प्रियंका गांधी की सक्रिय एंट्री, Priyanka Gandhi’s Entry

पुरानी बात है। तब लाल कृष्ण आडवाणी देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे (2002-04)। उनके निवास स्थान पर एक मुलाक़ात के दौरान मैंने उनसे प्रियंका गांधी के राजनीतिक भविष्य के बारे पूछा था। आडवाणीजी का जवाब था, “हाँ, वह एक चुनाव जीत सकतीं हैं”। प्रियंका उस वक़्त लगभग 30 वर्ष की थीं। 1989 में जब वह 17 वर्ष की थीं तो अपने पिता राजीव गांधी के लिए उन्होंने प्रचार किया था पर अधिकतर माँ और भाई का हाथ ही बँटाती रहीं। उस वक़्त कहा गया कि प्रियंका की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि न केवल शक्ल बल्कि हाव भाव में भी वह इंदिरा गांधी से मिलती हैं। जब माँ सोनिया गांधी कर्नाटक में बेल्लारी में सुषमा स्वराज के खिलाफ चुनाव लड़ रहीं थी और प्रियंका वहाँ प्रचार करने गई थी, तब भी वहां कहा गया कि वह ‘इंदिरा अम्मा जैसी लगतीं हैं”।

 सोनिया गांधी पर अपनी किताब, द रैड साड़ी में लेखक जैवियर मोरों प्रिंयका के बारे लिखतें हैं कि, “ वह इंदिरा गांधी जैसी बहुत लगती हैं। वहीं चाल ढाल, वहीं चमकती आँखें”। जैड एडम्स जिन्होंने किताब लिखी थी द डायनेस्टी: द नेहरू गांधी स्टोरी में बताया है कि “राजीव गांधी भी अपनी बेटी प्रियंका की तुलना अपनी माँ इंदिरा से करते थे क्योंकि दोनों में दृढ इच्छाशक्ति है”। यह भी कहा गया कि प्रियंका में अपनी दादी की जुझारू भावना है। उन्हें राजनीति का शौक़ शुरू से है जिस मामले में वह अपने भाई से अलग हैं। राहुल गांधी का राजनीति में प्रवेश मजबूरी में अनिच्छा से हुआ था। याद करिए कि राहुल ने कहा था कि जब वह पहली बार पार्टी के उपाध्यक्ष बने तो जहां सब उन्हें बधाई दे रहे थे उनकी माँ ने कमरे में आ कर रोते हुए कहा था कि राजनीति ‘ज़हर’ है। जहां तक प्रियंका गांधी का सवाल है उन्होंने ऐसी कोई कमजोरी नहीं दिखाई। राजनीति में उन्हें इतनी दिलचस्पी थी कि चिन्तित राजीव गांधी ने साथियों से भी कहा था कि वह प्रियंका को राजनीति में प्रवेश से मना करें।

पर प्रियंका का राजनीतिक प्रवेश ठहर गया था। माँ सोनिया गांधी चाहती थी कि पुत्र राहुल गांधी ही उत्तराधिकारी बने। इस बीच प्रियंका भाषण देती रहे पर सक्रिय राजनीति से वह अलग रही। भाषण देने में वह अपने पिता और भाई से अधिक सहज और साफ़ हैं। हिन्दी बोलने पर उनका अच्छा अधिकार है। राहुल गांधी को भी शुरू में समस्या आई थी चाहे अब वह अधिक सहज है पर प्रियंका का व्यक्तित्व अधिक आकर्षक है और वह अपनी दादी की ही तरह लोगों से रिश्ता जोड़ लेती हैं। भीड़ को आकर्षित करने की क्षमता है। वह अधिकतर पृष्ठभूमि में रह कर पहले माँ और फ़िर भाई की मदद करती रही पर अब पहली बार सक्रिय राजनीति में कदम रखा है और केरल से वायनाड से उपचुनाव लड़ रही हैं जो सीट उनके भाई ने ख़ाली की है। यह दिलचस्प है कि यह प्रियंका गांधी का पहला चुनाव होगा जबकि राहुल गांधी अब तक पाँच बार चुनाव लड़ जीत चुकें हैं।

