2014 के आम चुनाव में मायावती की बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी बसपा का प्रदर्शन कमज़ोर रहा था तथा पार्टी को मात्र 19 सीटें ही मिली थीं। पिछले वर्षों में बसपा का ग्राफ तेजी से गिरा है। पांच सालों में बसपा ने 2021 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन केवल 32 सीटें ही जीत पाई। आठ राज्यों में वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई। लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 503 उम्मीदवार खड़े किए, एक भी जीत नहीं सका। 99 प्रतिशत उम्मीदवार तो जमानत तक नहीं बचा सके। जिन तीन प्रदेशों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें पिछली बार मध्यप्रदेश में बसपा को छ: प्रतिशत, राजस्थान में तीन प्रतिशत तथा छत्तीसगढ़ में केवल 4 प्रतिशत मत ही मिले थे।
इतने कम और घटते जनाधार के बावजूद मायावती ने इन चुनावों में कांग्रे्रस का हाथ तिरस्कार के साथ ठुकरा दिया। छत्तीसगढ़ में उन्होंने अजीत योगी की पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया जबकि मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में उन्होंने अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की है। कांग्रेस का हाथ दुत्कारते हुए उन्होंने उसे ‘अहंकारी’ घोषित कर दिया पर इतनी मेहरबानी अवश्य की कि राहुल-सोनिया को अच्छे लोग कह दिया। अर्थात लीडर अच्छे पर पार्टी बुरी! कांग्रेस से रिश्ता तोडऩे से पहले उन्होंने मध्यप्रदेश के लिए 22 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। दुखी कांग्रेसी नेता कहते हैं कि मायावती वहां वह सीटें मांग रही थी जहां से उनकी पार्टी जीत नहीं सकती थी। इसका अर्थ यह भी है कि मायावती केवल अपनी ही नहीं किसी और की राजनीति भी खेल रही है इसीलिए कांग्रेस ने भी बहुत मनाने की कोशिश नहीं की।
कांग्रेस तथा राहुल गांधी के लिए मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़़ के चुनाव बहुत महत्व रखते हैं क्योंकि यहां सीधा मुकाबला भाजपा से है जो शासन विरोधी भावना का सामना कर रही है। अगर कांग्रेस यहां जीत जाती है या उसका संतोषजनक प्रदर्शन रहता है तो विपक्ष का नेतृत्व हासिल करने की तरफ राहुल गांधी का यह बहुत बड़ा कदम होगा। वह कह सकेंगे कि मैं और मेरी पार्टी ही नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं। इसीलिए राहुल गांधी मायावती या किसी और के साथ अधिक सांझेदारी में दिलचस्पी नहीं रखते। कर्नाटक में विपक्षी मंच पर सोनिया-मायावती में जो आत्मीयता नज़र आई थी वह अब खत्म हो चुकी है। मायावती अपनी राजनीति करती है। उनकी अपनी महत्वकांक्षा है। स्पष्ट मंज़िल है। वह देश की पहली दलित प्रधानमंत्री बनना चाहती है इसीलिए कई अवसरवादी समझौते किए हैं। कई यू-टर्न लिए हैं। उनकी राजनीति का केवल एक सिद्धांत है, मायावती फर्स्ट। लेकिन मजबूरी है कि यह हो नहीं सकेगा। कोई भी दूसरी पार्टी या लीडर उन्हें प्रधानमंत्री देखना नहीं चाहता। भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी है तो कांग्रेस के पास राहुल गांधी। तीसरे मोर्चे में शरद पवार तथा ममता बैनर्जी की अपनी महत्वकांक्षा है। यहां कहीं भी मायावती की गुंजायश नहीं है।
मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं लेकिन इसके बावजूद उनकी राजनीति में स्थायित्व नहीं है। बड़ा कारण राज अहंकार है। वह अपने लोगों से भी कटी रहती है जिस कारण नए नौजवान दलित नेता अब उन्हें चुनौती देने लगे रहे हैं। फूलपुर तथा गोरखपुर में सपा के साथ मिल कर उन्होंने भाजपा को धूल चाटने पर मजबूर कर दिया। उसी के बाद से बहनजी खुद को ‘किंग’ नहीं तो ‘किंग मेकर’ समझने लगी है।
भाजपा तथा कांग्रेस के बाद बसपा तीसरी पार्टी है जिसका अखिल भारतीय आधार है। बसपा को 200 से अधिक सीटों पर 1 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे लेकिन यह 1 प्रतिशत इतना नहीं है जो मायावती की महत्वकांक्षा को पूरा कर सके। इसके लिए उन्हें साथ चाहिए। फूलपुर तथा गोरखपुर में प्रदर्शन अच्छा था क्योंकि सपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा गया। अकेले बसपा का फिर बुरा हाल होता लेकिन मायावती का इतिहास साक्षी है कि वह एक जगह नहीं टिकती। कांग्रेस, भाजपा, सपा सब को वह छोड़ चुकी है इसीलिए सब उनके साथ गठबंधन करने से घबराते हैं और गठबंधन के बिना मायावती का कोई महत्व नहीं।
