
कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं से कहा है कि वह एक महीना टीवी चैनलों से दूर रहें। जिस वक्त पार्टी बुरी तरह चुनाव में पिटी है, नेताओं तथा कार्यकर्त्ताओं का मनोबल न्यूनतम स्तर पर है, ऐसे निर्णय पार्टी की सेहत के लिए और हानिकारक साबित हो सकते हैं। इस वक्त तो यह भी मालूम नहीं कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी रह रहें हैं या जा रहें हैं? सोनिया गांधी को कांग्रेस की संसदीय दल की नेता चुन लिया गया। सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कमान संभालते हुए कहा था कि राहुल अब मेरा भी नेता है लेकिन अब संसद में सोनिया गांधी राहुल की नेता बन गई। परिवार का यह गोरखधंधा समझ नहीं आ रहा लेकिन ऐसी कांग्रेस पार्टी बन चुकी है। सब कुछ परिवार ही है। जब देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी को दोबारा जनादेश देकर जबरदस्त संदेश दिया है कि ‘बड़े’ परिवारों की राजनीति का अंत हो रहा है, कांग्रेस फिर वही परोस रही है जो लोगों को बेस्वाद लग रहा है। प्रियंका गांधी को फटाफट पार्टी का महासचिव बना दिया जबकि कांग्रेस में ऐसे लोग भरे हुए हैं जो वर्षों से पार्टी की सेवा कर रहे हैं लेकिन उन्हें पद से दूर रखा गया। फिर एक रोड शो में सारे वाड्रा परिवार, पति, पत्नी तथा बच्चों को ले जाया गया। क्या संदेश था? कि हमारे बाद हमारी अगली पीढ़ी भी तुम पर हकूमत करेगी? अभी से हक जताया जा रहा है?
कांग्रेस पार्टी के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मौका वह था जब दिसम्बर, 2017 में राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बारे कहा जा सकता है,
सिर्फ एक कदम उठा था गलत राह-ए-शौक में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही
पार्टी में और भी लोग हैं जो नेतृत्व दे सकते थे। पीवी नरसिम्हा राव का नाम याद आता है जिन्होंने देश को सही दिशा दी थी पर जिनकी मौत के बाद भी अवमानना की गई क्योंकि उन्होंने ‘परिवार’ की परवाह नहीं की थी। मनमोहन सिंह भी बहुत सफल होते अगर पीछे से सोनिया गांधी लगाम न खींचती। लेकिन बागडोर राहुल गांधी को सौंप दी गई जिनकी ख्याति थी कि वह असफल रहे हैं। ठीक है राहुल गांधी ने मेहनत बहुत की। तीन भाजपा शासित प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारों की स्थापना करवाई पर राष्ट्रीय स्तर पर वह विकल्प नहीं बन सके। वह लोगों से रिश्ता कायम नहीं कर सके। ‘चौकीदार चोर है’ या ‘गब्बर सिंह टैक्स’ जैसे जुमले उलटे पड़े। ‘मोदी जी मुझसे आंख से आंख नहीं मिलाते’ जैसे कथन बचकाना नजर आए जिस तरह संसद में प्रधानमंत्री से जबरदस्ती लिपटना और फिर आंख मारना अत्यंत फिज़ूल नजर आए। पारिवारिक अहंकार कि हमारा ही बड़ी गद्दी पर अधिकार है, को व्यक्त करते हुए सोनिया गांधी चुनाव अभियान मेें गर्ज उठी कि वह नरेन्द्र मोदी को फिर प्रधानमंत्री बनने नहीं देंगी। चुनाव परिणाम ने इस पारिवारिक अहंकार को उसकी जगह बता दी।
अब कांग्रेस के शिखर पर पूरी तरह से अस्तव्यस्तता है। पराजय पर विचार करने के लिए बुलाई गई बैठक में राहुल गांधी ने अशोक गहलोत, पी. चिदम्बरम तथा कमलनाथ पर आरोप लगाया कि वह परिवारवाद को बढ़ावा दे रहें हैं और उन्होंने पार्टी से उपर अपने बेटों को रखा। हैरानी है कि राहुल गांधी को अपने आरोप में कुछ भी मज़ाकिया नहीं लगा। इंदिरा गांधी ने पहले पुत्र संजय को और फिर पुत्र राजीव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सोनिया गांधी भी इसी जद्दोजहद में लगी हुई है कि उनका पुत्र राजनीति में अच्छी तरह से स्थापित हो जाए। न इंदिरा गांधी को और न ही सोनिया गांधी को पुत्र के सिवाय पार्टी में कोई और नज़र आया। जब आप करो तो सही है जब दूसरे करें तो सही नहीं? बैठक में नाराज़ प्रियंका गांधी का कहना था कि पार्टी के हत्यारे इसी कमरे में हैं। उन्होंने वरिष्ठ नेताओं को मुखातिब होकर कहा, ‘नरेन्द्र मोदी से लडऩे के लिए मेरे भाई को अकेला छोड़ दिया गया।’
