहल–ए-महफ़िल, चराग– ए – सहर हूँ बुझा चाहता हूँ’।
यह चराग- ए- सहर 23 वर्ष की छोटी सी आयु में 23 मार्च 1931 को बुझा दिया गया लेकिन इस क़ौम को रोशन कर गया।
मेरे पिताजी, वीरेंद्र जी, चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह के क्रान्तिकारी साथी थे। बम बनाए, यातनाएँ झेली, नौ बार गोरों की जेल गए। वह उस दिन लाहौर की सेंट्रल जेल में क़ैद थे जहां भगत सिंह और साथियों को फाँसी दी गई। उस दिन जेल के अन्दर क्या घटा यह वीरेंद्र जी ने वर्णन किया है जिसके कुछ अंश मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, “23 मार्च 1931 किस प्रकार का मनहूस दिन था वह! ब्रिटिश साम्राज्य की बर्बरता और हमारे नेताओं की बेवफ़ाई ने तीन शेरों को सदा के लिए सुला दिया। उस दिन भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को लाहौर के सेंट्रल जेल में फाँसी दी गई। प्रिवी कौंसिल से भगत सिंह की अपील रद्द हो जाने के बाद और जब हमें पता चला कि भगत सिंह दया की अपील करने को तैयार नहीं है, हम समझने लगे थे कि सरकार उन्हें किसी समय भी फाँसी पर लटका देगी… उन दिनों जेल में एक नाई हुआ करता था जो भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की हजामत करने भी ज़ाया करता था। 20 मार्च को उसने हमें बता दिया कि ऐसा मालूम होता है कि अंतिम समय आगया है क्योंकि जेल अधिकारी कुछ ऐसी तैयारी कर रहे हैं।
“ जिस कोठरी में हम क़ैद थे उसके सामने एक खुला मैदान था। एक दिन वहाँ जेल अधिकारियों ने लकड़ियाँ इकट्ठी करना शुरू कर दी। हमने समझा कि फाँसी के बाद शायद उनके शव यहाँ जलाए जाएँगे। जेल में असाधारण हलचल थी। 23 मार्च को समाचार मिला कि इन तीनों के सम्बन्धियों को सूचित कर दिया गया है कि 24 मार्च को फाँसी दी जाएगी। जेल के नियम के अनुसार जिस दिन किसी को फाँसी दी जानी हो बाक़ी क़ैदियों को अपनी अपनी कोठरी में उस वकत तक बंद कर दिया जाता है जब तक फाँसी लग न जाए और शव को जेल से बाहर न निकाल लिया जाए। हमने सोचा कि क्योंकि 24 मार्च को फाँसी लगनी है इसलिए हमें 24 मार्च की सुबह बंद कर दिया जाएगा। किन्तु 23 मार्च को दोपहर दो बजे के लगभग वही नाई हमारे पास भागा भागा आया और भरी हुई आवाज़ में बोला “सब कुछ ख़त्म होने वाला है। सरदार जी कहते हैं कि फाँसी आज लगाई जाएगी। उन्होंने आप दोनों ( मेरे साथ कोठरी में थे अहसान इलाही) को ‘वंदे मातरम्’ कहा है।
“हम पर पहाड़ टूट पड़ा। हमें मालूम तो था कि कोई ताक़त अब उन्हें बचा नहीं सकेगी पर यह नहीं सोचा था कि अंग्रेज ऐसी कमीनी और कायरता पूर्ण कार्यवाही करेंगे कि 12 घंटे पहले ही उन्हें ख़त्म कर देंगे। नाई की बात सुन कर मैंने उसे कहा कि वह तुरंत चले जाए और और भगत सिंह की जो भी निशानी पड़ी है वह ले आए। आधे घंटे के बाद वह लौटा आया और एक काला फ़ाउंटेन पैन और एक कंघी ले आया। कंघी पर भगत सिंह ने किसी तेज चीज़ से अपना नाम लिखा हुआ था। कंघी मैंने रख ली और पैन अहसान इलाही ने। आम तौर पर शाम के 7 बजे क़ैदियों को बंद किया जाता है उस दिन जेल वार्डन जिसका नाम चतर सिंह था, शाम 4 बजे ही आगया। हमने उससे पूछा कि आज क्या विशेष है ? वह कुछ बोल नहीं पाया और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। कुछ देर के बाद खुद को सम्भालते हुए उसने बताया कि आज शाम 7 बजे उन तीनों को फाँसी लगा दी जाएगी। हम मौन हो गए। अपनी अपनी चारपाई पर बैठे हम 7 बजे की इंतज़ार करने लगे।
