हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनावों, और उनके बाद होने वाले महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली के चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति पर असर पड़ेगा। यह बताएंगे कि हवा किस तरफ़ बह रही है। वैसे तो महाराष्ट्र के चुनाव भी साथ होने चाहिए थे पर चुनाव आयोग ने किन्ही कारणों से इन्हें साथ करवाने से इंकार कर दिया। यह दिलचस्प है कि सरकार देश में एक साथ चुनाव करवाने की बात करती है। प्रधानमंत्री कई बार ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की बात कर चुकें है पर जिस चुनाव आयोग से तीन प्रदेशों के चुनाव इकट्ठे नहीं करवाए जासकते वह सारे देश में कैसे एक साथ चुनाव करवाऐंगे ? भाजपा के लिए बेहतर होता कि महाराष्ट्र के चुनाव भी साथ करवा लिए जाते क्योंकि रूझान लग रहा है कि दस वर्ष के बाद शासन विरोधी भावना हरियाणा में भाजपा को परेशान करने जा रही है। फ़ायदा कांग्रेस को होगा।
अरविंद केजरीवाल की रिहाई से आप में जान पड़ गई है। उनके इस्तीफ़े का दिल्ली पर असर हो सकता है, हरियाणा पर बहुत असर नहीं होगा। उन्होंने इस्तीफ़ा भी दिल्ली के वोटर को प्रभावित करने के लिए दिया है। उन्होंने कहा भी है कि “दिल्लीवालों, अगर आप को लगता है कि मैं ईमानदार हूँ तो मुझे वोट देना और अगर लगता है कि मैं गुनहगार हूँ तो मुझे वोट मत देना”। अरविंद केजरीवाल ने भावनात्मक जुआ खेला है कि वह पीड़ित है। ऐसा कर वह 10 साल की शासन विरोधी भावना से भी बचना चाहते हैं। वह नैतिक पहल छीनना चाहतें हैं। लोकसभा के चुनाव में उन्होंने दिल्लीवालों से खुद को जेल से बाहर रखने के लिए वोट माँगा था, दिल्ली की प्रतिक्रिया नकारात्मक थी। हरियाणा में वह ‘हरियाणा के लाल’ के नाम पर वोट माँग रहे है। ऐसा वह पहले भी कर चुकें हैं पर कुछ मिला नहीं था। इस समय हमारी राजनीति दो हिस्सों में बंट गई लगती है। जो भाजपा को जीताना चाहते हैं और जो उसे हराना चाहतें हैं।
हरियाणा में भाजपा ने सीएम बदल कर बचने की कोशिश की है। मोहन लाल खट्टर की जगह उनके वफ़ादार नायब सिंह सैनी को सीएम बनाया गया है पर सैनी खट्टर की छाया से निकल नहीं पा रहे। उनकी घोषणा के बावजूद की वह करनाल से चुनाव लड़ेंगे उन्हें लाडवा से चुनाव लड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। सैनी वैसे भी बार बार चुनाव क्षेत्र बदलने के लिए मशहूर हैं। नई सरदर्द वरिष्ठ नेता अनिल विज ने खड़ी कर दी है जिन्होंने भाजपा की जीत की स्थिति में सीएम पद के लिए अपना दावा रख दिया है। भाजपा में यह अभूतपूर्व घटना है क्योंकि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की पार्टी में कोई खुलेआम अपना दावा नहीं ठोकता। हरियाणा के लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन आशा से बहुत कम रहा और वह पाँच सीटें कांग्रेस को खो बैठे। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता नीचे तक फ़ायदा नहीं पहुँचा रही। भाजपा के लिए असली चिन्ता यह है कि जिस कांग्रेस ने 2019 के चुनाव में 28.51 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे वह 2024 में 43.68 प्रतिशत वोट जीतने में सफल रही जबकि उसने नौ सीटों पर ही चुनाव लड़ा था। पाँच साल में 15 प्रतिशत की कांग्रेस के वोट में विशाल वृद्धि हरियाणा की जनता का बहुत बड़ा संदेश है। भाजपा का अपना वोट 46.1 प्रतिशत था पर यह पिछले लोकसभा चुनाव से 12 प्रतिशत गिरा है। प्रदेश चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते है। नायब सिंह सैनी और मनोहर लाल खट्टर नरेन्द्र मोदी नहीं है।
