देश के इतिहास में पहली बार केरल के मलप्पुरम में एक मुस्लिम महिला जमीदा ने जुमे की नमाज़ की अगवाई की। जमीदा का कहना है कि नमाज़, हक, ज़कात और रोज़ा जैसे सभी धार्मिक कार्यों में औरत या मर्द में भेदभाव नहीं किया गया। इस महिला की दिलेरी की दाद देनी चाहिए क्योंकि उसे पता था कि उसे धमकियां मिलेंगी। उसे जान से मारने की धमकी तो मिल ही चुकी है। इसे इस्लाम विरोधी साजिश कहा जा रहा है लेकिन ऐसी इस वर्ग की पुरानी आदत है। जब भी उनकी चौधर को चुनौती देने का प्रयास किया जाता है तो इन इमामों, मौलवियों और मुल्लाओं को इसमें साजिश नज़र आने लगती है, इनका इस्लाम खतरे में पड़ जाता है।
लेकिन यह लोग समझते नहीं कि दुनिया बदल गई है। मुस्लिम औरत को घर की चारदीवारी में बंद कर उसका पायदान की तरह इस्तेमाल करना अब संभव नहीं है। वह आजादी चाहतीं है, अपना हक चाहतीं है, बराबरी चाहतीं है। और अब तो साऊदी अरब जिसने कट्टर वहाबी इस्लाम का प्रसार किया, भी बदल रहा है। पहली बार वहां महिलाओं को ड्राईविंग की इजाजत दी गई है जिस पर एक मुल्ला की टिप्पणी थी कि औरतों के पास मर्दों से आधा दिमाग है और जब वह खरीददारी करने जाती है तो वह एक चौथाई रह जाता है। प्रिंस मुहम्मद बिन सुल्तान अपने देश को ‘अंतर्राष्ट्रीय स्तर’ तक ले जाना चाहते हैं और जानते हैं कि इसके लिए जरूरी है कि महिलाओं को धीरे-धीरे उनका अधिकार दिया जाए। वह यह भी जानते हैं कि जिसे ‘इंटरनेट जनेरेशन’ कहा जाता है, वह बदलाव के लिए अधीर है। लंदन से इस्लामिक विशेषज्ञ स्टीफन हरटोग का कहना है कि ” मेरा मानना है कि खामोश बहुमत महिलाओं के ड्राइव करने के हक में है पर मुखर अल्पमत इसके बारे बहुत परेशान है।”
और यही मुखर अल्पमत है जो हमारे देश में भी जमीदा जैसी महिलाओं का विरोध करता है और यही मुखर अल्पमत है जो तीन तलाक की लाहनत से 8.3 करोड़ मुस्लिम महिलाओं की आजादी का विरोध कर रहा है। अफसोस यह है कि कुछ राजनीतिक दल अपने कथित वोट बैंक को लेकर मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले बराबरी के हक के रास्ते में किसी न किसी बहाने रुकावटें खड़ी कर रहे हैं। विधेयक लोकसभा में पारित हो चुका है अब राज्यसभा की बारी है पर क्योंकि वहां भाजपा को पर्याप्त समर्थन हासिल नहीं इसलिए विपक्ष सहयोग नहीं कर रहा है। पर वह देश को क्या संदेश दे रहे हैं कि किसी न किसी बहाने वह मुस्लिम महिलाओं को उनका हक नहीं मिलने देंगे? ज़लालत की जिन्दगी से छुटकारे का वह विरोध करेंगे? उनके सर पर तीन तलाक की तलवार वह लटकती रहने देना चाहते हैं?
तीन तलाक एक घृणित प्रथा है। जैसे आरिफ मुहम्मद खान जिन्होंने 31 साल पहले मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय के खिलाफ बीड़ा उठाया था और इस कारण राजीव गांधी से उनकी अनबन हो गई थी और उन्होंने राजीव का मंत्रिमंडल छोड़ दिया था, ने भी लिखा है कि तीन तलाक अरब देशों की पुरानी परम्परा है जो मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करती है। उनके अनुसार यह प्रथा एक महिला के साथ दासी की तरह बर्ताव करती है जिसे ‘मालिक’’ अपनी इच्छानुसार बेदखल कर सकता है। लेकिन जब-जब इस अन्याय को खत्म करने का समय आया कट्टरवादियों ने इस प्रयास को सफल नहीं होने दिया। बार-बार कहा गया कि सरकार या सुप्रीम कोर्ट को उनके मजहबी मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं जबकि मामला मजहबी नहीं, औरतों के खिलाफ अत्याचार का है। दुनिया भर के इस्लामी देश बदल गए। पाकिस्तान तथा बांग्लादेश ने उचित बदलाव कर लिया है लेकिन भारत जैसा उदार, लोकतांत्रिक, सैक्यूलर देश अभी भी बहस में उलझा हुआ है।
1986 में राजीव गांधी की सरकार ने तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए शाहबानों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के द्वारा उलटा कर भारी अन्याय किया था। इस कारण अब तक मुस्लिम महिलाओं पर लगातार अत्याचार होते रहे हैं। निकाह से ही तनाव शुरू हो जाता है कि न जाने कब किस बहाने तलाक मिल जाए। कईयों को व्हाटसअप के द्वारा तलाक दे दिया गया तो किसी को इसलिए तलाक दिया गया कि उसने सुबह चाय ठीक ढंग से नहीं बनाई थी। ऐसे अन्याय के खिलाफ वह बेबस है।
