महाराष्ट्र पुलिस द्वारा इस आरोप पर कि वह सरकार के खिलाफ साजिश रच रहे थे आधा दर्जन लोगों की गिरफ्तारी को लेकर बहुत बवाल मचा है। सुप्रीम कोर्ट ने दखल देकर आगे की कार्रवाई पर रोक लगा दी है लेकिन इसके बावजूद कई वामपंथी झुकाव के लोग शिकायत कर रहे हैं कि देश में एमरजैंसी जैसी हालत है। लेखिका अरुणाधति राय तथा वकील प्रशांत भूषण तो इससे भी आगे बढ़ गए और उनका आरोप है कि देश की स्थिति एमरजैंसी से भी बदतर है। प्रशांत भूषण लिखते हैं, “नवीनतम गिरफ्तारियां लगातार नागरिक आजादी, मूल अधिकारों तथा भारत में लोकतंत्र के क्षरण का अत्यंत खतरनाक चरण है… जो कई मायनों में 1975 की एमरजैंसी से भी अधिक खतरनाक है। “
सचमुच? क्या यह वास्तव में 1975 की एमरजैंसी से अधिक ‘खतरनाक’ वक्त है? लगता है कि वकील साहिब 1975 की एमरजैंसी को भूल गए हैं जब 1975-1977 के बीच 21 महीने देश को जेल में परिवर्तित कर दिया गया था। लाखों लोगों को जेल में ठुसा गया। मीडिया पर सैंसर लगा दिया गया और नागरिक अधिकारों को ठप्प कर दिया गया। अदालतें समर्पण कर गई और प्रैस के एक वर्ग के बारे तो लाल कृष्ण आडवाणी का सही कहना था कि “जब उन्हें झुकने को कहा गया तो वह रेंगने लगे। “आज तो ऐसी स्थिति नहीं है फिर ऐसे हिस्टीरिया की क्या जरूरत है? सुप्रीम कोर्ट मामले का संज्ञान लिया हुआ है। सरकार की कार्रवाई पर रोक है शायद आज फैसला आ जाए। पर अरुणाधति राय और प्रशांत भूषण की तरह मीडिया के हिस्से ने भी इन गिरफ्तारियों को पहले ही नाजायज कह दिया है।
मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में है। अगर वह समझेंगे कि गलत हुआ है तो सरकार की कार्रवाई को रद्द कर दिया जाएगा फिर इस तरह की हाय तौबा मचाने का फायदा क्या है? शिकायत की जा रही है कि इन लोगों को ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया गया लेकिन यह संज्ञा तो इन्हें सबसे पहले यूपीए के समय दी गई थी। पांच वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में तत्कालीन मनमोहन सरकार के शपथ पत्र में कहा गया कि “विचारक जो माओवादी आंदोलन को जिंदा रखे हुए हैं कई मायनों में पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला सेना से भी खतरनाक है।“ जिन लोगों के खिलाफ अब कार्रवाई की जा रही है उनमें से कुछ के खिलाफ शुरूआत तो यूपीए के समय हुई थी। कई पहले गिरफ्तार हो चुके हैं पर उस वक्त कोई ‘एमरजैंसी’, ‘एमरजैंसी’ नहीं चिल्लाया था। आज क्यों? अनावश्यक आंतक क्यों फैलाया जा रहा है?
नहीं यहां कोई एमरजैंसी वाली स्थिति नहीं है। न ही अब एमरजैंसी लग ही सकती है क्योंकि लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे। लोगों को अपनी बात कहने की पूरी आजादी है। अरुण शोरी तो कह रहे हैं कि यह “एक और तीन चौथाई” की सरकार है। उनके अनुसार ‘एक’ अमित शाह हैं और तीन चौथाई नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें अपनी तस्वीरें खिंचवाने से फुर्सत नहीं है। अगर एमरजैंसी होती तो क्या इन्हें खुला छोड़ दिया जाता? इंदिरा गांधी ने तो हर विपक्षी नेता को अंदर डाल दिया था।
देश की संस्थाएं भी पूरी आजादी और स्वायत्तता दिखा रहीं है। सुप्रीम कोर्ट बिना दबाव के फैसले दे रहा है। इन गिरफ्तारियों के बाद बड़ी अदालत का कहना था कि “अगर असहमति की अनुमति नहीं होगी तो लोकतंत्र प्रैशर कूकर की तरह फट सकता है।“ यह सरकार को बड़ी चेतावनी भी है कि नागरिक आजादी से छेड़छाड़ न की जाए। रिजर्व बैंक ने यह बता कर कि नोटबंदी के बाद 99.3 प्रतिशत पैसा बैंकों में वापिस आ गए हैं सरकार के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है क्योंकि स्पष्ट है कि नोटबंदी बड़ा बलंडर था। चुनाव आयोग एक साथ लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव करवाने के खिलाफ फैसला दे चुका है और मोदी सरकार की योजना को पलीता लगा दिया है। लॉ कमीशन ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि समान नागरिक कानून नहीं बनाया जा सकता। अर्थात सरकार का कुछ भी एजंडा हो, संस्थाएं संविधान के दायरे से बाहर निकलने या दबाव में आने को तैयार नहीं। फिर एमरजैंसी कहां है?
