हम ऐसे क्यों हैं?
यह लेख मैं दस दिन यूरोप मेें गुजारने के बाद लिख रहा हूं। इस दौरान मैंने दक्षिण जर्मनी के खूबसूरत शहर म्यूनिख मेें बहुत समय गुजारा है। आज फिर उस अहसास का वर्णन कर रहा हूं जो मैं हर बार विदेश यात्रा से लौटने के बाद करता हूं, और जो हर भारतीय भी महसूस करता है जो विदेश से लौटता है कि हम ऐसे क्यों हैं, हम वैसे क्यों नहीं हैं? हम खुद को कितना भी महान समझे यह हकीकत है कि अनुशासन, ईमानदारी, कर्त्तव्य पालन आदि के मामले में हमने पश्चिम के देशों के लोगों से अभी बहुत कुछ सीखना है।
दस दिन मैं यूरोप मेेें घूमा हूं। मुझे कहीं पुलिस नजर नहीं आई। अगर एमरजैंसी की स्थिति बन जाए तो एक मिनट के अंदर पुलिस की कारें पहुंच जाती हैं पर चौराहों पर, बाजारों मेें, यहां तक कि हवाई अड्डों तथा रेलवे स्टेशनों पर पुलिस तैनात नजर नहीं आती। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग बिल्कुल अनुशासित हैं। जर्मनी की औटो बाहन अर्थात मुख्य सड़क जिसे हिटलर ने बनवाया था, पर गाडिय़ां 120 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ्तार से दौड़ती हैं पर मुझे एक दुर्घटना भी दिखाई नहीं दी। लोग गाड़ी चलाते वक्त अपनी अपनी लेन मेें रहते हैं। हमारी तरह घूमा घूमा कर गाडिय़ां आगे निकाली नहीं जाती। ट्रैफिक नियमों का पूरा पालन किया जाता है। न ही औटोबाहन पर मुझे कोई हार्न सुनाई दिया है। जरूरत ही नहीं। जर्मनी की तो कार्यकुशलता ऐसी है कि बस या टे्रन के टाइम से आप अपनी घड़ी मिला सकते हैं। अगर बस या टे्रन या ट्रैम का आने का समय 10.53 है तो वह 10.53 पर ही पहुंचेगी। न पहले न बाद में। हमारी तरह नहीं कि कोई भी टे्रन समय पर नहीं पहुंचती या रात वाली गाड़ी थकी हफी हुई अगले दिन सुबह पहुंंचती है।
रेलवे स्टेशन बिल्कुल कार्यकुशल तथा साफ सुथरे हैं। आप मासिक या साप्ताहिक या रोज का पास बना सकते हैं जिसके द्वारा निर्धारित क्षेत्र में आप बस या टै्रम या मैट्रो में असीमित यात्रा कर सकते हैं। हमारे यहां भी स्थानीय टे्रनों के लिये मासिक या साप्ताहिक टिकट मिलते हैं लेकिन एक अंतर है। वहां आपकी टिकट कोई चैक नहीं करता। न आते वक्त न जाते वक्त। रेलवे स्टेशन बिल्कुल खुले हैं। प्लेटफार्म टिकट नहीं होते क्योंकि फिजूल मेें कोई रेलवे स्टेशन नहीं आता लेकिन जो बात मैंने विशेष तौर पर वहां मैट्रो तथा टै्रम मेें सफर करने पर पाई कि कहीं भी टिकट चैक नहीं हुआ। वहां सरकार अपने नागरिकों से यह अपेक्षा करती है कि वह ईमानदारी से टिकट खरीदेंगे। सरकार भरोसा करती है और नागरिक इस भरोसे पर खरे उतरते हैं। कभी कभार शायद चैकिंग होती हो और जो बिना टिकट यात्रा कर रहे हों उन्हें जुर्माना लगता हो लेकिन इनकी संख्या इतनी कम है कि सरकार नियमित टिकट चैकिंग पर समय बर्बाद नहीं करती। कल्पना कीजिए कि अगर भारत में ऐसी खुली छूट दे दी जाए तो फिर क्या होगा? अभी ही टिकट चैकर की मुट्ठी गर्म कर सफर निकालने का प्रयास किया जाता है।
वहां सबको अपनी ड्यूटी का एहसास है। यहां सबको अपने अधिकार मालूम हैं पर ड्यूटी किस बला का नाम है? वहां हर शहर में अपने शहीदों या सैनिकों के लिए स्मारक हैं। जरूरी नहीं कि वह भव्य ही हों, काला पत्थर लगा कर भी उन्हें याद किया जाता है। पर हम तो 68 वर्षों में यह भी तय नहीं कर सके कि नई दिल्ली में शहीद-स्मारक कहां बनेगा? मामला दिल्ली सरकार, गृह मंत्रालय तथा रक्षा मंत्रालय के बीच झूल रहा है। कुछ तो शर्म करो यार!
