जिस देश में गंगा बहती है, Jis Desh Mein Ganga Behti He

महाकुम्भ सम्पन्न हो गया। 29 जनवरी को मौनी अमावस्या के दिन भगदड़ के हादसे और 15 फ़रवरी को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ से हुई मौतों के बावजूद करोड़ों लोगों ने पूरी आस्था के साथ स्नान किया। सरकार का दावा है कि 50-60 करोड़ लोगों ने डुबकी लगाई। एक बड़ा हादसा और भी हुआ, जिसका मैं बाद में वर्णन करूँगा,पर इस आयोजन को सफलतापूर्वक सम्पन्न करवाने और करोड़ों भक्तों को सम्भालने पर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार श्रेय ले सकती है। विपक्ष आलोचना कर रहा है। ममता बनर्जी ने इसे ‘मृत्यु कुम्भ’ कहा है। यह पूरी तरह से अनुचित है और करोड़ों की आस्था का भद्दा मज़ाक़ है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ़्रायड ने इंसानों में मृत्यु और आत्म विनाश की प्रवृत्ति, ‘डैत्थ विश’ की बात कही है। लगता है कि हमारे विपक्षी दलों और उनके नेताओं में भी ‘डेत्थ विश’ है, नही तो जिस धार्मिक आयोजन में करोड़ों की आस्था है उसे ‘मृत्यु कुम्भ’ न कहते। ऐसा कह कर वह खुद को मुख्य धारा से अलग कर रहें हैं।

29 जनवरी का हादसा बहुत दर्दनाक था। सरकार कहती हैं कि 30 लोग मारे गए और 90 घायल हुए जबकि आम राय है कि इससे कहीं अधिक लोग मारे गए क्योंकि अभी भी कई अपने प्रियजनों की तलाश में भटक रहें हैं। घटनास्थल पर प्रवेश और निकासी एक ही रास्ते से हो रही थी जिस पर बेचैन भीड़ ने बैरिकेड तोड़ दिए और लोगों को रौंदती आगे बढ़ गई। अधिकतर की मौत ट्रॉमैटिक एक्सफेसिया यानी छात्ती या शरीर के उपरी हिस्से पर दबाव पड़ने से हुई। ऐसा ही दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुए हादसे में भी हुआ। हमारे देश में भीड़ की अनुशासनहीनता और व्याकुलता अधिकतर हादसों के लिए ज़िम्मेवार है। नई दिल्ली में राजपथ को ‘कर्तव्य पथ’ में तो बदल दिया गया पर लोगों को सही तरीक़े से कर्तव्य नही सिखाया गया। पर्यावरणविद अनिल प्रकाश जोशी ने सही कहा है कि “भीड़ की भगदड़ भी नई आपदा बन रही है”। भीड़ सीमा और मर्यादा तोड़ने के लिए तैयार रहती है और जब व्याकुल हो जाए तो देखती नहीं कि आगे क्या है, जो रास्ते में आता है उसे कुचलती जाती है। बिल्कुल आत्म-अनुशासन नहीं है। और अगर इसके साथ प्रशासनिक लापरवाही और अक्षमता भी जुड़ जाए तो तबाही हो जाती है।

