विदेश नीति में भी समर्पण
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह श्रीलंका में होने वाले राष्ट्रमंडल सम्मेलन में उपस्थित नही होंगे। वैसे तो मैं राष्ट्रमंडल को ही एक फिज़ूल संस्था समझता हूं। आखिर इंग्लैंड तथा उसकी पूर्व उपनिवेशों के बीच क्या सांझ हो सकती है? फिर भी मैं प्रधानमंत्री के निर्णय को दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं क्योंकि राष्ट्रमंडल की अप्रासंगिकता के बावजूद भारत इस फिज़ूल संगठन को गंभीरता से लेता रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद दो राष्ट्रमंडल सम्मेलन में शिरकत कर चुके हैं। प्रधानमंत्री का श्रीलंका न जाने का निर्णय आंतरिक दबाव में उठाया गया है। तमिलनाडु की दोनों बड़ी पार्टियां, अन्नाद्रुमुक तथा द्रुमुक इसके खिलाफ थी। तमिलनाडु की विधानसभा ने प्रधानमंत्री की प्रस्तावित यात्रा के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। तीन केंद्रीय मंत्री सार्वजनिक तौर पर मांग कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री को वहां नहीं जाना चाहिए। इनके इलावा वित्तमंत्री पी. चिदंबरम तथा रक्षामंत्री ए के एंटनी भी इसके खिलाफ थे। इस दबाव के आगे प्रधानमंत्री झुक गए। आखिर चुनाव के समय में कांग्रेस पार्टी तमिलनाडु को नाराज़ नहीं कर सकती थी। पर ऐसा करते हुए उन्होंने एक बार फिर विदेश नीति को कुछ प्रादेशिक हितों के आगे गिरवी रख दिया। पहले ऐसा ही समर्पण बांग्लादेश के साथ जल तथा ज़मीन समझौते के समय देखा गया जब प्रधानमंत्री को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबाव मानना पड़ा था।
ठीक है श्रीलंका से शिकायत है। लिट्टे को खत्म करने के लिए तमिलों का नरसंहार किया गया। भारत का जबरदस्त दबाव था कि लोगों के जख्मों पर मरहम लगाए। श्रीलंका कुछ हद तक ऐसा कर चुका है। वहां प्रादेशिक चुनाव हो चुके हैं लेकिन तमिल नागरिकों को बराबर अधिकार देने के मामले में अभी भी काफी कुछ करना बाकी है। ऐसा भारत श्रीलंका की सरकार के साथ संवाद के द्वारा करवा सकता है, उनके बहिष्कार के द्वारा नहीं। अगर उन्हें भारत की चिंता नहीं होगी तो वह बिल्कुल बेपरवाह हो जाएंगे। इससे न केवल तमिलों का बल्कि भारत का अहित होगा क्योंकि श्रीलंका का भूगोल तथा हिन्द महासागर में उसकी स्थिति का हमारे लिए बहुत सामरिक महत्त्व है। इसीलिए विदेश विभाग बहुत उत्सुक था कि प्रधानमंत्री वहां की यात्रा करें। लेकिन कांग्रेस पार्टी का दबाव इतना था कि प्रधानमंत्री को दौरा रद्द करना पड़ा। और यह दौरा उस वक्त रद्द किया गया जब चीन तथा पाकिस्तान श्रीलंका को अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रहे हैं।
चीन इस वक्त वहां अरबों रुपए खर्च कर रहा है। यह उल्लेखनीय है कि वह श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे के गृहप्रांत में हमबनटोटा में गहरी बंदरगाह बना रहा है। कोलम्बो बंदरगाह के विस्तार में भी चीन मदद कर रहा है। पाकिस्तान आर्थिक मदद तो नहीं कर सकता पर उसने श्रीलंका के सैनिकों को प्रशिक्षित करने की पेशकश की है। पहले भारत यह करता था पर तमिलनाडु की सरकार के विरोध के बाद हमने यह बंद कर दिया। अर्थात् जो जगह हम खाली कर रहे हैं उसे भरने का प्रयास चीन तथा पाकिस्तान कर रहे हैं। हम अपने महत्त्वपूर्ण पड़ोसी जिसकी अर्थव्यवस्था अब ताकतवार बन रही है की उपेक्षा कर रहे हैं जिसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। दो बार हम अमेरिकी दबाव में संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ मतदान कर चुके हैं। वह सरकार हमारे साथ अच्छे संबंध चाहती है लेकिन हम अनावश्यक तौर पर उन्हें चिढ़ा रहे हैं जबकि जाफना में अब तमिल नेशनल अलायंस की सरकार है और तमिल अपनी सरकार से खुश है।
भारत का इस वक्त झगड़ा चीन तथा पाकिस्तान से है। चीन के साथ फिर भी रिश्ते सुधर रहे हैं पर पाकिस्तान तो नियंत्रण रेखा तथा अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर गोलाबारी करता रहा है। हमारे अंदर आतंकवादियों की घुसपैंठ का वे सदैव प्रयास करते रहते हैं। लश्करे तोयबा, इंडियन मुजाहिद्दीन जैसे संगठन उनके इशारों पर चलते हैं। ऐसी दुश्मनी के बावजूद तथा तमाम विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री न्यूयार्क में नवाज शरीफ से मिले थे। इस मुलाकात के बाद भी पाकिस्तान की नापाक हरकतें जारी हैं। अगर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को मिल सकते हैं, चीन की यात्रा पर जा सकते हैं तो कोलंबों जाने पर उन्हें क्या आपत्ति है? इसी तरह ममता बनर्जी के दबाव में हम बांग्लादेश में अपनी मित्र शेख हसीना से वादाखिलाफी कर चुके हैं। घोषणा कर मुकर गए थे। हमने खुद शेख हसीना को कमज़ोर कर दिया। अगले चुनाव में वहां भारत विरोधी सरकार की संभावना बन रही है। हम अपने कुछ विशेष प्रांतों को विदेश नीति के मामले में वीटो देते जा रहे हैं जो अपने संकीर्ण हित को लेकर दबाव डालते हैं। अत्यंत खतरनाक परंपरा कायम की जा रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदेशनीति के डॉक्ट्रिन अर्थात् सिद्धांत का पहला बिंदू पड़ोसियों के साथ अच्छा रिश्ता बनाना है। इसी पर केंद्र की सरकार कुछ प्रदेशों के आगे झुक गई है। भावी महाशक्ति को अपने ही घर में समर्पण करना पड़ रहा है। इससे नुकसान होगा।
विदेश नीति में भी समर्पण ,