
भारत की विदेश नीति पर अपनी किताब ‘चौयसेस’ अर्थात ‘विकल्प’ में मनमोहन सिंह सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन भारत-अमेरिका रिश्ते पर तब ली गई पहल के बारे लिखते हैं, “यह पहल इस धारणा पर आधारित थी कि बदली परिस्थिति में यह हमारे हित में है। चाहे दोनों देश यह कहने में शर्माते हैं कि उनकी सांझेदारी चीन से संतुलन बनाने के लिए है पर यह स्पष्ट है कि चीन का उत्थान इसकी प्रमुख प्रेरणा है… भारत अपने को बदलने, अपने विकास के लिए तथा स्थिर तथा शांतमय वातावरण के लिए अमेरिकी टैकनालिजी, बाजार तथा समर्थन चाहता है।“
इस सब पर कोई विवाद नहीं हो सकता है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर सभी प्रधानमंत्रियों ने अमेरिका के साथ अच्छे रिश्तों का प्रयास किया लेकिन शीत युद्ध तथा रुस के प्रति हमारा झुकाव तथा पाकिस्तान के प्रति अमेरिका के झुकाव के कारण आपसी अविश्वास रहा है जो बांग्लादेश युद्ध के समय सतह पर आ गया था पर तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल गया है। भारत एक उभरती शक्ति है। पाकिस्तान ध्वस्त हो रहा है और रुस का प्रभाव कम कर अमेरिका इस वक्त एकमात्र सुपरपॉवर है। इसीलिए पिछले कुछ प्रधानमंत्रियों ने अमेरिका के साथ संबंध सुदृढ़ करने का अधिक प्रयास किया है जिसका परिणाम दिल्ली में पिछले सप्ताह हुई 2+2 वार्ता है जिस में भारत तथा अमेरिका के विदेशमंत्री तथा रक्षामंत्री ने हिस्सा लिया और जिस दौरान ‘कॉमकास’ रक्षा समझौते पर दोनों देशों ने हस्ताक्षर किए।
इस समझौते में अमेरिका भारत को आधुनिक हथियार तथा रक्षा तकनीक देगा। दोनों देशों की सेनाओं के बीच करीबी सम्पर्क स्थापित होगा। इस समझौते के बाद भारत का महत्व नाटो देशों की तरह हो गया है। अमेरिका का जापान तथा आस्ट्रेलिया के साथ ऐसा समझौता पहले ही है। अर्थात भारत और अमेरिका के रिश्ते जो पहले ही बेहतर थे अब और गहरे हो रहे हैं। एक प्रकार से यह स्वीकार किया गया है कि विश्व मंच पर सांझी भागीदारी ही दोनों के हित में है। इसका यह भी अर्थ है कि धीरे-धीरे अमेरिका भारत की रक्षा जरूरतों के लिए रुस की जगह ले रहा है, लेकिन इसके अपने अलग परिणाम निकलेंगे क्योंकि रुस न केवल चीन बल्कि पाकिस्तान के भी नजदीक जा रहा है चाहे पाकिस्तान के इस वक्त फटेहाल है।
यहां तक पहुंचना आसान नहीं था। भारत के कूटनीतिक क्षेत्रों में अभी भी अमेरिका के प्रति अविश्वास है। डॉनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद यह अविश्वास बढ़ा है क्योंकि उन्होंने यूरोपियन यूनीयन तथा कैनेडा जैसे साथी देशों के साथ समझौते रद्द करने शुरू कर दिए हैं। वाशिंगटन पोस्ट में जोआना स्लेटर लिखती हैं, “अमेरिकी अधिकारियों के लिए यह पेचीदा काम है कि भारत को इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि अमेरिका उस तरह असंतुलित नहीं जैसा उनका राष्ट्रपति है… दोनों देशों में चीन के उत्थान, समुद्री रास्तों की सुरक्षा, आतंकवाद पर लगाम लगाने जैसी कई एक जैसी चिंताएं हैं।“
अर्थात भारत-अमेरिका के मजबूत रिश्तों में अमेरिकी व्यवस्था निवेश कर रही है। लेकिन ट्रम्प हमारे जो प्रमुख दो सरदर्द हैं, चीन तथा पाकिस्तान, उनके बारे बहुत सख्त है। ट्रेड वॉर शुरू कर उन्होंने चीन के उत्थान पर रोक लगा दी है और पहली बार चीन के अंदर शी जिनपिंग की आलोचना हो रही है कि बिना उस स्तर तक पहुंचे उन्होंने चीन की महत्वाकांक्षा का ढंढोरा पीट डाला है और उन्होंने अमेरिका को उनके उभार के प्रति सावधान कर दिया है। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है ट्रम्प ने उस देश की सभी आर्थिक तथा सैनिक मदद रोक दी है। इमरान खान साहिब की तो सर मुंडाते ओले पडऩे वाली स्थिति है।
पहले मनमोहन सिंह की सरकार और अब नरेन्द्र मोदी सरकार ने रुस तथा चीन की नाराजगी का जोखिम उठाते हुए अमेरिका के साथ संबंधों को और मजबूत बनाया है। भारत और अमेरिका दोनों का नेतृत्व, पार्टी रेखाओं से उपर उठ कर, इस रिश्ते को मजबूत बनाना चाहता हैै। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफैसर हर्ष वी पंत सही लिखते हैं, “हकीकत है कि भारत-अमेरिका के रिश्ते इतने व्यस्क हो गए हैं कि इन के नीचे ढांचागत तथा संस्थागत परिवर्तनशीलता इसे केवल सकारात्मक दिशा में ही धकेल सकते हैं। “