यह नही कि ऐसा केवल यहाँ ही होता है। मक्का जहां हज पर लाखों लोग जाते हैं में पिछले 25 साल में छ: बड़े हादसे हो चुकें हैं। 2015 में वहाँ भगदड़ में 2000 लोग मारे जा चुकें हैं। हमारे यहाँ भीड़ को सही सम्भालना बहुत बड़ी चुनौती बन चुकी है। अफ़सरों और सरकारी कर्मचारियों के लिए भीड़ को सम्भालने का कोर्स अनिवार्य होना चाहिए। अगर अधिकारी भीड़ सम्भालने के मामले में लापरवाह न होते तो दिल्ली रेलवे का हादसा न होता। अक्षमता का यह हाल था कि कई सरकारी एजेंसियाँ एक दूसरे का प्रतिवाद कर रही थीं। मालूम था कि प्रयागराज जाने के लिए लोग बेताब हैं फिर तंग प्लैटफ़ॉर्म पर हज़ारों की खचाखच भीड़ को इकट्ठा क्यों होने दिया गया? अचानक हुई घोषणाओं के कारण भीड़ बेक़ाबू हो गई। रेलवे देश की लाईफ़ लाइन है। हर साल 2.4 करोड़ लोग रेल में सफ़र करें हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर  ही रोज़ाना 500000 लोग आते -जातें है। जब त्यौहार होते हैं जैसे दीवाली या छठ पूजा या कुम्भ, तो संख्या और बढ़ जाती है। रेलवे के पूर्व जनरल मैनेजर सरबजीत अर्जुन सिंह ने लिखा है कि “ऐसे हादसों को रोकने के लिए भीड़ पर नियंत्रण ज़रूरी है…ऐसी घटनाएँ अप्रत्याशित हैं पर सही तैयारी के साथ रोकी जा सकती हैं”।उन्होंने अनारक्षित डिब्बों के लिए जनरल टिकट की सेल पर निगरानी रखने की सलाह दी है। साथ ही नज़दीक  छोटे स्टेशनों को विकसित करने की वकालत की ताकि बड़े स्टेशनों पर भीड़ कम हो सके। उनका एक और सुझाव कि प्रवेश और निकासी अलग अलग रास्तों से होनी चाहिए जैसे एयरपोर्ट पर होती है। इस वक़्त तो प्रवेश कर रहे यात्री और बाहर निकल रहे यात्री एक ही जगह से आते जाते है जिससे  भगदड़ का जोखिम बढ़ा जाता हैं।

जो सरबजीत सिंह ने सुझाव दिए उसके लिए इंफ़्रास्ट्रक्चर में बहुत तब्दीली की ज़रूरत है। सरकार बड़े स्टेशनों को चमका रही है, फ़ूड कोर्ट और शापिंग मॉल बनाना चाह रही है पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का हादसा बता गया कि असली ज़रूरत क्या है? रेलवे स्टाफ़ की मानसिकता भी बदलनी की ज़रूरत है। जब पहले ही भीड़ थी तो फिर धडाधड अनुरक्षित टिकट क्यों बेचे गए? दो घंटे में 2600 टिकट बेचे गए। यह सवाल दिल्ली हाईकोर्ट ने भी रेल विभाग से किया है कि, “ जब हर डिब्बे के लिए यात्रियों की संख्या निर्धारित है तो फिर सीमा से अधिक टिकट क्यों बेचे गए?” रेल विभाग का कहना है कि बहुत चुनौतियाँ हैं और विशेष तौर पर आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हो जाते है।

 रेल विभाग ने जाँच भी बैठाई है पर ऐसी सरकारी जाँचों का क्या हश्र होता है यह सब जानते है। देश में समस्या भी ‘आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग’ को ही आती है। किसी हादसे में वीआईपी को मरते नहीं देखा। कुम्भ में जहां आमजनों को दस-दस पन्द्रह -पन्द्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ा वहाँ वीआईपी को ऐसी कोई परेशानी नहीं आई। संगम पर स्नान के जो चित्र देखने को मिले हैं उनमें जनता तो भीड़ में स्नान कर रही है जबकि वीआईपी दूर अपने ‘एकाकी वैभव’ में डुबकी लगाते नज़र आतें हैं। निश्चित तौर पर साथ फ़ोटोग्राफ़र भी रहता है ताकि उनका चित्र देख जनता धन्य हो जाए! और अगर आप वीवीआईपी हैं तो कुछ दूर दूर बाडीगार्ड भी पानी में खड़े रहेंगे कि अगर पैर फिसल जाए तो पकड़ लें। उनके लिए विशेष घाट भी बनाया गया जहां पानी की हालत बेहतर थी। पर ऐसा हमारा देश है, धार्मिक समागमों में भी बराबरी नहीं है।

