कैसे बनेगा ‘न्यू इंडिया’? (Is ‘New India’ Possible?)

यह लेख मैं 15 अगस्त को लिख रहा हूं। प्रधानमंत्री मोदी लाल किले से अपना चौथा भाषण दे हटें हैं। प्रधानमंत्री का भाषण अच्छा था लेकिन पिछले भाषणों जैसा प्रभावशाली नहीं था। इस देश को संभालने तथा वायदे पूरे करने का बोझ किसी को भी थका सकता है। उन्होंने 2022 तक ‘न्यू इंडिया’ लाने की बात कही। क्या यह संभव हो सकेगा?

यह स्वतंत्रता दिवस है भी ऐतिहासिक क्योंकि हम अपनी आजादी के सात दशक पूरे कर गए हैं। इसी आजादी के बारे राम प्रसाद बिस्मिल जिन्हें दिसम्बर 1927 में फांसी दी गई थी, ने लिखा था,

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा!

अब 70 वर्ष से अपनी जमीन और अपना आसमां भी है। देखना यह है कि हमने इनका बनाया क्या है?

इसमें कोई शक नहीं कि हमने असामान्य तरक्की की है। डोकलाम में चीनी धौंस का प्रतिरोध करने पर कुछ विदेशी मीडिया Mighty India अर्थात शक्तिमान भारत की बात कर रहा हैं। यह 1962 वाला भारत नहीं, चीन भी जान गया है। 1947 में 88 प्रतिशत आबादी निरक्षर थी जबकि अब 74 प्रतिशत साक्षर है। तब औसत आयु 32 वर्ष थी जो अब 68.77 हो चुकी है। मोदी सरकार के आने के बाद करोड़ों बैंक खाते खुल गए हैं। सरकारी पैसा सीधा खातों में जा रहा है। टैक्नॉलोजी ने हर भारतीय को आवाज दे दी है। मामूली व्यक्ति भी अपनी शिकायत दर्ज करवा रहा है। सरकार को जवाबदेह बनाया जा रहा है जैसे हमने गोरखपुर में बच्चों की मौत के मामले में भी देखा है। सोशल मीडिया सामान्य मीडिया के सामानांतर चल रहा है।

इन सात दशकों में एक बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। जिस पार्टी ने देश को आजादी दिलाई थी वह धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में जा रही है और उसकी जगह वह पार्टी ले रही है जिसका जन्म आजादी के बाद हुआ था। अर्थात भारत की जनता नए-नए परीक्षण करने से घबराती नहीं। इन 70 वर्षों में 16 बार सरकारें बदली गईं पर हर बार लोकतांत्रिक तरीकों से ऐसा हुआ, यह हमारी बहुत बड़ी कामयाबी है।

अगर हम पाकिस्तान से अपनी तुलना करे तो पता चलता है कि हम कितने बेहतर रहे हैं। इसका श्रेय उन सबको जाता है जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी और उसके बाद देश को संभाला। तीन नाम विशेषतौर पर उल्लेखनीय और समरणीय हैं, गांधी, नेहरू और पटेल। मुझे मालूम है कि आजकल नेहरू को नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है पर उस वक्त जब गांधी जी की हत्या हो चुकी थी और सरदार पटेल हमें 1950 में छोड़ गए थे देश को संभालने का सारा बोझ जवाहर लाल नेहरू के कंधों पर था। ठीक है नेहरू ने चीन, तिब्बत, कश्मीर के बारे गलतियां की जिनके दुष्परिणाम हम आज भी भुगत रहे हैं लेकिन भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं को खड़ा करना और उन्हें मज़बूत बनाना नेहरू का बड़ा योगदान था। अगर वह न होते तो शायद हम भी एक और पाकिस्तान बन गए होते। अनुमान है कि देश के विभाजन के दौरान पंजाब में ही 5 लाख से 8 लाख लोग मारे गए थे। 10 से 12 लाख लोग उस वक्त बेघर हुए। इस भयानक त्रासदी को संभालना मामूली बात नहीं थी।

सरकारें बदलती हैं पर इतिहास बदलने का प्रयास नहीं होना चाहिए। हम इतिहास पर पर्दा नहीं डाल सकते। ‘न्यू’ लाने के लिए ‘ओल्ड’ को रद्द करना या बदनाम करना सही नहीं। हरेक के योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए। कोई भी ऐसा नेता नहीं हुआ जिसने गलतियां नहीं की। अटल जी लाहौर में थे पीछे से कारगिल हो गया पता ही नहीं चला। 500 शहीदियां देकर ‘विजय दिवस’ मनाया गया। कंधार में समर्पण किया गया जो अत्यंत महंगा साबित हुआ।

