नैटफ्लिक्स पर दिखाई जा रही सीरीज़ ‘आईसी-814:द कंधार हाईजैक’ को लेकर कुछ विवाद खड़ा हुआ है। इस सीरीज़ में आतंकवादियों के कोड-नेम बताए गए है, भोला, शंकर, डाक्टर, चीफ़ और बर्गर। अपनी पहचान छिपाने के लिए आतंकवादियों ने फ़र्ज़ी नामों का इस्तेमाल किया था। शिकायत ‘भोला’ और ‘शंकर’ के इस्तेमाल से है। पूजा कटारिया, जो इस जहाज में थीं, ने पुष्टि की है कि अपहरणकर्ता एक दूसरे को हिन्दू नाम से बुला रहे थे। पर इससे बहुत लोगों की ‘भावनाऐं आघात हो गईं’। वैसे भी इस देश में जिसे चाय के कप में तूफ़ान कहा जाता है पैदा करना मुश्किल नहीं है। अब निर्माताओं ने असली नाम, इब्राहीम अतहर , शाहिद अख़्तर सईद, सनी अहमद क़ाज़ी, ज़हूर मिस्री और शाकिर शुरू में ही बता दिए हैं जिससे यह विवाद कुछ ठंडा पड गया है। यह भी शिकायत है कि सीरीज़ पूरी हक़ीक़त नहीं दिखाती। यह हो सकता है क्योंकि यह दस्तावेज़ी फ़िल्म नहीं है। बता गया कि यह सीरीज़ सच्ची घटनाओं से “प्रेरित” है। पर इसके बावजूद सीरीज रोचक है और पिछली सदी के अंतिम दिनों की इस कष्टदायक घटना का लगभग सही फ़िल्मांकन है। अभिनय भी अच्छा है, केवल जो आतंकवादी दिखाए गए वह कालेज से भागे लड़के लगते थे। डरावने तो वह लगते ही नही।
पर असली कहानी और है। असली कहानी है कि क्या हुआ, क्यों हुआ और हमारी तत्कालीन सरकार ने आतंकवादियों के सामने समर्पण क्यों किया?
20वीं सदी के अंतिम दिन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के लिए कठिन परीक्षा से कम नहीं थे,और यह सरकार उसमें फेल हो गई। 24 दिसम्बर 1999 को इंडियन एयरलाइंस की उड़ान IC-814 ने काठमांडू से शाम 4.53 मिनट पर उड़ान भरी, गन्तव्य दिल्ली था। पर यह दो घंटे की उड़ान आठ दिन लम्बी चली। विमान के उड़ने के कुछ समय के बाद ही पाँच आदमी खड़े हो गए और उन्होंने जहाज़ को हाईजैक कर लिया। वह सब पाकिस्तानी नागरिक थे जिनका सम्बंध आतंकी संगठन हरकत-उल-मुजाहिद्दीन से था। भारत सरकार के हाथ पैर फूल गए। कप्तान को विमान को दिल्ली की जगह लाहौर की तरफ़ मोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। पर पाकिस्तान ने उतरने की अनुमति नहीं दी तब कप्तान देवी शरण ने उसे अमृतसर उतार दिया। विमान में केवल 9 मिनट का तेल बाक़ी था।
उधर दिल्ली में बहस चल रही थी कि क्या किया जाए ? कोई कह रहा था कमांडो भेज दो तो कोई कह रहा था कि टायर पंक्चर कर दो, तो कोई कह रहा था कि इसके रास्ते में रूकावटें खड़ी कर दो। अपने लोगों की जान बचाने पर भी चर्चा हो रही थी पर कोई स्पष्ट निर्देश नहीं निकल रहा था। इस बहस में इतना समय बर्बाद कर दिया गया कि अपहरणकर्ताओं को शक हो गया और उन्होंने पायलट की कनपटी पर पिस्तौल रख विमान उड़ाने के लिंए उसे मजबूर कर दिया। विमान 47 मिनट अमृतसर में था पर भारत सरकार की दुविधा और अव्यवस्था ने विमान को वहाँ रोकने का सबसे अच्छा मौक़ा गवां दिया। क्योंकि केवल 9 मिनट का तेल बचा था इसलिए पायलट ने विमान ज़बरदस्ती नज़दीक लाहौर उतार दिया। वहाँ तेल लेकर विमान दुबई होता अफ़ग़ानिस्तान में कंधार