जिस देश में गंगा बहती है
बिहार में छपरा की दर्दनाक घटना जहां जहरीले सरकारी मिड डे मील खाने से 23 बच्चे मारे गए के बाद देश भर से खबरें मिल रही हैं जहां बच्चों को दूषित भोजन परोसा गया। अमृतसर में ऐसे भोजन में कीड़े मिले तो पुणे में आयरन की गोलियां खाकर 132 बच्चे बीमार हो गए। तमिलनाडु, गोवा, दिल्ली, चेन्नई सब जगहों से ऐसी चिंताजनक खबरें मिल रही हैं। मरी हुई छिपकली, सांप, मेंढक सब मिल चुके हैं। कीटनाशक आम मिल रहे हैं। राजस्थान में तैयार किए गए भोजन से मरा हुआ सांप निकल चुका है। हरियाणा जैसे प्रगतिशील प्रांत में 2011 में कुरूक्षेत्र में तीन गांवों में 100 बच्चे बीमार पड़ चुके हैं। मध्यप्रदेश में 4 सालों में 7 बड़े मामले निकल चुके हैं जिनमें 140 बच्चे बीमार हुए थे। झारखंड में भोजन में कीड़े मिले जिससे 25 बच्चे बीमार हुए। जून में गोवा में इसी प्रकार 86 बच्चे बीमार पड़ गए थे। कागजों में तो सब कुछ बड़ी सोच विचार के साथ तैयार किया गया है लेकिन प्रशासनिक लापरवाही ऊपर से शुरू हो कर नीचे तक पहुंच रही हैं। बिहार के संदर्भ में भी केंद्रीय सरकार ने कई बार चेताया था कि लापरवाही बरती जा रही है लेकिन सरकार सोई रही। यह कैसा देश है जो अपने गरीब बच्चों के लिए भोजन में ऐसी चीजों की मिलावट करता है जो हानिकारक हैं, और कई बार घातक निकलती हैं? अब सरकार का कहना है कि राष्ट्रव्यापी निगरानी होगी। केंद्र कमेटी का गठन करेगी। कुछ नहीं होगा। वह केंद्र देश भर में क्या नजर रखेगा जो उसकी नाक के नीचे राजधानी दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों में घपला नहीं रोक सका? बिहार प्रशासन की हालत शोचनीय हैं। विषैले भोजन से पीडि़त बच्चों को पटना पहुंचाने में 16 घंटे लग गए। जिलाधीश के पहुंचने में छ: घंटे लगे। मुख्यमंत्री पहुंचे ही नहीं। अगर चुस्त मैडिकल मदद दी जाती तो शायद कई बच्चे बच सकते थे लेकिन गरीब मां-बाप तो साईकल पर बच्चों को हस्पताल पहुंचाते रहे। छपरा के बाद मधुबनी में इसी तरह मिड डे मील खाने के बाद बच्चे बीमार हो गए। यह इस देश की हकीकत है। यहां रोजाना ऐसे दुखांत होते हैं। गरीबों की कोई परवाह नहीं करता। केंद्र सरकार की दिलचस्पी केवल घोषणा में है अमल में नहीं है। लाखों टन अनाज हर साल सरकारी गोदामों में सड़ जाता है। लेकिन सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं। अब खाद्य सुरक्षा योजना जारी की जा रही है। कागज पर बढिय़ा योजना है। भूखे पेट को भोजन मिलना चाहिए उसे फर्क नहीं पड़ता कि यह अध्यादेश के रास्ते मिले या संसद में बहस के रास्ते, पर क्या गारंटी है कि उन्हें साफ-सुथरा अनाज मिलेगा? उसमें कीटनाशक नहीं मिले होंगे? गरीब बच्चे समाज का सबसे नाजुक हिस्सा हैं। न इनका स्वास्थ्य सही होता है न ही इन्हें भोजन सही मिलता है इसलिए इनके प्रति अधिक सावधानी की जरूरत है। बच्चों में खून की कमी होती है। अभिभावक पढ़े-लिखे नहीं होते। न ही उनके पास सही खुराक देने या स्वास्थ्य चैकअप के लिए ही पैसे होते हैं। मिड-डे मील जैसी योजनाएं यह कमी पूरी कर सकती है बशर्ते कि इन्हें तरीके से लागू किया जाए। जहां भोजन तैयार किया जाता है वहां सही सफाई नहीं होती। ऊपर से खरीद में घपला है। यहां जितनी बड़ी स्कीम होगी उतना बड़ा घपला होगा।
गरीबों को इस देश में विकास की खुरचन ही मिलती है। आजादी के छ: वर्षों के बाद भी सरकारी आकड़ें कहते हैं कि यहां 30 करोड़ गरीब है। दुनिया के एक तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में हैं। बहुत से आंकड़े ऐसे है जो बताते हैं कि भारत, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका तथा पाकिस्तान से भी पिछड़ा हुआ है। पैसा किधर गया? अगर आज भी खाद्य सुरक्षा की जरूरत है तो कहीं तो गफलत रही होगी। बिहार के शिक्षामंत्री का आरोप है कि खाने में जहर मिलाया गया। यह गंभीर आरोप