मदर टेरेसा और उनकी सेवा
मोहन भागवत की इस टिप्पणी को लेकर बवाल मचा है कि मदर टेरेसा द्वारा की गई सेवा के पीछे लोगों को ईसाई बनाने की उनकी भावना थी। कांग्रेस ने उनकी आलोचना की है तथा अरविंद केजरीवाल का कहना है कि ‘मदर टेरेसा को तो बख्श दो।’ ईसाई संगठन अपनी जगह क्रोधित हैं। इस संदर्भ में मुझे तीन बातें कहनी हैं। एक, मदर टेरेसा करुणा की मूर्ति थीं। उन्होंने कुष्ठ रोगियों को, टीबी से पीडि़त लोगों को, एड्स के मरीजों को गले लगाया और उन्हें राहत दी। उन्होंने बेसहारा तथा लावारिस लोगों में प्यार बांटा। नाली में पड़े लोगों को भी उठा कर गले लगा लेती थीं। जो मानसिक तौर पर कमजोर थे, उन्हें भी उनके केन्द्रों में आश्रय मिल रहा है। जिन पीडि़त, बीमार तथा कमजोर लोगों से हमारे संत लोग दूर रहते हैं उन्हें मदर टेरेसा ने अपनाया था। आज भी कोलकाता जो उनकी कर्मभूमि रही है में उनके 19 केन्द्र समाज कल्याण का काम कर रहे हैं। दुनिया भर में उनके 745 ऐसे केन्द्र हैं। इस मामले में वह अद्वितीय थीं लेकिन शिकायत दूसरी है कि समाज कल्याण की आड़ में वह ईसाईयत का प्रचार करती थीं तथा लोगों को ईसाई बनाती थीं, जो शिकायत मोहन भागवत ने भी की है। यह हकीकत है और खुद मदर टेरेसा ने भी कभी इस बात से इन्कार नहीं किया कि वह जो कुछ कर रही हैं ईसा के प्रतिनिधि के तौर पर कर रही हैं। उन्होंने बार-बार कहा है कि उन्हें हर व्यक्ति में जीसस नज़र आते हैं। वह आज की चालू भाषा में ‘सैक्युलर’ नहीं थीं। वास्तव में वह फंडामैंटलिस्ट क्रिश्चियन अर्थात् कट्टर ईसाई थीं। उन्होंने सब कुछ ईसाईयत के लिए किया था।
1987 में ऐंजलो देवानंदा के साथ इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘हमारे बारे गलतफहमी है, हमें गलत समझा जाता है, हमारे बारे गलत बताया जाता है। हम नर्स नहीं हैं, हम डाक्टर नहीं हैं, हम अध्यापक नहीं हैं, हम सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं। हम धार्मिक हैं, हम धार्मिक हैं, हम धार्मिक हैं।’ इस पर भी किसी को आपत्ति न होती पर उन्होंने 1989 में टाइम मैग्ज़ीन को दी गई इंटरव्यू में बात साफ कर दी थी कि ‘I am evangelising by my work of love’ अर्थात् अपने प्यार के कामों से मैं लोगों को ईसाई बना रही हूं। अब भी उनके केन्द्र की प्रवक्ता सुनीता कुमार ने माना है कि ‘अगर सड़क पर लावारिस बच्चे मिलते हैं जिनके धर्म के बारे मालूम नहीं होता, उन्हें हम ईसाई बनाते हैं।’ कोई कहेगा कि बच्चे को क्या फर्क पड़ता है कि उसे हिन्दू या ईसाई बनाया जाए जब तक उसे सहारा मिल जाए, पर सवाल तो उनके मिशन की भावना तथा दिशा से है। मीनाक्षी लेखी के अनुसार नवीन चावला जो सोनिया गांधी के नजदीकी हैं, की किताब में मदर टेरेसा ने बताया था कि ‘बहुत लोग मुझे गलत समाज सेवी समझते हैं। मैं समाज सेवी नहीं हूं। मैं जीसस की सेवा में हूं और मेरा काम ईसाईयत का प्रचार करना है और लोगों को इसके अंदर लाना है।’ अर्थात् उनकी निष्काम सेवा नहीं थी जैसे बाबा आमटे या नानाजी देशमुख करते रहे या पंजाब में पिंगलवाड़ा के संस्थापक भगत पूरन सिंह ने की थी। मदर टेरेसा की सेवा के पीछे लोगों को ईसाई बनाने का मकसद था। नवम्बर 1999 में जब पोप जॉन पॉल द्वितीय भारत आए तो उन्होंने दिल्ली में कहा था कि, ‘तीसरी सहस्राब्दी में हम आस्था की फसल देखेंगे।’ इसी आस्था की फसल काटने का प्रयास मदर टेरेसा भी करती रहीं। हमारे संत भी विदेश जाते हैं कोई धर्म परिवर्तन करवाने का प्रयास नहीं करता। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका जा कर कहा था कि सत्य हजारों अलग-अलग तरीकों से कहा जा सकता है उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरा सत्य ही एकमात्र सत्य है। दुर्भाग्यवश यही बात ईसाई मिशनरियों के बारे नहीं कही जा सकती। इसीलिए शिकायत उठती है।