उतर गया। दुबई में 27 महिलाओं और बच्चों को उतार दिया गया। रूपिन कटयाल जिसका अपहरणकर्ताओं ने अत्यंत क्रूरता के साथ गला रेत दिया था का शव भी उतार दिया गया। जिस भारत सरकार नें अमृतसर में विमान को छुड़वाने के लिए कमांडो नहीं भेजे थे ने यूएई की सरकार से निवेदन किया कि वह विमान में कमांडो भेजे। स्वभाविक था कि यह निवेदन रद्द कर दिया गया और विमान को उड़ने दिया गया। कोई अपने यहाँ खूनखराबा नही चाहता।
विमान कंधार में उतर गया जहां उस तालिबान का शासन था जो भारत के प्रति बैरी था और जहां पाकिस्तान की कुख्यात एजेंसी आईएसआई का दबदबा था। पहले आतंकियों नें लम्बी चौड़ी माँग रख दी कि 36 आतंकियों को रिहा करो और 200 मिलियन डालर दो। आखिर में उन्होंने तीन आतंकियो, जो भारत की जेल में बंद थे, मौलाना मसूद अज़हर, मुश्ताक़ ज़रगर, ओमर शरीफ़, की रिहाई की माँग रख दी जिसे भारत सरकार ने मान लिया। विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने अपने विमान में तीन आतंकियों को कंधार ले जाकर तालिबान के हवाले कर दिया। उसी दिन यात्री स्वदेश लौट गए। और हमारे इतिहास के एक अत्यंत तकलीफ़देह अध्याय का अंत हो गया।
तालिबान ने अपहरणकर्ताओं और हमारे द्वारा आज़ाद किए तीन आतंकियों को तत्काल पाकिस्तान के हवाले कर दिया जहां मसूद अज़हर ने जैश-ए-मुहम्मद खड़ी की जो 2001 के संसद पर हमले, मुम्बई पर 2008 के हमले, 2016 के पठानकोट और उरी हमले के लिए ज़िम्मेवार है। इसके अतिरिक्त यह तीनों कई और आतंकी हमलों के लिए ज़िम्मेवार हैं। यह उल्लेखनीय है कि जिस व्यक्ति ने डट कर आतंकियों की रिहाई का विरोध किया था वह जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला थे। वह अपनी जेल से मसूद अज़हर और मुश्ताक़ अहमद जरगर की रिहाई के बिल्कुल ख़िलाफ़ थे पर उन पर भारी दबाव डाला गया। फारूक अब्दुल्ला ने साफ़ कह दिया था कि इस कदम की बाद में बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी, जो बाद की घटनाओं ने सही भी साबित कर दिया।
मानना पड़ेगा कि सरकार के लिए बहुत मुश्किल निर्णय था। एक तरफ़ देश की इज़्ज़त का सवाल था तो दूसरी तरफ़ अपने लोगों की जानें बचानी थी। हम इज़रायल नहीं हैं जिसे जानो की परवाह नहीं, हम सॉफ़्ट स्टेट हैं। दिल्ली की सड़कों पर यात्रियों के रिश्तेदारों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए थे। कई तो सड़क पर लेट गए और सरकार दबाव में आगई। मामला और कंफयूज हो गया क्योंकि कोई स्पष्ट निर्णय लेने को तैयार नहीं था। ‘रा’ के तत्कालीन प्रमुख ऐ.एस.दुल्लत ने स्वीकार किया, “पूरा घपला था।कोई भी ज़िम्मेवारी लेने को तैयार नहीं था… मैं भी दोषी हूँ। पर किसको निर्देश देना था,वह अलग बात है”। क्या पूर्व ‘रा’ चीफ़ अपने से उपर इशारा कर रहे हैं जहां से निर्देश आना था, पर नही आया? रक्षामंत्री? गृहमंत्री? और सबसे उपर प्रधानमंत्री? प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सिंह गर्जना की थी कि, भारत ऐसे वैहशियाना कदमो के आगे झुकेगा नही, डरेगा नही”। फिर क्या हुआ?