लोकसभा के चुनाव में भाजपा के दलित समर्थन में भी भारी गिरावट देखी गंई है। कांग्रेस मज़बूत नज़र आ रही है। जैसे पंजाब विश्वविद्यालय के प्रो. अशुतोष कुमार ने कहा है, “गति कांग्रेस के साथ है। लोकसभा चुनाव के तीन महीने के बाद भी कुछ नहीं बदला”। उनके अनुसार मज़बूत शासन विरोधी भावना, नेतृत्व का मामला, भाजपा में आंतरिक कलह, किसानों की समस्या, सब भाजपा को परेशान करेंगे। एक बात जो उन्होंने नहीं कही वह कांग्रेस का मज़बूत स्थानीय नेतृत्व है। भुपिन्दर सिंह हुड्डा में कांग्रेस के पास अनुभवी नेता हैं जिन्हें विशेष तौर पर प्रभावशाली जाट समुदाय का समर्थन हासिल है। भाजपा नए नए चेहरों का एक्सपेरिमेंट करती है। ज़रूरी नहीं वह सफल रहें। मध्य प्रदेश और राजस्थान के नए मुख्यमंत्री अब तक जम नहीं सके। भुपिन्दर सिंह हुड्डा का स्तर और स्वीकार्यता नायब सिंह सैनी से बहुत अधिक है। कांग्रेस ने भी हुड्डा को खुला हाथ दे दिया लगता है। टिकटों के बँटवारे में उनकी ही चली है, कुमारी शैलजा जैसों को अधिक महत्व नहीं दिया गया। हुड्डा के दबाव में आप के साथ समझौता भी नहीं हो सका।
हरियाणा में भाजपा की बड़ी समस्या मनोहर लाल खट्टर की विरासत से उभरना है। उन्हें सीएम बना कर भाजपा ने ग़ैर- जाट समुदाय को साधने की कोशिश की थी। 2014 में पार्टी 90 में से 47 सीटें जीतने में सफल रही थी। उस समय नरेन्द्र मोदी की आभा भी शिखर पर थी। 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को केवल 40 सीटें मिली थी। जिन मतदाताओं ने लोकसभा के चुनाव में भाजपा को जीत दिलवाई थी उन्होंने ही विधानसभा चुनाव में पूरा समर्थन नहीं दिया और सरकार बनाने के लिए मनोहर लाल खट्टर को दुष्यंत चौटाला की जेजेपी पर निर्भर होना पड़ा। समर्थन में यह गिरावट रूकी नहीं लगती। नायब सिंह सैनी ने नीतियों को सही करने की कोशिश की है और युवाओं और महिलाओं को रेवड़ियाँ बाँटना शुरू कर दिया है पर यह देर से उठाया गया कदम है। अनुभव है कि लोग चुनाव से बहुत पहले मन बना लेते हैं।
भाजपा ने अपनी सूची में कई दलबदलू शामिल किए है। किरण चौधरी के भाजपा में शामिल होने के कुछ ही दिनों के बाद उन्हें राज्यसभा में भेज दिया गया। पार्टी अध्यक्ष मोहन लाल बदोली का कहना है कि जीतने की क्षमता एक मात्र मानदंड है। अर्थात् पार्टी कह रही है कि विचारधारा अब बहुत महत्व नहीं रखती और सत्ता प्राप्त करने के लिए वह भी कांग्रेस के रास्ते पर चल रहें है। इसका कायकर्ताओं पर बुरा प्रभाव पडा है। टिकट बँटवारे को लेकर एक समय तो बग़ावत की स्थिति पैदा हो गई थी। कांग्रेस में भी असंतोष था पर उसे सम्भाल लिया गया है, वहां कोई अनिल विज नहीं उठा। एक और मामले में कांग्रेस का अनुकरण किया गया है। देश भर में भाजपा वंशवादी राजनीति का विरोध कर रही है। हाल ही में जम्मू कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी ने तीन परिवारों के वंशजों को खूब रगड़ा लगाया है पर हरियाणा में भाजपा ने बंसी लाल, भजनलाल, विनोद शर्मा, राव इन्द्रजीत सिंह, देवीलाल, सब के परिवार के सदस्यों को या तो टिकट दिए या प्रदेश मंत्रिमंडल में रखा।