यह कारण भी है कि देश में इतने हादसे होतें हैं। क्योंकि फँसने वाली आम जनता है इसीलिए सही जवाबदेही नहीं होती। नई दिल्ली स्टेशन पर हादसे के बाद अक्षम अधिकारियों की तुरंत बर्ख़ास्तगी होनी चाहिए थी पर जाँच बैठा कर ख़ानापूर्ति कर ली गई है। इस देश में अक्सर धार्मिक अवसरों पर भगदड़ मचती है, बरसात में बिहार में पुल बह जाते है, कोटा के कोचिंग कारख़ानों में बच्चे आत्म हत्या करते रहतें हैं, हर बार मुम्बई में एक न एक इमारत बरसात में गिर जाती है और लोग दब कर मर जाते है, सड़कों पर गड्ढों के कारण वाहन चालकों को चोट लगती रहती है कई तो मारे जातें हैं। कई अस्पतालों में आग लग चुकी है। कई बार तो नवजात आग में झुलस चुकें हैं। सुरंगों और खानों में मज़दूर फँसते रहते हैं। नवीनतम समाचार तेलंगाना से है जहां 14 किलोमीटर लम्बी निर्माणाधीन सुरंग की छत के एक हिस्से के गिरने से 8 लोग अंदर फँस गए हैं। दिल्ली में भी निर्माणाधीन हवाई अड्डे की छत गिर चुकी हैं। इन सब में समानता क्या है? एक, कि कमजोर कार्य संस्कृति है और दूसरा कोई जवाबदेही नहीं है। केवल पीड़ित न्याय के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं।

प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अक्षमता ऐसे हादसों को जन्म देतें हैं। पर प्रयागराज में एक हादसा और हुआ है। इस हादसे की शिकार गंगा हुई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार करोड़ों लोगों के स्नान के कारण गंगा का जल इतना प्रदूषित हो गया है कि वह स्नान के लिए भी सुरक्षित नहीं। इस रिपोर्ट के अनुसार गंगा – यमुना जल में संगम के नज़दीक भयंकर मात्रा में ‘फेकल बैक्टीरिया’ यानि मल- कीटाणु पाए गए। रिपोर्ट के अनुसार,“ महाकुंभ के अवसर पर भारी संख्या में लोग प्रयागराज में गंगा में स्नान करते हैं…इससे मल-दूषण बढ़ता है”। नदी के पानी में मानव और पशुओं के मल से निकले सूक्ष्म जीवों की उच्च मात्रा पाई गई। उत्तर प्रदेश की सरकार इसका ज़बरदस्त प्रतिवाद करती है। सरकार का कहना है कि कोई सीवरेज का पानी सीधा नदी में नही जा रहा। योगी आदित्य नाथ का कहना है कि विपक्ष दुष्प्रचार कर रहा है जबकि संगम का जल आचमन के भी योग्य है।

योगी अनावश्यक नाराज़ हो रहें हैं। यह विपक्ष की नहीं केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट है। जहां करोड़ों उपस्थित हैं वहाँ यह होगा ही। पर्दा डालने की कोई ज़रूरत नहीं। पानी को साफ़ रखने के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार ने उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। हर रोज़ संगम से कई टन कूड़ा मशीनों के ज़रिए निकाला जाता रहा है। अनुमान है कि 30 दिनों में 11000 टन कचरा निकाला गया है। लगभग 1000 वाहन इस काम के लिए लगाए गऐ। इससे पता चलता है कि कितना विशाल इंतज़ाम किया गया। जहां करोड़ों लोग इकट्ठा हों वहाँ गड़बड़ की गुंजायिश रहती है जैसे 29 जनवरी का हादसा हुआ है। इतनी भीड़ से न केवल प्रयागराज, बल्कि अयोध्या और काशी को जाने वाले रास्ते भी जाम हो गए थे। प्रयागराज के लोग तो शिकायत कर रहे थे कि इतने लोग अंदर आ चुकें हैं कि ब्रेकिंग पौंयंट पहुँच रहा है। इस सबके बावजूद उत्तर प्रदेश की सरकार ने अच्छी व्यवस्था की थी। जब 50 करोड़ लोग नदी किनारे तंग जगह इकट्ठे होतें हैं तो पूर्ण सुरक्षा देना तो चमत्कार ही होगा। योगी जी अपने अफ़सरों की पीठ थपथपा सकतें है कि उन्होंने बहुत चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में कुम्भ का सफल आयोजन किया है। अफ़सोस यह है कि खुद को पवित्र करने की कोशिश में लोग गंगा को अपवित्र छोड़ आए। आप पवित्र, गंगा अपवित्र! यह सबसे बड़ा हादसा है।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.