हम अजीब दौर से गुजर रहे हैं जहां नेता लोगों ने अपने विवेक को गुडबाई कह दिया लगता है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी संसद में प्रधानमंत्री को जबरदस्ती जप्फी डालते हैं और फिर आंख मारते हैं। ममता बैनर्जी गृह युद्ध की धमकी देती हैं लेकिन दूसरी तरफ भी यही मामला है। किसी ने इसी वक्त के लिए शायद यह शे’र लिखा था,
जनून का दौर है किस-किस को जाए समझाने
इधर भी अकल के दुश्मन, उधर भी दीवाने!
मैं भाजपा द्वारा राहुल गांधी की कैलाश यात्रा पर किए जा रहे सवालों का जिक्र कर रहा हूं। राहुल गांधी किस मार्ग से यात्रा करते हैं, कौन उनके साथ जाता है, कौन उन्हें हवाई अड्डे पर छोडऩे साथ जाता है, यह राष्ट्रीय मामला कैसे बन गया? पर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने इस पर बाकायदा संवाददाता सम्मेलन कर डाला। उन्होंने राहुल के कथित ‘चीन प्रेम’ पर सवाल उठाए। यहां तक कह दिया कि उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वह ‘चाईनीज गांधी’ नहीं हैं। राहुल कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जा रहे हैं क्योंकि रणदीप सुर्जेवाला के अनुसार वह “भगवान भोले शंकर के अनन्य भक्त हैं।“ यह बात कितनी सही है मुझे नहीं मालूम लेकिन यह राहुल का अधिकार है। चीन की चाय के कप में तूफान खड़ा करने का सम्बित पात्रा का प्रयास अगर दीवानगी नहीं तो क्या है? और यह भी नहीं सोचा कि इस दीवानगी का भारत-चीन के नाजुक रिश्तों पर क्या असर होगा?
देश का वक्त ऐसी फिजूल बातों में क्यों बर्बाद किया जा रहा है? हर बड़ी-छोटी बात पर यहां तूफान क्यों खड़ा किया जा रहा है? अप्रैल में कर्नाटक यात्रा पर राहुल गांधी का जहाज बहुत मुश्किल से दुर्घटनाग्रस्त होते बचा। डीजीसीए की रिपोर्ट के अनुसार इस लगभग दुर्घटना के लिए पायलट की लापरवाही जिम्मेवार थी लेकिन कांग्रेस कहां मौका गंवाने वाली थी। आरोप लगाया गया कि हवाई जहाज के साथ ‘जानबूझ कर छेड़खानी की गई’ और मांग की गई कि ‘हवाई जहाज के संदिग्ध और खराब प्रदर्शन’ की जांच की जाए। लेकिन आरोप का कोई सबूत नहीं दिया गया। केवल मामला उछाल कर सस्ती हैडलाईन प्राप्त करने की कोशिश की गई। हमारे नेतृत्व में जो गिरावट आई है वह परेशान करने वाली है। अखिलेश यादव ने सरकारी घर छोड़ते वक्त दीवार तक तोड़ डाली, साईकल ट्रैक उखाड़ दिया। राजनीति में ऐसी जमात उतर रही है जिसका कोई स्तर नहीं है।
पुरानी बात है। प्रसिद्ध पत्रिका बल्टिज़ के सम्पादक रुसी करंजिया मोरारजी देसाई के कड़े आलोचक थे। बाद में जब देसाई प्रधानमंत्री बन गए तो करंजिया उनसे मिलने गए। देसाई उन्हें बहुत शालीनता से मिले। करंजिया ने सवाल किया कि “मैंने आपका बड़ा विरोध किया था पर आप तो मुझे बिल्कुल सामान्य तरह से मिल रहे हो?” देसाई का जवाब याद रखने वाला है, “आपने मोरारजी देसाई का विरोध किया था, अब आप देश के प्रधानमंत्री से मिल रहें हैं।“
ऐसे लोग कहां गए? ऐसा वातावरण कहां गया? यहां तो अटलजी को श्रद्धाजंलि देने जा रहे 80 वर्षीय सन्यासी स्वामी अग्निेवश को ही पीट डाला गया। क्या यह देश पागल हो गया है? कोई मर्यादा नहीं बची? जो सहमत नहीं उसे कह दिया जाता है कि पाकिस्तान चले जाओ, बांग्लादेश चले जाओ। पर जैसे बड़ी अदालत ने भी कहा, अगर असहमति पर रोक लगाई गई तो विस्फोट हो जाएगा।
हाल ही में हम अटलजी को खो कर हटे हैं। मेरा मानना है कि उनकी असली विरासत है कि वह अधिक उदार, सहिष्णु और शांत देश छोड़ कर गए थे। उन्होंने तो जवाहर लाल को लोकप्रिय युवराज कहा था। अपने विरोधियों के प्रति वह शिष्ट और नम्र थे। यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वाजपेयी मंत्रिमंडल का कोई सदस्य उन लोगों के गले हार डालेगा जिन्होंने किसी को पीट-पीट कर मार डाला था। अफसोस अटलजी की उदार नीति खत्म हो गई लगती है।
देश तरक्की कर रहा है। कुछ ठहराव के बाद अर्थ व्यवस्था फिर तेजी से बढ़ रही है लेकिन देश की भावनात्मक सेहत खराब हुई है। समाज में नकारात्मकता भर गई है यह आगे चल कर बहुत तकलीफ देगी। सोशल मीडिया नफरत से भरा हुआ है। कोई नहीं जो इस जनून के दौर को रोक सके। आज तो हालत है कि जिस दिन संसद में काम होता है वह सुर्खी बन जाती है। आगे चुनाव है। घबराहट है कि वह हमें और जख्मी न छोड़ जाएं।
जनून का दौर है (The Madness in Us),