असली कमजोरी अमृतसर में दिखाई गई। ऐ.एस. दुल्लत नें भी कहा है, “हमारे हाथ में स्थिति तब तक थी जब तक जहाज़ अमृतसर में था। हमारे पास मौक़ा था। एक बार वह अमृतसर से उड़ गया, चाल हमारे हाथ से फिसल गई”। सरकार किस तरह अंधेरे में भटक रही थी यह दुल्लत के इस कथन से पता चलता है कि, “जहाज़ तो हमारे पास था पर हमें मालूम नहीं था कि इसका करना क्या है”। प्रधानमंत्री के सलाहकार बृजेश मिश्र ने भी 2003 में शेखर गुप्ता को दी गई इंटरव्यू में माना कि कि “एक ही जगह कुछ अलग हो सकता था तो वह अमृतसर था”। क्या अमृतसर में पंजाब पुलिस से चूक हो गई,जैसे कुछ लोग कह रहें हैं, कि उन्होंने जहाज़ को रोका नहीं? तत्कालीन डीजीपी पंजाब सरबजीत सिंह इस बात का प्रतिवाद करते हैं कि उन्होंने कमजोरी दिखाई। उनका कहना है कि खबर सुनते ही उन्होंने हवाई अड्डे पर कमांडो भेज दिए थे पर इस बात की सम्भावना थी कि किसी भी एक्शन से भारी संख्या में हताहत हो सकते थे। यह बात उन्होंने आईबी के डायरेक्टर श्यामल दत्ता को बता दी थी जिनका स्पष्ट कहना था कि ‘जानहानि नहीं होनी चाहिए’।
दुल्लत का भी कहना है कि “पंजाब के सीएम(प्रकाश सिंह बादल) खूनखराबा नहीं चाहते थे, न ही दिल्ली ही चाहती थी”। जब यह फ़ैसला ही कर लिया गया कि खूनखराबा नहीं होना तो कमांडो एक्शन की सम्भावना ही ख़त्म हो जाती है क्योंकि जब ऊँचे जहाज़ पर हमला किया जाएगा तो दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलेंगी और कुछ यात्री बीच में फँस सकते हैं। 1993 में दो बार अमृतसर से इसी तरह विमान हाईजैक करने की कोशिश की गई पर तब विमान को उड़ने से रोकने के लिए सामने रोड रोलर खड़े कर दिए गए थे। इस बार दिल्ली से कोई स्पष्ट निर्देश नही था। सरबजीत सिंह बताते हैं कि “हमारे पास न यह जानकारी थी कि कितने अपहरणकर्ता हैं,न यह पता था कि उन्हें कैसे ढूँढा जाए”? मैंने पूछा कि किस पर गोली चलानी है?” कोई जवाब नहीं आया।
एक और बड़ा विवाद खड़ा हो गया कि विदेश मंत्री जसवंत सिंह खुद अपने विमान में आतंकियों को क्यों लेकर गए? अपनी जीवनी ए कॉल टू हॉनर में वह लिखते हैं, “वह मेरी ज़िन्दगी का सबसे कठिन और भावनात्मक तौर पर सबसे परेशान करने वाला समय था…मैं इस पीड़ा से गुजर रहा था कि क्या सही है? वह कहाँ है? और उस तक कैसे पहुँचा जा सकता है?… 3 आतंकियों की जगह 161 पुरूष, महिलाएँ और बच्चे। क्या यह सही है? गलत है?…शुरू में मैं किसी समझौते के खिलाफ था पर धीरे धीरे जैसे समय बदलता गया मैं भी बदलने लगा”।
जसवंत सिंह की बहुत आलोचना हुई कि उन्होंने देश की इज़्ज़त के साथ समझौता किया। हमने वह दृश्य भी देखा जहां जसवंत सिंह कंधार में तालिबान के विदेश मंत्री मुत्तवकील के साथ हाथ में हाथ डाल कर चल रहें थे। पर मैं समझता हूँ कि उन्होंने बहुत हिम्मत दिखाई। वह फ़ौजी रहें हैं इसलिए यात्रियों की रिहाई की अपनी ज़िम्मेवारी निभाई यह जानते हुए भी कि उन्हें बहुत आलोचना और बदनामी सहनी पड़ेगी। वरिष्ठ अधिकारियों ने भी उन्हें समझाया था कि आप मत जाईए। पर उनका मानना था कि ऐसे व्यक्ति को जाना चाहिए जो तत्काल निर्णय ले सके और यह मामला उनके विदेश मंत्रालय से सम्बंधित है। कोई और मंत्री होता तो बहाना बना कर निकल जाता पर जसवंत सिंह ने आगे बढ़ कर अपना धर्म निभाया। गलती यह हो गई कि वह आतंकियों को अपने जहाज़ में साथ ले गए। बेहतर होता उन्हें अलग जहाज़ में भेजा जाता। इतिहास में कोई मिसाल नहीं जहां बंधकों तो छुड़वाने के लिए कोई मंत्री खुद गया हो।
कारगिल के बाद 1999 में यह हमारी दूसरी बड़ी ख़ुफ़िया और सरकारी असफलता थी। डीजीपी सरबजीत सिंह बताते हैं कि घटना से “न पहले न बाद में” किसी ने उनसे सम्पर्क किया था। अर्थात् भारत सरकार इस असुखद अध्याय को भूल जाना चाहती थी। न ही बाद में कोई जाँच ही बैठाई गई। सीधा कारण था कि शीर्ष से कोई स्पष्ट निर्देश अमृतसर नहीं भेजा गया कि विमान को वहां हर हाल में रोका जाना चाहिए। यह निर्णय डीजीपी स्तर पर नहीं लिया जा सकता था। और आख़िर में हमने देखा कि जिस प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत कभी झुकेगा नही, डरेगा नहीं, उन्होंने ही तीन आतंकियों की रिहाई का आदेश दे दिया। भारत का समर्पण पूरा था।