हरियाणा में बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। मार्च 2023 में हरियाणा की बेरोज़गारी की दर देश में सबसे अधिक 26.77 प्रतिशत थी जबकि राष्ट्रीय बेरोज़गारी औसत 9 प्रतिशत के लगभग थी। लगभग दो लाख सरकारी नौकरियाँ भरी नहीं गईं। बेरोज़गार युवा इस सरकार और भावी सरकारों को परेशान करते रहेंगे। बेचैन और आक्रामक किसान जत्थेबंदियों ने भी वहाँ सरकार की नाक में दम कर रखा है। जिस कठोरता के साथ सरकार पंजाब सीमा पर किसानों से निबटी है उससे किसानों में भाजपा के प्रति ग़ुस्सा है। कई गाँवों में भाजपा के लोगों को घुसने नहीं दिया गया। ‘संयुक्त किसान मोर्चा’, (एसकेएम) ने तो भाजपा को सजा देने का आह्वान कर दिया है। अग्निपथ योजना के कारण प्रदेश का यूथ नाराज़ है। हरियाणा के युवाओं के लिए सेना में भर्ती का बड़ा आकर्षण था। रोज़गार भी मिलता था और इज़्ज़त भी। लेकिन जबसे चार साल वाली अग्निपथ योजना शुरू हुई है यह आकर्षण ख़त्म हो गया है। पहले 5000 के क़रीब युवा भर्ती होते थे अब यह संख्या कम हो कर 1000 के क़रीब रह गई है।
प्रभावशाली जाट समुदाय भी एंटी है। 2014 से पहले मुख्यमंत्री देवीलाल, बंसी लाल, ओम प्रकाश चौटाला और भुपिन्दर सिंह हुड्डा सब जाट थे। केवल एक बार भजनलाल मज़बूत ग़ैर जाट मुख्यमंत्री रहे हैं। 2014 के बाद भाजपा ने ग़ैर-जाट,मनोहर लाल खट्टर को सीएम बना दिया। अपनी हैसियत कम होने को जाट भूले नही। चाहे वह 26-28 प्रतिशत ही हैं पर राजनीतिक और समाजिक दबदबा कहीं अधिक है। सारा किसान आन्दोलन इन्हीं ने चलाया था। जिस तरह केन्द्र की सरकार हरियाणा की महिला पहलवानों की यौन उत्पीड़न की शिकायत से बेरुख़ी से निबटी है उसका भी असर हुआ है। विनेश फोगाट कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ रहीं हैं। इस जाँबाज़ महिला पहलवान के प्रति हरियाणा में बहुत सहानुभूति है। पेरिस से लौटने के बाद भाजपा का विनेश के प्रति रवैया उदासीन रहा है। खट्टर के सीएम बनने के बाद सरकार में जाटों का प्रभाव कम हो गया। अब वह समझते हैं कि शायद समय आगया है कि ग़ैर जाटों से वह सत्ता छीन सकते है इसीलिए वह भुपिन्दर सिंह हुड्डा के पीछे एकजुट हो रहे हैं। इसका एक और प्रभाव यह हो रहा है कि जो प्रादेशिक पार्टियाँ जाटों के समर्थन पर निर्भर थी वह ख़त्म होने के कगार पर है। लोकसभा चुनाव में दोनों जाट आधारित आईएनएलडी और जेजेपी को लोगों ने नकार दिया। पहली को 1.74 प्रतिशत वोट मिले तो दूसरी को एक प्रतिशत और नोटा से भी कम।
पर अभी चुनाव में कुछ दिन बाक़ी है। भाजपा खूब ज़ोर लगाएगी। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता भुनाने का पूरा प्रयास होगा। यह भी देखने की बात होगी कि आप किसका वोट काटती है? अरविंद केजरीवाल की पार्टी शहरी है पर जहां वह भाजपा विरोधी वोट को बांटेगी वहाँ वह भाजपा के शहरी वोट पर भी सेंध लगा सकती है। पर यह भी हो सकता है कि हरियाणा में आप का वही हाल हो जो 2019 में हुआ था, जब नोटा से भी कम वोट मिले थे। दिल्ली की नई मुख्यमंत्री आतिशी का प्रभाव नहीं होगा। वह कह ही चुकीं हैं कि उनका काम अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाना है। हरियाणा में किसी तीसरे की गुंजायश नही है। अफ्रीकी मुहावरा है कि जब दो हाथी लड़ते हैं तो घास रौंद दी जाती है।