हामिद अंसारी ने मुसलमानों में ‘असुरक्षा  की भावना’ के बारे जो कुछ कहा है उसकी उनसे अपेक्षा नहीं थी। अगर उन्हें इतनी तकलीफ थी तो वह पहले इस्तीफा दे सकते थे लेकिन देश में भीड़ द्वारा कुछ मुसलमानों पर हुए हमले भी बिल्कुल अनुचित हैं। यह देश सबका सांझाा है और हमारी विविधता हमारी शान है। अपनी विचारधारा दूसरों पर लादी नहीं जानी चाहिए। पुरानी बात है। एक भारतीय पत्रकार पाकिस्तान गए। जब लौटे तो पूछा गया कि कैसा लगा? उस मुसलमान पत्रकार का उत्तर था “बिलकुल अच्छा नहीं लगा। वहां तो मुसलमान ही मुसलमान भरे हुए हैं। मुझे तो ब्राह्मण भी चाहिए, सिख भी चाहिए, ईसाई भी चाहिए, जैन भी चाहिए।”

यह विविधता हमारी ताकत है। इसे बदलने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। विचारधारा को राजनीति का हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए। विचारधारा पर बहुत जोर देने का नुकसान यह होता है कि शासन पर से ध्यान हट जाता है। उत्तर प्रदेश की सरकार रोमियो स्कवाड बनाती रही जबकि हैल्थ स्कवाड की जरूरत थी। जो मंत्री उत्तर प्रदेश के मदरसों में वंदे मातरम गाने का आदेश दे रहा था उसे खुद वंदे मातरम नहीं आता। अर्थात ‘वंदे मातरम’ को भी अपनी राजनीति का हिस्सा बना लिया गया।

बिहार के एक मंत्री ने ‘भारत माता की जय’ न कहने पर मीडिया वालों से पूछा कि क्या वह पाकिस्तान से है? देशभक्ति को इतना सस्ता नहीं बनाया जाना चाहिए। स्कीर्ण राष्ट्रवाद से देश को खतरा है। देश भक्ति अंदर से आनी चाहिए। यह थोपी नहीं जा सकती। लाल किले पर प्रधानमंत्री के भाषण के बाद अधिकतर वीआईपी राष्ट्र गान नहीं गा रहे थे। क्या इन्हें पाकिस्तान भेजा जाना चाहिए।?

विचारधारा पर अत्याधिक जोर देने का नुकसान हम गोरखपुर में देख कर हटे हैं। शासन से ध्यान हट जाता है। इतनी बड़ी संख्या में हमारे बच्चे अपराधिक लापरवाही का शिकार कैसे हो गए? असली मुद्दा वंदे मातरम या गौ रक्षा नहीं, असली मुद्दा हमारे गरीबों के बच्चों की मौत का है। जर्जर और असंवेदनशील व्यवस्था का है। बैंगलुरू जैसा शहर ही एक रात की बरसात में पानी में डूब गया। सारा ध्यान राजनीतिक विचारधारा पर है जिस दौरान हम इंसानी दयनीयता और इंसानी विनाश के प्रति असंवेदनशील, उदासीन और निष्ठुर हो गए हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के उस अस्पताल में 70 बच्चे कैसे मर गए जबकि यह मुख्यमंत्री के अपने गोरखपुर के चुनाव क्षेत्र में आता है? बार-बार उन्होंने सांसद के तौर पर यह मामला उठाया था। दो दिन पहले वह इसी अस्पताल में थे पर उन्हें पता नहीं चला कि ऑक्सीजन की सप्लाई नहीं हो रही? तंत्र इतना नकारा हो चुका है? स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह का गजब बहाना था कि हर साल अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं। वह तो मरे हुए बच्चों के आंकड़े इस तरह बोल रहे थे जैसे कारखाने से निकले पुर्जों के बारे बता रहे हो। और अगर अगस्त में हर साल बच्चे मरते हैं तो आप क्या करते रहे? मुख्यमंत्री ने ‘गंदगी’ को इसके लिए जिम्मेवार ठहराया है। इसे साफ करने का क्या प्रबंध आपने किया?
कभी एक रेल हादसे के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दिया था पर यहां उनके नाती सिद्धार्थनाथ सिंह इस्तीफा देना तो दूर पहले बच्चों की मौत पर संवेदना प्रकट करने को भी तैयार नहीं थे। सारा रवैया सरकारी और अहंकारी था।

गोरखपुर की त्रासदी भाजपा नेतृत्व के लिए वेक आप कॉल है। चाहे प्रधानमंत्री मोदी इसके खिलाफ बोले हैं पर जमीं पर ‘सब चलता है’ कि संस्कृति अभी चल रही है। अगर वही चलना है जो कांग्रेस या सपा या बसपा के समय चलता था तो बदला क्या? केवल हिन्दुत्व से ‘न्यू इंडिया’ नहीं बनेगा। अगर ‘न्यू इंडिया’ का भी वही हश्र नहीं होना जो ‘इंडिया शाइनिंग’ हुआ था तो निचले स्तर पर व्यवस्था बेहतर करनी होगी। भाजपा की सरकारें लोगों की आशा पर सही नहीं उतर रहीं। लाल कृष्ण आडवाणी ने भी एक जगह कहा था कि विचारधारा ही सब कुछ नहीं।

और केवल चुनाव जीतना ही पर्याप्त नहीं। अमरीकी लेखक साईमन सिनक ने कहा है ‘नेतृत्व अगला चुनाव जीतने के लिए नहीं, अगली पीढ़ी के लिए होता है।’
वंदे मातरम!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.