हमारे विदेश मंत्री एस.जयशंकर पाकिस्तान की संक्षिप्त यात्रा कर लौट आए हैं। वह न केवल वहाँ शंघाई सहयोग संगठन (एस.सी.ओ.) की बैठक में शामिल होने गए थे बल्कि उन्होंने यह स्पष्ट भी कर दिया था कि वह केवल इस बहुपक्षीय कार्यक्रम के लिए जा रहे हैं न कि भारत -पाक सम्बंधों पर चर्चा के लिए। उनसे पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज 2015 में पाकिस्तान गईं थी। 2016 में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह वहाँ गए थे। विदेश मंत्री की यह टिप्पणी स्पष्ट करती है कि कोई आशा नहीं कि निकट भविष्य में दोनों देशों के सम्बंधों में कोई ख़ास सुधार होगा। पाकिस्तान के मीडिया में भी ऐसी ही खबरें प्रकाशित हुईं हैं कि उन्हें भी कोई आशा नही कि सम्बंध बेहतर होंगे। विदेश मंत्री को वहाँ भेज कर यह संकेत दे दिया कि हम इस संगठन, जिसके सदस्य हैं- भारत, चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान, किर्गिज़स्तान, कज़ाखस्तान, तजाकिस्तान और उज़बेकिस्तान- का पूरा सम्मान करते हैं इसीलिए पाकिस्तान के साथ कड़वे रिश्तों के बावजूद हम अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहें हैं।
हर भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के साथ सम्बंध सुधारने का प्रयास किया हैं पर उधर से आतंकवाद के रूप में जवाब मिलता रहा है। अटलजी को कारगिल मिला तो मनमोहन सिंह को मुम्बई पर हमला। नरेन्द्र मोदी को पठानकोट एयर बेस, उरी और पुलवामा के हमले मिले। इसी के जवाब में भारत ने बालाकोट पर हमला किया। अगस्त 2019 मे धारा 370 हटाए जाने से पाकिस्तान और भी छटपटाया और उनके प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी कि जब तक यह धारा बहाल नहीं होती दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नही हो सकते। हाल ही में यूएन में पाक पीएम शहबाज़ शरीफ़ ने फिर कश्मीर और धारा 370 का मामला उठाया यह अच्छी तरह जानते हुए कि न यह धारा बहाल होगी न ही दुनिया को जिसे ‘कश्मीर मसला’ कहा जाता है, में कोई दिलचस्पी रही है। वैसे भी भारत अब इतना शक्तिशाली हो चुका है कि विलाप करने के इलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं रहा। हाँ, जम्मू क्षेत्र में वह इक्का दुक्का आतंकी हमले करवाते रहतें हैं पर इतने भी नही कि मोदी सरकार जवाबी हमले के लिए मजबूर हो जाए।
शांतिमय सहअस्तित्व दोनों देशों के हित में है पर जैसे कहा गया,ताली एक हाथ से नहीं बजती। एस.सी.ओ. बैठक से ठीक पहले भारत में वानटेड ज़ाकिर नाइक को वहाँ आमंत्रित कर पाकिस्तान ने स्पष्ट कर दिया कि रिश्ते बेहतर करने में उनकी दिलचस्पी नहीं है। शहबाज़ शरीफ़ अपने कटटरवादी तत्वों और भारत विरोधी जरनैलों को संदेश देना चाहते हैं कि भारत विरोध में वह किसी से कम नहीं। पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने कहा है कि पाकिस्तान का “पुराना राग और ढर्रा क़ायम है…अभी रिश्ते सुधारने की गुंजायश नही हैं”। वहाँ हमारे पूर्व राजदूत शरत सभरवाल ने अपनी किताब इंडियाज़ पाकिस्तान कोननड्रम में लिखा है, “भारत ने पाकिस्तान के बारे जो भी नीति -विकल्प अपनाए हैं…पाकिस्तान को अपनी दिशा बदलने और भारत के साथ सामान्य रिश्ते क़ायम करवाने में असफल रहें हैं”। शिवशंकर मेनन जो उस समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे जब मुम्बई पर हमला हुआ था और जिन्होंने तब ज़ोर दिया था कि हमें तत्काल किसी न किसी तरह का बदला लेना चाहिए, ने भी अपनी किताब चौयसेज़ में लिखा है, “पाकिस्तान का अराजकता में गिरना, इसका कई पावर सैंटर में बंटना, सरकार का घटता हुआ दबदबा…इंडिया को समझना चाहिए कि यह टकराव लम्बा चलेगा और इसका कोई समाधान नही है”।
