दिल्ली के दंगों में मरने वालों की संख्या 50 के करीब पहुंच गई है। करोड़ों की जयदाद नष्ट हो गई है। केवल एक इलाके में 170 वाहन जला दिए गए हैं। देश की और बड़ी हानि हुई है क्योंकि साम्प्रदायिक सौहार्द पर आंच आ गई और एक विकासशील,शांतमय, लोकतांत्रिक देश की हमारी छवि तहस-नहस हो गई है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो देश में बहुत जोश था। दो बार अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा से इस बात की पुष्टि हो गई है कि अब भारत बड़े अंतर्राष्ट्रीय मेज़ में बैठने वाला स्थाई देश बन चुका है। देश में आत्मविश्वास था जो बालाकोट के हमले से और पक्का हो गया था। लेकिन दिल्ली चुनाव के लिए जबरदस्त धु्रवीकरण के प्रयास के कारण अचानक देश परेशान हो उठा है। तीन दिन जिस दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प दिल्ली में थे, हमारी राष्ट्रीय राजधानी जलती रही। देश-विदेश के अखबारों की सुर्खियों में डॉनल्ड ट्रम्प की यात्रा पीछे पड़ गई और दिल्ली के जले हुए इलाकों के चित्र प्रमुख हो गए। आज यह हालत है कि कोलकाता तक ‘गोली मारो’ के नारे लग रहें हैं। जो जिन्न बाहर निकाला था वह बोतल में वापिस जाने को तैयार नहीं।
वह देश तरक्की नहीं कर सकता जहां सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति बचैन हो। सरकार द्वारा नागरिकता का मामला खोलने तथा कुछ नेताओं के चुभते हुए बयानों ने पुरानी दबी हुई धार्मिक तथा जातीय दरारें नंगी कर दी हैं। एक मंत्री ने कहा था कि “अगर नागरिकता दे दी जाए तो आधा बांग्लादेश भारत आ जाएगा।” लेकिन जनाब, अब वह स्थिति नहीं रही। आज बांग्लादेश की आर्थिक दर हमसे बेहतर है। न केवल आर्थिक दर में बल्कि जिंदगी की गुणवत्ता में भी पाकिस्तान को छोड़ कर बाकी हमारे पड़ोसी देश हमसे आगे निकल गए हैं। इसी पर कहीं कार्टून भी छपा था जिसमें एक शख्स दूसरे को कह रहा है कि ‘एनआरसी लाने की जरूरत नहीं मेरे ख्याल में अवैध शरणार्थी खुद ही वापिस चले जाएंगे।’ यह कहां आ गए हम? दुनिया भर में हमारी जो विशेषता गिनी जाती थी कि सब समस्याओं के बावजूद यह एक धर्म निरपेक्ष धधकता लोकतंत्र है, वह अब खतरे में पड़ गई है। जिसकी दुनिया प्रशंसा करती थी उसे हमने खुद आग लगा दी। हम एक असुरक्षित आपस में भिड़ रहा राष्ट्र क्यों बन गए? दिल्ली के बाद मेघालय में लोग मारे गए हैं। बांग्लादेश के ग्रहमंत्री असदुज्जामन खान ने तो मज़ा लेकर कहा ही है “इन्हें आपस में लड़ लेने दो,” जिस पर पूर्व रक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन का कहना था सोचिए कि अगर हमारे दोस्त ऐसा महसूस करतें हैं तो हमारे दुश्मन कितने खुश होंगे? अफसोस अपनी क्रिया और निष्क्रियता दोनों से मौका तो हमने ही दिया है।
जब देश आजाद हुआ तो एक तरफ पंजाब तो दूसरी तरफ बंगाल में दंगे शुरू हो गए थे। जिस वक्त दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था महात्मा गांधी बंगाल के दंगा पीड़ित क्षेत्र में घूम रहे थे। कोलकाता के बलियाघाट जहां गांधी जी ठहरे हुए थे वहां खूब दंगे भडक़ गए थे। 50 लोग मारे जा चुके थे। गांधी जी ने फैसला कर लिया कि जब तक यह दंगे बंद नहीं होते वह अनशन पर बैठ जाएंगे। बहुत लोगों ने उन्हें रोका। एक ने कहा कि अगर आपको कुछ हो गया तो हालत बेकाबू हो जाएंगे पर बापू का जवाब था, “कम से कम मुझे यह देखना तो नहीं पड़ेगा।” पर उनके उपवास के अगले दिन से ही हिन्दू तथा मुसलमान गुंडों ने उनके पास आकर अपने-अपने हथियार समर्पण करने शुरू कर दिए। दोनों समुदायों ने मिल कर शांति मार्च निकाला। सभी दलों कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा के नेताओं ने इकट्ठे आकर गांधी जी को आश्वासन दिया कि अब और दंगे नहीं होंगे। तीन दिन में कोलकाता शांत हो गया और गांधी जी ने तब अपना उपवास तोड़ा। दूसरी तरफ पंजाब में फौज और पुलिस की मौजूदगी के बावजूद दंगे नहीं रुक रहे थे। लार्ड माऊंटबैटन ने माना था कि “एक निहत्था आदमी 50,000 फौज से अधिक भारी पड़ रहा।”