म्युनिख का हवाई अड्डा बहुत बड़ा है लेकिन एक बात माननी पड़ेगी कि यह नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की तरह सुन्दर नहीं है। मुझे तो नई दिल्ली का अड्डा अधिक कुशल भी लगता है। हवाई अड्डे से उतर कर अपना पासपोर्ट आदि चैक करवा तथा सामान लेकर आप नई दिल्ली हवाई अड्डे मेें 30 मिनटों मेें बाहर आ सकते हैं। ऐसा बहुत कम हवाई अड्डों पर होता है। पहले बाहर से आ रहे हर भारतवासी को तस्कर समझा जाता था। शुक्र है यह अविश्वास खत्म हो गया। स्टाफ का रवैया मैत्रीपूर्ण है जो भारत मेें एक अनोखा अनुभव है।
एक और बात जो हर भारतीय को विदेश मेें प्रभावित करती है वह वहां की सफाई है। कहीं कोई कागज का टुकड़ा भी नजर नहीं आयेगा। सड़क पर थूकने का तो सवाल ही नहीं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकारी दफ्तरों की कुछ सफाई शुरू हुई है। कईयों की दीवार पर पान की पीक के निशान हैं। पर्यटन क्षेत्रों मेें भी प्लास्टिक बिखरा नहीं मिलेगा जैसा हम रोहतांग दर्रे तक पर देखते हैं। हमारे तो उत्सवों पर जब लंगर लगाया जाता है तो सड़क पर डूने और गंदगी बिखरी मिलती है। कहीं प्रदूषण नहीं। खाना-पीना साफ सुथरा है। शराब पीकर कोई गाड़ी नहीं चलाता क्योंकि सजा बहुत सख्त है। एक बार आप का लाइसैंस रद्द हो गया तो दस वर्ष नहीं मिलेगा और ऊपर से एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।
एक और बात जो मुझे बहुत प्रभावित की वह वहां महिलाओं की स्थिति है। कोई डर नहीं। रात के समय अकेली महिलाएं भी घूम सकती हैं। रात के वक्त मैट्रो या बस मेें अकेली महिलाएं सफर करती आम नजर आएंगी। कोई डर नहीं कि रेप हो जायेगा या गुंडे पीछे पड़ जाएंगे या छेडख़ानी होगी। कोई महिला को बुरी नजर से नहीं देखता। हम वियाना रात के एक बजे पहुंचे तो होटल के सामने एक महिला अपने कुत्ते को ले जाती नजर आई। ऐसी स्थिति यहां कब आएगी? इस मामले मेें हमारा वास्तव मेें पतन हुआ है। हम इसके लिये पश्चिम की हवा को दोषी ठहराते हैं लेकिन वहां तो ऐसी स्थिति नहीं है। एक कारण है कि अधिकतर पश्चिमी देशों मेें वेश्यावृत्ति वैध है। बड़े शहरों मेें बाकायदा रैड लाइट एरिया है जहां खुला धंधा चलता है। शायद यही कारण है कि आम महिलाओं को तंग नहीं किया जाता। क्या हमारी समस्या का भी यही इलाज है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी इज़ाजत दे दी जाए?
सबसे अधिक प्रभाव एक सभ्य, अनुशासित समाज का है। प्लेटफार्म मेें गंदगी नहीं है। पटरी क्रास करने का तो सवाल ही नहीं। जगह जगह पेशाब करते लोग नजर नहीं आते। आवारागर्द भी नजर नहीं आते। अपने काम से काम है। दिलचस्प है कि वहां रह रहे भारतीय भी बहुत अनुशासित रहते हैं। उन्हेें वहां अच्छे समुदायों मेें गिना जाता है। हर नियम या कानून या अनुशासन का वह पालन करते हैं पर यहां वापिस आकर वहीं लोग क्यों मचल जाते हैं? पहले मौके पर पुलिस वाले को नोट थमाने के लिये क्यों तैयार रहते हैं? यह जरूरत कब खत्म होगी?
हम मंगलयान पर पहुंच गए पर हमारी सड़कें टूटी हैं। शहर-गांव गंदे हैं। प्रधानमंत्री ने अमेरिका में भी स्वच्छता का जिक्र किया अब वापिस लौट कर वह खुद झाडू हाथ में पकड़ेंगे। गरीबी, अनपढ़ता, लाचारी, जनसंख्या ने हमें स्वच्छता के बारे लापरवाह बना दिया। प्रधानमंत्री सारे देश को झकझोरने की कोशिश कर रहे हैं। क्या वह सफल होंगे? वह दिन कब आएगा जब हम सब अपना कर्त्तव्य समझ जाएंगे? जब हम कह सकेंगे कि हम उस देश के वासी हैं जिस देश में निर्मल गंगा बहती है? नरेन्द्र मोदी को सफल होना पड़ेगा। आज के लिए ही नहीं, आने वाली पीढिय़ों के लिए भी।