है। अर्थात् उनका कहना है कि मामला आपराधिक लापरवाही का ही नहीं आपराधिक संलिप्तता का है। उनके विरोधी इसका बराबर जवाब दे रहे हैं लेकिन हकीकत है कि इस देश तथा इसके शासकों ने गरीब बच्चों से धक्का किया है। बिहार में ही 40 प्रतिशत अध्यापक अनुपस्थित हैं। ऐसी इजाजत कैसे है? क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है? राजनीति इतनी हावी हो गई कि कांग्रेस छपरा की घटना की खुली निंदा करने को भी तैयार नहीं। और कोई जवाबदेह नहीं। बिहार के शिक्षा मंत्री राजनीतिक साजिश की तो शिकायत कर रहें हैं पर एक क्षण के लिए भी श्रीमान ने यह नहीं सोचा कि नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए? आखिर इससे बुरा क्या हो सकता है कि सरकारी भोजन ही 23 बच्चों की जान ले गया? खुराक की जगह उन्हें जहर दिया गया।
मिड डे मील योजना बढिय़ा है। कल्याणकारी है। 12 करोड़ बच्चों को भोजन दिया जाता है। कई मां-बाप तो केवल इसलिए बच्चे स्कूल भेजते हैं ताकि उन्हें एक वक्त का तो खाना मिल जाएं। चीन इसके बारे जानकारी मांग चुका है। पर अब लोग सरकारी स्कूलों में बच्चे भेजने से घबराने लगे हैं क्योंकि मालूम नहीं कि इसमें क्या मिला होगा? सरकारी शिक्षा ही बदनाम हो गई है। सरकारी स्कूलों में वे ही बच्चे भेजते हैं जिनके पास और विकल्प नहीं हैं अब वे भी कतराने लगे हैं। उड़ीसा में भोजन में मरा हुआ बिच्छू निकल चुका है। जालन्धर में 19 सरकारी स्कूलों के पानी के सैम्पल फेल हो गए हैं। लापरवाही का आलम यह है कि न केवल सुरक्षित पानी देने का प्रबंध नहीं किया गया बल्कि स्वास्थ्य विभाग ने स्कूल अधिकारियों को सूचित ही नहीं किया कि उनका पानी पीने लायक नहीं है। अफसोस है कि इस कल्याणी योजना की इस तरह बदनामी हो रही है। अंग्रेजी टीवी चैनलों में बहुत बहस हो रही है। ‘हाईजियन’ की चिंता है, ‘सैनिटेशन’ की चिंता है। ये लोग समझते नहीं कि यह ही तो भारत की हकीकत है। गरीबों के घरों में ऐसे ही भोजन पकता है। उनके पास ‘हाईजियन’ देखने की सुविधा नहीं है। करोड़ों घर हैं जहां सही टायलेट नहीं है फिर ‘सैनिटेशन’ आयेगी कहां से।? जयराम रमेश शिकायत भी करते रहते हैं पर आजादी के छ: दशकों के बाद हम इस हकीकत को बदल नहीं सके। न ही हम सरकारी सेवाओं की उदासीनता और लापरवाही को ही बदल सके।
हमने अपना पर्यावरण नष्ट कर दिया। उत्तराखंड की त्रासदी इसका प्रमाण है। इस देश में कुछ भी साफ नहीं रहा। त्यौहारों के दिनों मिठाई खाना भी खतरनाक बन गया है। प्रकाश सिंह बादल ने स्वीकार किया है कि यहां न सांस लेने के लिए हवा साफ है, न पेट भरने के लिए भोजन साफ है और न ही पीने का पानी ही साफ मिलता है। पंजाब के बठिंडा क्षेत्र में बढ़ते कैंसर का यही कारण है। कैंसर हस्पताल खोलना या सस्ती दवाईयां देना तो इलाज है जरूरत तो बीमारी को जड़ से पकड़ने की है। कीटनाशक इंसाननाशक बन रहे हैं। घबराए लोग अब पानी की बोतले उठाए फिरते हैं पर कौन जाने इस पानी में क्या-क्या मिला हुआ है? हमारे देश की हकीकत बहुत गंदी है। अधिकतर भारतीय गंदे रहते हैं क्योंकि गरीबों के पास साफ-सुथरा रहना और अपनी ‘हाईजियन’ की सुध लेने की सुविधा नहीं हैं। जिंदगी को जिंदा रखने की जद्दोजहद में उनके पास दूसरी बातों की फुर्सत नहीं है। एक भारत अवश्य ऐसा है जहां विज्ञापन में खूबसूरत हेमामालिनी ‘वाटर प्योरेफायर’ बेचती नजर आती हैं। पर हमारी हकीकत बदसूरत है। यहां तो गंगा भी ‘प्योर’ नहीं रही!
जिस देश में गंगा बहती है,
अती दुखद घटना है…. मासूम जिंदगियों से खेल गया है
भारत की सबसे बडी समस्या है ‘भ्रीष्टाचार’ .. जिस दिन इस समस्या का निदान हो गया उस दिन बाकि समस्याए भी सुलझने लग जाएँगी. जो गरीब दो वक़्त के खाने को तरसते हैं उनके लिए HYGIENE जैसे शब्द बेमाने हैं.. पर उन नेताओं को इन समस्याओ का ज्ञान कैसे होगा जिनकी दिन भर की चाय का खर्चा ६५०० रूपये हो.