इस सब का परिणाम यह हुआ है कि पाकिस्तान प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर अशासनीय बनता जा रहा है। इस्लामाबाद से पत्रकार ओमर फारूक खान लिखतें हैं, “ शरीफ़ सरकार पर आरोप है कि वह विपक्ष की राजनीतिक जगह छीन रहे हैं। न्यायपालिका भी उतनी ही विभाजित है जितना बाक़ी समाज है”। राजनीति, समाज, न्यायपालिका और सेना सब इमरान खान जो विभिन्न मामलों को लेकर एक साल से सलाख़ों के पीछे हैं,को लेकर विभाजित हैं। इस वक़्त इमरान खान वहाँ सबसे लोकप्रिय नेता है क्योंकि उसने सीधा सेना की प्रमुखता को चुनौती दी है। पाकिस्तान में अब बहुत लोग यह महसूस करतें है कि सेना ने देश का भला करने की जगह नुक़सान अधिक पहुंचाया है। लोग कहते है कि भारत तो चाँद पर पहुँच गया पर पाकिस्तान भीख का कटोरा लेकर दुनिया के रईस देशों के दरवाज़े खटखटा रहा है। हाल ही में उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 24वीं बार आर्थिक पैकेज, 7 अरब डालर, मिला है।
पुलवामा के हमले और धारा 370 के हटने के बाद से व्यापार लगभग ठप्प है। उनके अपने आर्थिक विशेषज्ञ बताते हैं कि व्यापार खुलने से उनके निर्यात में 80 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। यह उनकी सामूहिक मूर्खता है जो उन्हें पड़ोस की सबसे तेज गति से तरक़्क़ी कर रही अर्थ व्यवस्था से सम्बंध बना अपना उद्धार करने से रोक रही है। पाकिस्तान ने भारत के साथ व्यापार रोक दिया है और भारत ने पाकिस्तानी माल पर 200 प्रतिशत शुल्क लगा दिया है। दोनों देशों के बीच जो व्यापार हो रहाहै वह दुबई या सिंगापुर की मार्फ़त हो रहा है। अगर व्यापार खुल जाए तो हमारे भी पाकिस्तान के साथ लगते इलाकों को फ़ायदा पहुँचेगा पर बहुत कुछ उनकी सेना के रवैये पर निर्भर है। एक तरफ़ 2021 से सीमा पर गोलीबारी में शान्ति है तो दूसरी तरफ़ वह अभी भी आतंकवादी भेजने से बाज़ नहीं आ रहे। कभी कभी यह संकेत मिलतें हैं कि उनकी सेना भारत के साथ सम्बंध बेहतर करना चाहती है पर ज़मीन पर हरकत नज़र नहीं आती।
जर्जर आर्थिक हालत का उनकी आंतरिक स्थिति पर बहुत बुरा असर पडरहा है। यह लगातार नाज़ुक बनती जा रही है। विशेष तौर पर बलूचिस्तान में दशकों से अलग होने का विद्रोह चल रहा है। यह न केवल पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है बल्कि खनिज पदार्थों में सबसे समृद्ध भी है। पाकिस्तान के ख़ज़ाने में बलूचिस्तान का सबसे अधिक योगदान है पर फिर भी यह सबसे गरीब प्रांत है। लोग शिकायत करते हे कि यहाँ का पैसा पाकिस्तान के पंजाब में जा रहा है। वहाँ बने चीन के आर्थिक गलियारे से और ग्वाडर बंदरगाह को चीन को देने से भी बलूच नाराज़ है। इसी का परिणाम है कि चीनियाँ पर लगातार हमले हो रहें हैं। वहाँ चीनी नागरिकों की सुरक्षा को को लेकर दोनों चीनी और पाकिस्तानी सरकारें चिन्तित है। पिछले सप्ताह कराची हवाईअड्डे के बाहर विस्फोट में दो चीनी मारे गए। इसमें भी बलूची विद्रोहियों का हाथ समझा जाता है। अगस्त में चार घटनाओं में बलूची विद्रोहियों ने 70 पाकिस्तानी मार दिए थे। इस विद्रोह को कुचलने के लिए पाकिस्तान की सरकार बहुत सख़्ती कर रही है। वहाँ युवाओं का अचानक ग़ायब हो जाना सामान्य बात है। हज़ारों मारे जा चुकेंहैं।