यह शिकायत गलत नहीं पर पार्टी ही ऐसी बना दी गई है कि वह इस एक परिवार के इर्द-गिर्द सिमट गई है। किसी और नेता की गुंजाइश तो आप ने ही खत्म की है। रोड शो में भी परिवार के सदस्य ही लाइमलाइट में थे। देश बदला है। बड़े-बड़े राजनीतिक परिवारों के वंशज धूल चाटने को मजबूर हुए हैं। इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ गई हैं क्योंकि हम ‘हम’ हैं इसलिए जनता के समर्थन पर हमारा विशेष अधिकार है। इस वक्त इस सारी पात्रता की राजनीति के प्रति विद्वेष है।’ क्योंकि मैं एक विशेष परिवार से हूं इसलिए मैं नेता हूं, मेरी बहन भी नेता है, हमारी संतान भी नेता बनेगी। आपको यह स्वीकार करना होगा। ‘लेकिन लोगों ने, विशेष तौर पर युवाओं ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया। राहुल गांधी के लिए विशेष धक्का है कि जनता ने उन्हें पीएम मटिरियल नहीं समझा। चाहे उन्होंने कृषि की बुरी हालत तथा बेरोजगारी के सही मुद्दे उठाए पर लोगों ने यह नहीं समझा कि उनके पास इनका इलाज है। न ही राहुल फैसला कर सके कि बाकी विपक्षी पार्टियों के साथ क्या संबंध चाहिए? वह यह भी फैसला नहीं कर सके कि उनकी प्राथमिकता नरेन्द्र मोदी को हराना है या अपनी पार्टी को खड़ा करना है? इस विरोधाभास में वह दो किश्तियों के बीच गिर गए और अमेठी की हार बता गई कि राहुल का किस तरह लोगों से अलगाव है और लोगों का उनसे अलगाव है।
आगे क्या? पहले तो परिवार को समझना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी मां-बेटा-बेटी के बीच एक पारिवारिक प्रबंध ही नहीं है। लोगों ने बार-बार स्पष्ट कर दिया कि एक मशहूर कुलनाम भारत की चुनावी राजनीति में जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है। गांधी परिवार अब इतिहास के गलत किनारे पर खड़ा है। परिवार ने भी देखा होगा कि इस बार पार्टी में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद उन्हें रोकने के लिए वह भावनात्मक सैलाब नहीं उठा जैसा सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे या प्रधानमंत्री न बनने के फैसले के बाद उठा था। राहुल ने भी एक बार फिर नेताओं से मिलने से इंकार कर इस प्रभाव को बल दिया है कि वह 24&7 की राजनीति के उपयुक्त नहीं है।
योगेन्द्र यादव ने एक लेख लिखा है CONGRESS MUST DIE, अर्थात कांग्रेस को जरूरी मरना चाहिए। उनका तर्क है कि “अगर वह ‘भारत के विचार’ को बचाने के लिए भाजपा को रोक नहीं सकते तो भारत के इतिहास में उनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं है… इस वक्त वह विकल्प बनने के रास्ते में सबसे बड़ी अकेली बाधा है।” गांधी जी ने भी चाहा था कि आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर दिया जाए लेकिन वह अलग संदर्भ में था। लेकिन मैं नहीं समझता कि कांग्रेस को मरना चाहिए। देश को एक विपक्ष की जरूरत है और इस वक्त केवल कांग्रेस पार्टी ही यह विकल्प हो सकती है लेकिन यह साफ है कि गांधी परिवार अब इसे पुनर्जीवित नहीं कर सकता इसलिए यह जरूरी है कि RAHUL MUST QUIT अर्थात राहुल-मुक्त कांगे्रेस चाहिए। राहुल गांधी देश को स्वीकार नहीं। उन्हें किसी और को मौका देना चाहिए।
पर क्या राहुल गांधी अध्यक्ष का पद छोड़ किसी और को मौका देंगे? मुझे इसकी आशा नहीं। संसदीय दल की अध्यक्षा बन सोनिया गांधी ने संकेत दे दिया है कि कांग्रेस के उपर परिवार की जकडऩ कमजोर होने वाली नहीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इंसान में एक DEATH WISH अर्थात खुद को खत्म करने की आत्मघाती तमन्ना रहती है। ऐसी ही इच्छा कई बार संस्थाओं में भी पैदा होती है जैसी आजकल कांग्रेस पार्टी की लगती है जिस पर मुनीर नियाज़ी के अलफाज़ में कह सकते हैं,
कुज शहर दे लोग वी ज़ालम सन
कुज सानू मरन दा शौक वी सी!