“और फिर 7 बज गए। जब तीनों को फाँसी घर ले जाने के लिए कोठरियों से निकाला गया तो तीनों ने ऊँची आवाज़ में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। फिर सारे जेल में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा गूंजने लगा यहाँ तक कि ग़ैर- सियासी क़ैदी भी नारे लगाने लगे। काफ़ी देर नारे लगते रहे फिर जेल में सन्नाटा छा गया। उस रात जेल में न किसी ने खाना खाया न कोई सोया। अगले दिन सुबह 7 बजे जब वार्डन हमें खोलने आया तो हमने उससे पूछा कि अंतिम समय में इन तीनों ने मौत का सामना कैसे किया? पहले तो वह बोला नहीं फिर उसकी आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उसका कहना था कि उसने बहुत लोगों को फाँसी चढ़ते देखा है पर जिस दिलेरी से यह तीनो फाँसी पर चढ गए उसकी मिसाल नहीं है। उस से पहले भगत सिंह अपनी कोठरी में लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। किताब रख कर वह बाहर आगए और जेल अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “हमें हथकड़ी न लगाई जाए,न हमारे चेहरे पर नक़ाब डाला जाए”। उनकी दोनों बातें मान ली गईं। तीनों अपनी अपनी कोठरी से बाहर आ गए, एक दूसरे को गले लगाया और फाँसी के तख़्ते की तरफ़ चल पड़े। भगत सिंह बीच में, सुखदेव बाएँ और राजगुरू उनके दाएँ।
तीनों चलते जा रहे थे और लाल चन्द फलक का यह गीत गाते जा रहे थे, दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू- ए-वफा आएगी। एक वार्डन ने आगे आकर फाँसी घर का दरवाज़ा खोला। अन्दर लाहौर का अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर खड़ा था। उसे देखते भगत सिंह ने कहा,
Mr. Magistrate, you are fortunate to be able today to see how Indian revolutionaries can embrace death with pleasure for the sake of their supreme ideal.
अर्थात् श्रीमान मैजिस्ट्रेट आप भाग्यशाली हैं कि आप देख सकते हैं कि भारत के क्रान्तिकारी किस तरह अपने महान उद्देश्य के लिए मौत को गले लगा सकतें हैं।
उसके बाद तीनों उस प्लैटफ़ॉर्म पर चढ़ गए जहां तीन फंदे लटक रहे थे। जल्लाद ने भी ऐसे लोग नहीं देखे थे जो इतनी निडरता से मौत का सामना कर रहे हों। उसने आगे बढ़ कर फंदे ठीक किए और चर्खड़ी घुमा दी। तख़्त गिरा और वह तीनों भारत माँ के चरणों में समा गए। समय शाम के 7 बज कर 33 मिनट थे। उस दिन भगत सिंह की ज़िन्दगी के 23 वर्ष, 5 महीने और 26 दिन पूरे हो गए थे। और भारत की क्रान्ति का एक अध्याय ख़त्म हो गया”।
यह सारा वर्णन वीरेन्द्र जी ने लिखा है। पर आज उस घटना के 92 वर्ष बाद अवश्य कह सकता हूँ कि भगत सिंह का अध्याय ख़त्म नहीं हुआ, न होगा। उनकी और उनके साथियों की क़ुर्बानी हर पीढ़ी को रोमांचित करती रहेगी। इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि क्या इन तीनों को बचाया जा सकता था? विशेष तौर पर गांधी जी की आलोचना हुई थी। वीरेन्द्र जी ने भी ‘नेताओं की बेवफ़ाई’ की शिकायत की है। अहिंसा और हिंसा के चक्कर में आकर गांधी जी ने इन तीन वीरों को बचाने का गम्भीर प्रयास नहीं किया। कई जगह गांधी जी के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए थे। उन्होंने कराची कांग्रेस में नेहरू के द्वारा वक्तव्य ज़रूर जारी करवाया जिसमें तीनों के साहस और दिलेरी की प्रशंसा की गई पर साथ ही युवाओं से कहा गया कि वह ‘इस रास्ते पर न चलें’। लेकिन भगत सिंह के संदर्भ में एक बात याद रखनी चाहिए जो इतिहासकार चमनलाल ने भी लिखी है, कि जो अपनी शहादत से देश की अंतरात्मा तो झकझोरना चाहता था उसे अधिक देर बचाया नहीं जा सकता था।
अंत में दोनों गांधी और भगत सिंह शहीद हो गए — भगत सिंह राजनीतिक और समाजिक क्रान्ति के लिए तो गांधी साम्प्रदायिक एकता के लिए। आज कहा जा सकता है कि न दूसरा गांधी पैदा होगा न दूसरा भगत सिंह। दोनों की परस्पर विरोधी विचारधारा के बावजूद यह देश सौभाग्यशाली हैं कि यहाँ भगत सिंह भी पैदा हुआ और गांधी भी।