तीसरा, जहां तक उनकी आलोचना का सवाल है केवल यहां ही नहीं पश्चिम में भी उनकी बहुत आलोचना हो चुकी है। किताबें तक लिखी जा चुकी हैं। यह भी शिकायत है कि वह संदिग्ध तथा बदनाम लोगों से अपने मिशन के लिए पैसे लेती रही हैं जबकि गांधीजी तो कह गए हैं कि साधन भी महत्व रखते हैं केवल लक्ष्य ही नहीं। वह गर्भपात के खिलाफ थीं जिसे लेकर पश्चिमी उदारवादी उनके पीछे पड़ गए थे। जहां तक भागवत की आलोचना का सवाल है, इस देश में किस की आलोचना नहीं होती? भगवान राम से लेकर महात्मा गांधी तक की आलोचना हो चुकी है। गांधीजी के खिलाफ तो किताबें लिखी गईं और अब भी उनकी आलोचना होती है। जवाहरलाल नेहरू को गालियां दी जाती हैं। रावण को भी यहां पूजा जाता है इसलिए अगर मदर टेरेसा के कामकाज को लेकर आलोचना है तो यह नाजायज़ नहीं है। बवंडर खड़ा करने की जरूरत नहीं। खुद मोहन भागवत की रोजाना आलोचना होती है। मामला अभिव्यक्ति की आजादी का है क्योंकि इस देश में कईयों को उनकी सेवा पर आपत्ति है। केवल इसलिए कि मोहन भागवत ने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई है अंग्रेजी का मीडिया बहुत शोर मचा रहा है और इस आलोचना को बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया। जिनकी वह सेवा करती थीं उन्हें प्यार से, जबरदस्ती से नहीं, वह ईसाई बनाना चाहती थीं इसलिए वैटीकन ने उन्हें एक आदर्श ईसाई माना। वहां संत बनने की योग्यता एक चमत्कार है। बोगस चमत्कारों को उनके साथ जोड़ कर वैटीकन ने उन्हें ‘संत’ घोषित कर दिया। कल्पना कीजिए कि यहां आजकल कोई संत चमत्कार करने का दावा करे तो उसकी क्या हालत बनाई जाएगी? लेकिन क्योंकि ईसाईयत का सवाल है इसलिए इस अंधविश्वास को भी खामोशी से पचा लिया गया है।
कुछ सप्ताह पहले हम पेरिस में एक व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ जिसने पैगम्बर मुहम्मद साहिब के भद्दे और निंदनीय कार्टून बनाए थे पर हिंसक हमला देख कर हटे हैं। यह हमला भी निंदनीय है। आज के समाज में आतंकवाद को कोई जगह नहीं होनी चाहिए। पर इसके बाद हमने देखा कि दुनिया भर में लोगों ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस पत्रिका द्वारा मुहम्मद साहिब के कार्टून बनाने का समर्थन किया। पेरिस में कई पश्चिमी देशों के नेताओं ने इस अभिव्यक्ति के लिए मार्च किया कि वह उस पत्रिका के अपनी बात कहने के अधिकार का समर्थन कर रहे थे। भारत में भी कई लोगों ने इस अधिकार का समर्थन किया। अगर वहां भद्दे और अश्लील कार्टून बनाने के अधिकार का समर्थन हो सकता है तो भारत में मोहन भागवत शालीन भाषा में मदर टेरेसा की सेवा पर सवाल क्यों नहीं उठा सकते? आखिर मदर टेरेसा तो खुलेआम पीडि़त के बारे कहती थीं, ‘अगर उन्हें शांति चाहिए, अगर उन्हें आनंद चाहिए तो उन्हें जीसस को ढूंढना चाहिए।’ अर्थात् जहां तक मदर टेरेसा का सवाला है उनकी सेवा का रास्ता जीसस और केवल जीसस के द्वारा ही जाता था।
Christian concept of charity which Teresa followed …privileges the giver over the recipient. It is an unequal relationship. It is aimed towards a narrow end – the domination of the recipient, and mostly getting him to convert to the path that the donor deems to be the right one. The missionaries do charitable work no doubt in it but that is not altruistic.
On the other hand the Indian concept of SEWA is based on the concept of the donor becoming one with the recipient. It is an empathetic relationship, and is not targeted towards any narrow end. This Indian concept of SEWA is holistic & ecological ;; based on the Vedic ideal of “vasudhaiv kutumbkum