इस सबसे समस्या डॉनाल्ड ट्रम्प के अस्थिर स्वभाव की है। अब तो वाशिंगटन में यह रहस्योघाटन हो रहे हैं कि उच्च अमेरिकी अधिकारी अपने राष्ट्रपति से कागज़ छिपाते हैं ताकि वह गलत निर्णय न ले लें लेकिन हमें अपने बारे आश्वस्त होना चाहिए क्योंकि दोनों देशों के बीच रिश्तों की नींव अब मजबूत हो चुकी है और दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। अमेरिका के साथ के बिना हम चीन का मुकाबला नहीं कर सकते। जैसे हर्ष वी पंत ने भी कहा है, ”एक आश्वस्त उभर रही ताकत के तौर पर भारत को संबंधों को नया आयाम देने में पहल करनी चाहिए न कि आसपास के शोर से प्रभावित होना चाहिए।“
लेकिन इस ‘आसपास के शोर’ की भी हम बिल्कुल अनदेखी नहीं कर सकते। चिंता चीन है कि भारत-अमेरिका के बढ़ते रिश्तों को वह किस तरह लेता है। यह समझौता चीन को नागवार गुजर सकता है। डोकलम में दोनों देशों के बीच टकराव हो ही चुका है। चीन यह भी जानता है कि भारत और अमेरिका की वर्तमान नजदीकी का बड़ा कारण वह खुद है। वुहान में शी जिनपिंग के साथ वार्ता कर प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को आश्वस्त करने की कोशिश की है लेकिन यह ‘कॉमकास’ समझौता तो भारत-अमेरिका के रिश्ते को और मजबूत कर गया। अमेरिका चाहता है कि भारत चार लोकतांत्रिक देशों, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया तथा भारत के अनौपचारिक गठबंधन ‘क्वॉड’ में भी शामिल हो जाए। भारत इस मामले में हिचकिचाता रहा है क्योंकि हम चीन को उत्तेजित नहीं करना चाहते हैं।
रुस भी भारत-अमेरिकी घनिष्ठता से खुश नहीं होगा क्योंकि अमेरिका अब रुस की जगह भारत का सबसे बड़ा रक्षा सामान स्पलायर बनता जा रहा है। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत रुस से स्-400 मिसाईल सिस्टम खरीदे लेकिन भारत इस मामले में झुका नहीं। अमेरिका भी शायद भारत के साथ गहरे हो रहे रक्षा रिश्तों को खराब नहीं करना चाहेगा पर अपनी आने वाली भारत यात्रा के दौरान रुसी राष्ट्रपति पुतिन भारत-अमेरिका के घनिष्ठ होते रिश्तों के बारे सवाल अवश्य उठाएंगे।
इसी तरह ईरान से तेल आयात तथा चाबहार बंदरगाह का मसला है जिसको लेकर भारत-अमेरिका में मतभेद हैं। मनमोहन सिंह की सरकार ने अमेरिका के साथ बेहतर होते रिश्तों की खातिर ईरान के साथ रिश्तों की कुर्बानी दे दी थी। मोदी सरकार की नीति क्या होगी कहा नहीं जा सकता क्योंकि ईरान महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है और चाबहार बंदरगाह का निर्माण भारत कर रहा है। हम इतनी जल्दी ईरान का साथ छोडऩे को तैयार नहीं होंगे।
अर्थात भारत और अमेरिका के गहरे हो रहे रिश्ते कूटनीतिक चुनौतियां भी खड़े कर रहे हैं। एच-1 बी वीसा के बारे अमेरिका का रवैया नकारात्मक लगता है। जुलाई में अमेरिका की एक संस्था ने बताया था कि भारतीय के एच-1 बी आवेदन रद्द होने में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह मामला भारत में बहुत संवेदनशील है। हाल ही में ट्रम्प ने व्यापार के मामले में फिर नाम लेकर भारत तथा चीन को रगड़ा लगाया है।
कई विशेषज्ञ शिकायत करते हैं कि अमेरिका पर अधिक भरोसा किया गया और चीन तथा रुस के साथ रिश्ते बिगाड़ लिए गए हैं। लेकिन ऐसे नाजुक मौके कई बार पहले भी आए हैं विशेषतौर पर बांग्लादेश युद्ध के समय तथा पोखरन विस्फोट के समय। भारत के कूटनीतिज्ञ देश हित को संभालने में सफल रहे हैं। विश्वास है हम अब फिर इसे संभाल लेंगे। पाकिस्तान में तो इस बात का विलाप ही रहता है कि कैसे वह भारत से कूटनीतिक मात खाते रहते हैं। हमें अपने पर और अपनी ताकत पर विश्वास करना चाहिए। जैसे शिव शंकर मेनन ने भी लिखा है,“जब तक भारत विश्व के प्रमुख उर्जा तथा व्यापार मार्ग के संगम पर अपने स्थान पर तथा अपने आर्थिक तथा सामाजिक ढांचे तथा अपनी मजबूत सांस्कृतिक पहचान के कारण अद्वितीय है, भारत की विशिष्ट विदेशनीति भारत के विशेष हितों की देखभाल करती रहेगी।“
कूटनीति के विकल्प और चुनौतियां (Choices and Challenges of Diplomacy),