2015 में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि मुस्लिम महिलाओं का भारी बहुमत तलाक-ए-बिद्दत, हलाला (जहां एक तलाकशुदा महिला जो अपने पति के पास लौटना चाहती है को पहले एक और मर्द के साथ सहबिस्तर होना पड़ता है) तथा बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ हैं। जब 2017 में शायरा बानों तथा चार और महिलाओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अमान्य, असंवैधानिक तथा अवैध करार दिया था तो मुस्लिम महिलाओं में खुशी की लहर चल निकली थी कि आखिर उनका आत्म सम्मान बहाल किया गया है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया विवि की प्रोफैसर फरीदा खानम के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है और मुस्लिम महिलाओं की जीत है।
आजादी के बाद से हिन्दुओं से संबंधित कानून में 19 बार परिवर्तन किया गया है। इसमें बेटियों को पैतृक जायदाद में तथा विधवाओं को जायदाद में अधिकार देना शामिल है। सबने इस परिवर्तन को स्वीकार किया। लेकिन जब-जब भी मुस्लिम महिलाओं को बराबरी देने की बात चलती है तो मुल्लाओं को इस्लाम खतरे में नज़र आने लगता है। वह 1400 साल पुरानी प्रथाएं खत्म नहीं होने देना चाहते हैं। जो कथित सैक्यूलर दल इन कट्टरवादियों का समर्थन करते हैं वह इस सवाल का जवाब तो दे कि अगर उनकी नीतियां सही थी तो मुसलमान चाहे तालीम हो या आमदनी हो, में इतने पिछड़े क्यों हैं? सच्चर कमेटी रिपोर्ट यह बात स्पष्ट करती है। लेखक शाहजहां मदमपट लिखते हैं, “भारत में मुस्लिम समुदाय की शोचनीय हालत का अधिकतर दोष उसके धार्मिक सामाजिक तथा राजनीतिक नेतृत्व को जाना चाहिए जो मुस्लिम समुदाय को गहरे रसातल में ले गए हैं”
इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी लिखते हैं, “मुसलमान पिछड़ गए, उनकी स्थिति और भी नाजुक उनके रुढ़िवादी नेतृत्व ने बना दी जो इस्लाम के शुरूआती यशस्वी दिनों को याद करते हैं जबकि उन्हें इक्कीसवीं सदी की जटिल चुनौती से जूझना चाहिए।“लेकिन इक्कीसवीं सदी से यह लोग मुंह मोड़ते हैं। अभी भी इनके जहन से यह नहीं निकलता कि कभी उन्होंने इस देश पर राज किया है, इसलिए जहां तीन तलाक के मामले में देश की राय का वह विरोध कर रहे हैं वहीं वह राम मंदिर के मामले में हिन्दू भावना के सम्मान के लिए एक इंच भी झुकने को तैयार नहीं। जिस नीति पर वह चल रहे हैं उससे कथित मुस्लिम नेतृत्व ने अपने समुदाय के लिए हासिल क्या किया है? गुजरात में 1969, 1989, 1985, उत्तर प्रदेश में दर्जनों बार, मुम्बई में 1992/1993 के सब दंगे कांग्रेस शासन में हुए थे। फिर सैक्यूलरवाद के नाम पर इन लोगों ने मुसलमानों को दिया क्या? केवल गुजरात के 2002 के दंगे भाजपा शासन में हुए थे।
लेकिन अब फिर निर्णायक क्षण है। सरकार घोषणा कर चुकी है कि वह बजट अधिवेशन में तीन तलाक विधेयक पारित करवाने का प्रयास करेगी। जो गुनाह राजीव गांधी ने संसद से करवाया था उसे नरेन्द्र मोदी संसद से ही धुलवाने का प्रयास कर रहे हैं। तीन तलाक खत्म होने से मुस्लिम महिलाओं की सभी मुसीबतें खत्म नहीं होंगी लेकिन एक राष्ट्र तथा एक समाज के तौर पर हमारा राष्ट्रीय धर्म बनता है कि यह निश्चित किया जाएं कि वह अपनी जिंदगी इज्जत तथा सुरक्षा के साथ गुजार सकें। विपक्ष का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है कि इस प्रयास को समर्थन दें नहीं तो चुनाव में जवाब देना पड़ेगा कि फिर वह मुल्लाओं के साथ चिपटे क्यों पाएं गए? मुस्लिम मर्दों को भी इस प्रयास को समर्थन देना चाहिए। वह केवल एक शौहर ही नहीं, बाप, भाई और बेटा भी है। और अंत में मुस्लिम मुल्लाओं, मौलवियों और इमामों से कहना है कि च्तू भी बदल फलक कि ज़माना बदल गया।ज् उन्हें समझना चाहिए कि जो ज़माने के साथ बदलते नहीं उन्हें अतीत के कूड़ादान में फैंक कर ज़माना आगे बढ़ जाता है।
तू भी बदल कि ज़माना बदल गया (You Also Change As Times Have Changed),