इस बीच प्रियंका ने राजनीति में जो भी कदम उठाए वह सफल नहीं रहे। एक प्रकार से उन्होंने आडवाणी जी की भविष्यवाणी को ग़लत साबित कर दिया। देश भी बदल गया और 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 साल से नीचे है। इंदिरा गांधी की याद धुंधली पड़ रही है। इंदिरा गांधी जैसा लगना अब बहुत स्ट्रोंग पौयंट नहीं रहा। कांग्रेस अब तेज़ी से ‘राहुल कांग्रेस’ बनती जा रही है। प्रियंका के साथ दो बड़ी असफलताएँ जुड़ी हुईं है। 2019 में वह पार्टी की महासचिव बनी और उन्हें उत्तर प्रदेश का कार्यभार सम्भाला गया। वह प्रभावशाली ढंग से असफल रहीं। 2022 के चुनाव में ‘लडकी हूँ, लड़ सकती हूँ’ का नारा भी फेल हो गया और पार्टी का वोट 2017 के 6 प्रतिशत से  2022 में गिर कर 2 प्रतिशत रह गया। निराश प्रियंका उत्तर प्रदेश को अपने हाल पर छोड़ कर बाहर निकल आईं। दूसरी बड़ी असफलता पंजाब में देखी गईं जहां प्रियंका ने असंतुलित नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तेमाल एक बुलडोज़र की तरह किया जिसने अपनी ही अमरेन्द्र सिंह सरकार को अस्थिर कर दिया। पंजाब में कांग्रेस के पास सब कुछ था। संगठन था और लोकप्रियता थी, पर सिद्धू प्रियंका गांधी से मिली बैकिंग से विनाशक बन गए और आम आदमी पार्टी मौक़े का फ़ायदा उठा गई। पंजाब में पार्टी के वर्तमान बनवास और बदहाली की ज़िम्मेवारी सीधी प्रियंका गांधी पर जाती है।

कोई और होता तो उसे कोने में लगा दिया जाता पर कांग्रेसी जानते हैं कि गांधी परिवार के बिना उनकी गत नही इसलिए अब प्रियंका वायनाड से उम्मीदवार हैं जहां उनके जीतने  की प्रबल संभावना है। चुनाव क्षेत्र की बनावट ऐसी है कि प्रियंका को हराना बहुत मुश्किल है चाहे इंडिया गठबंधन के घटक सीपीआई ने भी  उम्मीदवार खड़ा किया है। वहाँ 43 प्रतिशत मुसलमान,13 प्रतिशत ईसाई,10 प्रतिशत आदिवासी,और 7 प्रतिशत दलित है। यह जुटाव भाजपा को कोई मौक़ा ही नहीं देगा जिसने वहाँ उम्मीदवार खड़ा किया है क्योंकि अल्पसंख्यक पार्टी से दूर हैं। ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारों से अल्पसंख्यक और दूर जाऐंगे। जब जब उत्तर भारत ने गांधी परिवार को ठुकराया तो दक्षिण ने शरण दी है। अमेठी हारने के बाद राहुल भी वायनाड चले गए थे। उनसे पहले इंदिरा गांधी ने तेलंगाना में मेडक से चुनाव लड़ा था।जब एमरजैंसी के बाद उत्तर भारत में वह ठुकराई गई तो कर्नाटक में चिकमंगलूर से चुनाव जीत कर अपनी वापिसी की शुरुआत की थी। सोनिया गांधी ने भी बिल्लेरी का सहारा लिया था।

प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में उस समय कदम रख रही है जब कांग्रेस हरियाणा की हार से कुछ लड़खड़ा गई है। लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन से जो बढ़त मिली थी वह हरियाणा में खो दी गई। लोकसभा चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी कुछ देर शांत रहे थे पर अब वह भी पुराने स्टाइल में लौट आए हैं। हरियाणा की हार के लिए कांग्रेस का हाईकमान ही ज़िम्मेवार है। राहुल गांधी नाराज़ बताए जातें हैं पर उन्होंने ही सब कुछ भुपिन्दर सिंह हुड्डा के हवाले कर दिया था। कुमारी शैलजा 15 दिन नाराज़ बैठी रही पर कोई मनाने नहीं गया। जब तक वह प्रचार में अनिच्छुक शामिल हुई तो बहुत देर हो चुकी थी और दलित वोट कांग्रेस से खिसक चुका था। राहुल गांधी का प्रचार भी फीका रहा। अकेले लड़ने का निर्णय भी उल्टा पड़ा। अगर कांग्रेस नौ सीटों पर 22916 वोट और जीतने में सफल होजाती तो उसका बहुमत होता। जिस जगह राहुल गांधी ने जलेबी खाई और जिसका प्रचार किया गया और बाद में मज़ाक़ भी बना, वहाँ भी कांग्रेस हार गई। जम्मू में भी कांग्रेस अपना खाता नहीं खोल सकी और कश्मीर में जो प्राप्ति हुई वह नेशनल कांफ्रेंस की मेहरबानी से हुई। इस सब का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस की हवा बनते बनते ख़राब हो गई। उत्तर प्रदेश के 10 उपचुनाव में पार्टी ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा। अखिलेश यादव ने मौक़ा ही नहीं दिया। महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी में  कांग्रेस जो सबसे बड़ी पार्टी है, उद्धव ठाकरे और शरद पवार के दबाव में आ गई और तीनों अब बराबरी पर हैं।

