‘जिन्हें देवता नष्ट करना चाहें…’
इस महीने भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध के 50 वर्ष हो जाएंगे। तब से लेकर अब तक इन 50 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया। भारत एक उभरती ताकत है जबकि पाकिस्तान के यूएई जैसे पुराने मित्र भी उन्हें छोड़ गए हैं पर तब से एक बात नहीं बदली, वह है पाकिस्तान की सेना की भारत के प्रति दुश्मनी। इस दुश्मनी तथा भारत के बारे कमज़ोर आंकलन (एक-एक पाकिस्तानी सैनिक दस-दस भारतीय सैनिकों के बराबर है-अयूब खान) के कारण पाकिस्तान ने 1971 में अपना आधा हिस्सा गंवा लिया। इस दुश्मनी के कारण पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय खलनायक बन गया। हाल ही में दीनानगर तथा ऊधमपुर पर हमला हुआ लेकिन सवाल तो है कि इससे पाकिस्तान को मिला क्या? भारत के साथ वैर कर उन्होंने खुद को तबाह कर लिया जो पेशावर में दिसम्बर 2014 की आतंकी घटना से पता चलता है जिसमें उनके सैनिक परिवारों के 145 बच्चे मारे गए। पाकिस्तान के प्रमुख अखबार दि डॉन ने संपादकीय में लिखा है, ‘यह समय आ गया है कि पुरानी दुनिया से निकल कर अपने क्षेत्र में आ रहे परिवर्तनों को समझा जाए।’ लेकिन यही पाकिस्तान समझने को तैयार नहीं इसीलिए एनएसए वार्ता को रद्द करना पड़ा। एक प्राचीन यूनानी कहावत है कि Those whom the gods wish to destroy they first make mad अर्थात् देवता जिन्हें नष्ट करना चाहते हैं उन्हें वह पहले पागल बना देते हैं।
ऐसा ही पागलपन पाकिस्तान की व्यवस्था के एक हिस्से पर सवार है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान कह चुके हैं, ‘कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव अप्रचलित हो चुका है।’ पाकिस्तान का एक वर्ग, नवाज शरीफ समेत, जरूर अब कश्मीर के मुद्दे से छुटकारा पाना चाहता है। यह लोग समझते हैं कि कश्मीर के बारे उनकी जो ग्रस्तता है उसके कारण उन्होंने खुद को तबाह कर लिया। उनके पत्रकार इरफान हुसैन लिखते हैं, ‘हकीकत है कि कोई भी कश्मीर के बारे हमारे दावे को समर्थन नहीं दे रहा, कश्मीरी भी पाकिस्तान में शामिल होना नहीं चाहते…लेकिन इसके बावजूद हमारे राजनयिक ढोल बजाते रहते हैं…।’ यह पाकिस्तान की त्रासदी है जो शायद नवाज शरीफ तथा उनके गैर फौजी साथी समझते हैं। इसीलिए नवाज शरीफ बार-बार प्रयास कर रहे हैं पर सेना दखल देकर उनकी चलने नहीं देती। पाकिस्तान का संकट है कि नवाज शरीफ लगातार कमजोर हो रहे हैं। मैं पाकिस्तान के एक न्यूज प्रोग्राम का वीडियो देख रहा था जहां एंकर विलाप कर रहा था कि अमेरिका में सरकार, बिजनेस, उद्योग, समाज में भारतीय-अमरीकी अपने अपने कदम बढ़ा रहे हैं। उसका कहना था कि ‘भारतीयों को उनकी तालीम तथा समझदारी के लिए जाना जाता है जबकि हमें दहशतगर्दी के लिए।’ अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘फॉरन अफेयर्स’ में दक्षिण एशिया की विशेषज्ञ सी. क्रिस्टीन फेयर तथा सुमित गांगुली, जिनका आंकलन है कि पाकिस्तान की सेना भारत के साथ सम्बन्ध बेहतर करने में रुचि नहीं रखती, ने पाकिस्तान को ‘कुपात्र साथी’ कहते हुए लिखा है कि समय आ गया है कि वाशिंगटन पाकिस्तान को अपने हाल पर छोड़ दे।
दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ क्रिस्टोफे जैफ्रेलॉट दीनानगर तथा जम्मू कश्मीर में युद्ध विराम के उल्लंघन की घटनाओं के बारे लिखते हैं, ‘इस आतंकवादी हमले को पाकिस्तान की सेना के द्वारा भारत-पाक वार्ता को पटरी से उतारने का प्रयास समझा जाना चाहिए… लेकिन गुरदासपुर का हमला यह भी दर्शाता है कि पाकिस्तान के घरेलू परिदृश्य में सेना का बेरोक उत्थान हो रहा है।’ यह चिंता का विषय है क्योंकि पाक सेना समझती है कि भारत के साथ दुश्मनी उनमें ‘अस्तित्व की अनिवार्यता’ है जैसा संयुक्त राष्ट्र में उनके पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने भी कहा है। पाकिस्तान की सेना नरेन्द्र मोदी की परीक्षा भी ले रही है कि उनकी बर्दाश्त की सीमा क्या है? इसलिए आने वाले समय में और दीनानगर तथा ऊधमपुर हो सकते हैं। नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ सकता है ताकि 2016 की गर्मियों में भारत कंटीली बाड़ लगाने का अपना काम पूरा न कर सके और कश्मीर में घुसपैठ आसान हो जाए। इस बीच अपने परमाणु हथियारों की धमकी दी जाती रहेगी जैसा सरताज अजीज भी दे कर हटे हैं जबकि वह भी जानते हैं कि अगर वह ऐसा कोई पागलपन करते हैं तो बदले में उनका सर्वनाश हो जाएगा। नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि रिश्ते कुछ सामान्य हो जाएं ताकि व्यापार शुरू हो सके। पाक सेना की इसमें दिलचस्पी नहीं है। पूर्व रक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने सही कहा है कि ‘भारत के साथ सामान्य रिश्ता बनाने की क्षमता पाकिस्तान में है ही नहीं।’ यह समस्या है। वह आदतन अपराधी हैं। भारत के साथ शांति उनके कई बड़े लोगों के निजी तथा संस्थागत हितों के विपरीत जाती है।
भारत सरकार को भी अपनी नीति तथा लक्ष्मण रेखाएं स्पष्ट कर देनी चाहिए। शुरुआती गफलत में हुर्रियत को जरूरत से अधिक महत्व दिया गया। बाद में अवश्य रेखाएं साफ खींच दी गईं लेकिन हुर्रियत के बारे पाकिस्तान से पहले तय किया जाना चाहिए था। हमने शुरू में दृढ़ता नहीं दिखाई। कोई भी देश दूसरे को अपने अलगाववादियों से मिलने नहीं देता। क्या पाकिस्तान चाहेगा कि हम ब्लूच अलगाववादियों से मिलें? यह अच्छी बात है कि अब नरेन्द्र मोदी की सरकार ने हुर्रियत के बारे अपनी नीति स्पष्ट कर दी है। न इनसे बात करेंगे, न करने देंगे। इस नीति पर दृढ़ रहने की जरूरत है। अतीत में हमने इनके प्रति बहुत उदारता दिखाई है। जब वह पाकिस्तानी प्रतिनिधियों से मिलने दिल्ली आते हैं तो उनके हवाई टिकट तथा होटल के बिल भी हमारी एजेंसिया अदा करती हैं। गिलानी के मैडिकल बिल भी हम देते हैं। समय आ गया है कि इनसे सरकारी जमाई जैसा बर्ताव करना हम बंद कर दें। फारुख अब्दुल्ला ने सही कहा है कि इनसे बात करने से कोई फायदा नहीं, ‘इन्हें पाकिस्तान से पैसा मिलता है और पाक के नज़रिए में इनका नज़रिया झलकता है।’ एक बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि इस सारे प्रकरण में कश्मीर से सबसे स्पष्ट और सही आवाज जो उठी है वह फारुख अब्दुल्ला की रही है। मुफ्ती मुहम्मद सईद तो दुविधा में थे कि किस तरह भाजपा को भी प्रसन्न रखें तथा अलगाववादियों का कजऱ् भी उतार दें, इसलिए कुछ भी सही नहीं कह सके।
रद्द हुई एनएसए स्तर की वार्ता अधिक कड़वाहट छोड़ गई है। विश्वास न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है। भारत सरकार को भी इस असफल वार्ता से बहुत कुछ सीखना है। केवल ‘मुंहतोड़ जवाब देंगे’ जैसे बयान नीति का विकल्प नहीं हो सकते। नीति वह होती है जो आप लागू करते हो तथा जिसके परिणाम के लिए आप तैयारी करते हो। पाकिस्तान के बारे यह भी समझ लेना चाहिए कि कोई चमत्कार नहीं होगा। उनकी हालत है कि कोई पाकिस्तान जाना नहीं चाहता, कोई पाकिस्तानियों को बुला कर राज़ी नहीं, पर वह पागलों की तरह ‘कश्मीर’, ‘कश्मीर’ चिल्लाते रहेंगे। मोदी सरकार के आने के बाद तो दोनों देशों के बीच फासला और बढ़ गया लेकिन जो उनकी व्यवस्था पर काबिज हैं वह सुधरेंगे नहीं। 1965 की लड़ाई के बाद से ही हम बार-बार प्रयास कर रहे हैं पर भारत के कई प्रधानमंत्री प्रयास कर हार गए। नरेन्द्र मोदी अटल बिहारी वाजपेयी तथा मनमोहन सिंह से अनुभव सांझा कर सकते हैं।