बड़ी समस्या है कि वह तय नहीं कर पा रहे कि इमरान खान और उनकी पीटीआई पार्टी का क्या किया जाए। इमरान खान की गिरफ़्तारी को लेकर उनके कार्यकर्ताओं ने पिछले साल मई में सैनिक संस्थानों पर हमले कर दिए थे। ऐसा पाकिस्तान में पहली बार हुआ है। कोई और होता तो देशद्रोह के आरोप में फाँसी पर लटका दिया जाता पर इमरान खान वहाँ इतना लोकप्रिय है कि सैनिक व्यवस्था को डर है कि उसके ख़िलाफ़ अगर कोई सख़्त कदम उठाया गया तो पाकिस्तान हिंसा और अराजकता में विस्फोट कर सकता है। इमरान की पार्टी की ताक़त इतनी है कि एससीओ बैठक के दौरान प्रदर्शन को रोकने के लिए राजधानी इस्लामाबाद और रावलपिंडी को लॉकडाउन कर दिया गया और सेना के हवाले कर दियागया था।
एक बार फिर वह देश सेना की गिरफ़्त में है। परिणाम है कि देश की संस्थाओं कमजोर पड़ती जा रही हैं। पत्रकार हमीद मीर का कहना है कि, “यह असहिष्णुता चरमपंथ को बढ़ावा दे रही है”। पत्रकार मरिआना बाबर लिखती हैं कि “आज पाकिस्तान की सभी संस्थाऐं एक दूसरे से टकरा रहीं हैं”। राजनीतिक अर्थ शास्त्री नियाज़ी मुर्तज़ा जो ताशकंद में पढ़ाते हैं तो और भी आगे बढ़ गए हैं, “पाकिस्तान का लोकतंत्र अब एक संकटग्रस्त प्रजाति बनता जा रहा है… अब इसे विलुप्त प्रजाति बनाने की तैयारी कर ली गई है। इसे समुद्र में दफ़ना दिया जाएगा ताकि लोकतंत्र प्रेमियों को इसकी कब्र बनाने के लिए अवशेष भी न मिलें”।
ऐसी हालत में यह कोई आशा नहीं थी कि एस.जयशंकर की यात्रा से जमी बर्फ़ पिघल जाएगी। जयशंकर वैसे भी पाकिस्तान के मामले में आक्रामक रहे है। पिछले साल जब गोवा में सम्मेलन के लिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल ज़रदारी से सामना हुआ तो जयशंकर ने हाथ मिलाने की जगह ‘नमस्ते’ किया था। न ही वह दलजीत दोसांझ हैं जिन्होंने लंडन में अपने कार्यक्रम में एक पाकिस्तानी अभिनेत्री हानिया आमिर को स्टेज पर बुला लिया था। इसमें कोई आपत्तिजनक नहीं है और पाकिस्तान में इस पर अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी पर दोनों देशों के रिश्ते नाटकीय भावना पर आधारित नहीं होते। हमारे लिए उनकी नापाक हरकतें भूलना मुश्किल है। उनकी आंतरिक उथल-पुथल बातचीत शुरू करने के लिए और भी निरुत्साहित करती है। यह भी मालूम नहीं कि बात किस से करें? शाहबाज़ शरीफ़ की लंगड़ी सरकार से या जनरल असीम मुनीर की सेना से? जब तक वह अपना आंतरिक विरोधाभास हल नहीं कर लेते, जिसकी कोई सम्भावना नज़र नहीं आती, तब तक बातचीत करने का लाभ नहीं है। इतना ही प्रयास होना चाहिए कि रिश्ते नियंत्रण से बाहर न हो जाऐं। चीन और पाकिस्तान के बीच बढ़ती दोस्ती भी हमारे हित में नही है।
दिसम्बर 2008 में मुम्बई पर हमले के बाद अमेरिका की विदेश मंत्री मैडलिन एलब्राइट ने पाकिस्तान को “अंतराष्ट्रीय माइग्रेन (सरदर्द)” कहा था। यह माइग्रेन हमारे पड़ोस में स्थित है और इस माइग्रेन केइलाज की कोई दवा नज़र नहीं आती।