जब बहुत अधिक केन्द्रीयकरण हो जाऐ तो यह ही होता है। जवाबदेही नहीं रहती। विदेशों में राहुल गांधी शिकायत करते हैं कि देश में लोकतंत्र ख़तरे में है पर अगर प्रियंका जीत जाती हैं तो संसद में गांधी परिवार के तीन सदस्य होगें। संदेश है कि कांग्रेस में  लोकतान्त्रिक सिद्धांत नही, वंशवाद का सिद्धांत चलता है। शिखर पर किसी और के लिए जगह ख़ाली नहीं है। प्रियंका के सांसद बनने से क्या कोई फ़र्क़ पड़ेगा? पहली बात तो है कि अभी प्रियंका गांधी की परीक्षा होनी है। फिर भी उनमें कुछ योग्यता है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। उनमें दृढ़ता है जो शायद दो परिवारिक ट्रैजेडी सहने के बाद पैदा हो गई है। जब पिता राजीव गांधी की श्रीपेरम्बूदर में हत्या हुई तो प्रियंका केवल 19 वर्ष की थीं। राहुल हार्वर्ड में पढ़ रहे थे। प्रियंका ने ही न केवल बुरी तरह से टूटी हुई मां को सम्भाला बल्कि सारा प्रबंध भी देखा। उस भयानक क्षण में उन्होंने ग़ज़ब की परिपक्वता और प्रबंधन का परिचय दिया। बाद में उन्होंने ने ही अपनी मां को राजनीति में कदम रखने के लिए प्रेरित किया कि अगर वह कदम नहीं रखेंगी तो पार्टी बिखर जाएगी।

प्रियंका गांधी की ज़िन्दगी का एक अनोखा पन्ना और है। यह राजीव गांधी की हत्यारिन नलिनी मुरगन के प्रति उनका रवैया था। प्रियंका उससे विलौर जेल में जा कर मिली थी। नलिनी जिसको फाँसी लगनी थी,की एक छोटी बेटी भी थी। प्रियंका के सुझाव पर सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति के आर नारायणन को पत्र लिखा था कि “न मैं और न ही मेरे बच्चे राहुल और प्रियंका चाहते हैं कि एक और ज़िन्दगी को बुझा दिया जाए। उसकी छोटी बेटी है। मेरे बच्चों ने भी पिता खोया था। कोई भी बच्चा हमारे कारण अनाथ नहीं बनना चाहिए…इसलिए हमारी अपील है कि उसे फाँसी के फंदे से बचा लिया जाए”। उसी के बाद नलिनी की क़िस्मत बदल गई और वह फाँसी से बच गई। 31 साल के बाद वह जेल से बाहर आगई।

 प्रियंका की सक्रिय राजनीति में एंट्री को लेकर कई सवाल उठाए जा रहें है, और उठाए जातें रहेंगे। राहुल-कांग्रेस में उनकी भूमिका क्या होगी? क्या वह कांग्रेस के संगठन की कमज़ोरियाँ के ख़त्म कर सकेंगी? क्या दक्षिण में कांग्रेस और मज़बूत होगी? क्या कांग्रेस केवल भाई-बहन पार्टी बन जाएगी जहां वही सारे फैसले करेंगे? क्या वह अपने भाई से अधिक तो नहीं चमकेंगीं? यह सब सार्थक है, पर नलिनी मुरगन की रिहाई के मामले में परिवार ने जो भूमिका निभाई जिसमें प्रियंका प्रेरक थीं, निश्चित तौर पर असाधारण इंसानियत का परिचय देती है।

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About Chander Mohan 739 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.