मायावती के पक्ष में बहुत कुछ था केवल वह अपनी पूंजी लुटाती जा रही है। एक जमाने में वह बड़ी आशा के तौर पर उभरी थी। पढ़ी-लिखी है। दबंग है। जनाधार है पर उनके नैतिक और राजनीतिक समझौते उनकी चमक खत्म कर गए और आज उनके बारे कहा जा सकता है,
अब के आयेगी खिज़ा तो किस से करेंगे शिकवा,
हमसे तो अपनी बहारों को संभाला नहीं गया
उनमें यह ताकत अवश्य है कि बसपा के वोट को जिसे चाहे दिलवा सकती है लेकिन कमजोरी यह है कि दूसरे उन्हें वोट नहीं दिलवा सकते। एक विशेष समाजिक आधार उनके प्रति वफादार है लेकिन कमजोरी यह है कि यह समाजिक आधार ही उन्हें सीमित भी करता है। उत्तर प्रदेश में जाटव उनके प्रति वफादार है लेकिन कोई और समाजिक वर्ग उन्हे ठोस वोट नहीं देता। इसीलिए मायावती की राजनीति भटकती रहती है। मंजिल नजदीक आकर भी दूर रहती है। अगर उन्होंने वास्तव में बड़ा खिलाड़ी बनना है तो उन्हें कम से कम एक और बड़ा समाजिक वर्ग साथ चाहिए।
पहले भी गठबंधन में शामिल होकर वह बाहर आ चुकी हैं। उन्हें केवल अपना हित चाहिए किसी दूसरी विचारधारा में उनका विश्वास नहीं लेकिन उन्हें भी अहसास होगा कि देश की राजनीति बदल गई है। नरेन्द्र मोदी देश में सबसे लोकप्रिय नेता हैं और वह उत्तर प्रदेश में वाराणसी में जम गए हैं। दूसरे नंबर पर राहुल गांधी हैं जो कह ही चुके हैं कि अगर सहयोगी चाहेंगे तो जरूर पीएम बनंूगा। अर्थात मायावती की कितनी भी महत्वकांक्षा हो दिल्ली की मंजिल उनके लिए दूर है। उन्हें उपर चढ़ाने के लिए किसी ने सीढ़ी नहीं लगानी। उलटा मायावती के लिए आंतरिक चुनौती बढ़ रही है। बड़ा आरोप तो यह ही है कि वह भी अपने परिवार को बढ़ावा दे रही है। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। युवा भतीजे अक्षय कुमार जो लंदन से पढ़ कर आया है को आगे किया जा रहा है। मायावती की बड़ी समस्या है कि उनके तथा उनके भाई आनंद कुमार के खिलाफ गंभीर मामले हैं। ईडी तथा आयकर विभाग ने पाया है कि आनंद कुमार की आय में 7 वर्ष में 18000 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। मायावती ईडी तथा सीबीआई से भयभीत है इसीलिए उन्हें पीछे से चलाना मुश्किल नहीं। यह भी और एक कारण है कि विपक्ष में कोई उन पर विश्वास नहीं करता। वह कभी भी यह कह कर कि उन्हें ‘सम्मानजनक’ जगह नहीं दी गई किसी भी गठबंधन को छोड़ सकती है। सत्तारुढ़ पार्टी के लिए उनका इस्तेमाल करना मुश्किल नहीं है।
भीम आर्मी के चंद्र शेखर आजाद को रिहा कर मायावती को नई चुनौती दी गई है। जिग्नेश मेवानी और चंद्र शेखर आजाद युवा दलित नेता हैं जिन्होंने अभी ओच्छी राजनीति से समझौता नहीं किया इसलिए इनकी लोकप्रियता और आकर्षण है। मायावती चंद्र शेखर की रिहाई से चिढ़ी हुई है जो इस बात से पता चलता है कि जब चंद्र शेखर जो उनकी ही तरह जाटव हैं, ने उन्हें ‘बुआ’ कहा तो मायावती ने तत्काल कह दिया कि यहां कोई ‘बुआ-भतीजा’ नहीं है। अभी भीम आर्मी बसपा का मुकाबला नहीं कर सकती पर आगे का कौन कह सकता है?
इस वक्त तो मायावती अकेला चल रही है। मायावती के लिए किसी महगठबंधन का कोई फायदा नहीं अगर वह उसकी नेता नहीं बनती। विपक्षी टोले में स्थिति विचित्र बनती जा रही है। राफेल का मामला केवल राहुल गांधी उठा रहे हैं बाकी सभी विपक्षी नेता खामोश हैं। शरद पवार तो प्रधानमंत्री का समर्थन कर चुके हैं। अर्थात वह सब राहुल की चौधर स्वीकार नहीं करना चाहते। विपक्षी एकता या महागठबंधन तो मृगतृष्णा नज़र आती है। इस बीच कहीं मायावती भी फंसी हुई हाथ-पैर मार रही है। सर पानी से उपर रखने और किसी तरह प्रासंगिक रहने की मजबूरी है। वह जानती है कि अगर इस बार भी पिछले जैसा हश्र हुआ तो बाकी जीवन अपनी मूर्तियां निहारते ही निकालना पड़ेगा।
मायावती, मंज़िल और मजबूरी (Mayawati, Ambition and Limitation),