यह नेतृत्व है। वह नेतृत्व जिसकी नैतिकता और निष्पक्षता सब स्वीकार करते थे। जवाहरलाल नेहरू खुद डंडा पकड़ कर भीड़ को शांत करने के लिए कूद पड़ते थे। जब तीन दिन दिल्ली जल रही थी तो ऐसे किसी नेतृत्व के कोई लक्ष्ण दूर-दूर तक नज़र नहीं आए थे। सडक़ों पर एक भी नेता नज़र नहीं आया जबकि ऐसे नेतृत्व की बहुत जरूरत है जो इस परेशान और घबराए देश के जख्मों पर मरहम लगाएं। आखिर में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को चांद बाग की गलियों में निकलना पड़ा जबकि यह काम अफसर का नहीं जन प्रतिनिधियों का है। जब दिल्ली जल रही थी तो उसे बुझाने की जगह अरविंद केजरीवाल राजघाट पर प्रार्थना करने पहुंच गए। माना कि कानून और व्यवस्था मशीनरी पर उनका कोई नियंत्रण नहीं लेकिन वह दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। अभी दिल्ली उन पर भरोसा प्रकट कर रही है लेकिन केजरीवाल ने तो फैसला कर लिया है कि वह गांधी जी के तीन बंदरों में विश्वास रखतेें हैं, न बुरा देखो, न बुरा सुनो और न बुरा कहो। पीवी नरसिम्हा राव ने एक बार कहा था कि ‘अनिर्णय भी एक निर्णय है।’ दिल्ली के मुख्यमंत्री का इस कथन में पूरा विश्वास लगता है।
न ही केन्द्रीय नेतृत्व ने तीन दिन कुछ अधिक हरकत दिखाई। यह हैरान करने वाली बात है क्योंकि डॉनल्ड ट्रम्प दिल्ली में थे और प्रधानमंत्री ने इस यात्रा को सफल बनाने के लिए बहुत जोर लगाया था। नरेन्द्र मोदी के पहले कार्यकाल में देश शांत रहा था लेकिन अब अचानक स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। 2020 की 2014 से तुलना कीजिए तो सब स्पष्ट हो जाएगा। वह उत्साह गायब हो गया। इसे फिर से कायम करना है। जिस वक्त सबसे अधिक जरूरत थी दिल्ली पुलिस का नेतृत्व कमज़ोर, पक्षपाती तथा अक्षम पाया गया। रिटायर्ड पुलिस अफसर प्रकाश सिंह ने भी कहा है कि “यह सवाल दिल्ली पुलिस से पूछा जाना चाहिए कि आप में इतनी निष्क्रियता क्यों आ गई?” दिल्ली के लगभग सभी पूर्व पुलिस कमिश्नर इस बल की हालत पर सवाल उठा रहे हैं।
दिल्ली के दंगे कितने गंभीर है यह इस बात से पता चलता है कि यह 1950 के बाद सबसे बड़ा हिन्दू-मुस्लिम दंगा था। विशेषज्ञ आशुतोष वार्णोय ने बताया कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद दिल्ली में बड़ा ऐसा दंगा हुआ था जिसमें 39 लोग मारे गए थे। इस बार यह संख्या पार हो गई। सबसे बड़ा दंगा तो 1984 में सिख विरोधी दंगा था। 2020 तथा 1984 में समानता यह है कि दोनों बार तीन दिन पुलिस निष्क्रिय रही थी। यह दंगा हुआ भी उस वक्त जब मोदी सरकार अर्थ व्यवस्था को पटरी में लाने का भरसक प्रयास कर रही थी लेकिन दिल्ली में भडक़ी आग ने यह काम और मुश्किल कर दिया क्योंकि बाजार तथा निवेशक का विश्वास डोल गया है। किसी भी चीज के नवनिर्माण के लिए कानून तथा व्यवस्था की मज़बूती बहुत जरूरी है। इस मामले ने हैरान करने वाली सरकार की असफलता की कीमत सभी को चुकानी पड़ेगी।
दिल्ली अभी बेचैन है लेकिन इस उपद्रव और नफरत फैलाने के प्रयास के बीच कई खूबसूरत खबरें भी बाहर निकली हैं जहां हिन्दुओं ने मुसलमानों की रक्षा की और मुसलमानों ने अपने पड़ोसी हिन्दुओं की। 12 वर्ष के विपिन ने दंगे के दौरान अपने स्कूल के दोस्त अयान से मोबाईल पर पूछा, “तू ठीक है?” जवाब आया, “हां मैं ठीक हूं, तुम ठीक हो?” एक दिल्ली के मौजपुर में रहता है तो दूसरा नूरइलाही में। दोनों उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगा ग्रस्त इलाके मेें पड़ते हैं। यह नफरत उनकी दोस्ती को तोड़ नहीं सकी लेकिन जिनका सब कुछ तबाह हो गया? बंदे भी मारे गए, मकान भी जल गया, कारोबार भी उजड़ गया?
हमारे लोगों पर यह पागलपन क्यों सवार हो जाता है? कुछ नेता इस क्रूरता के साथ लोगों की जिंदगियों से क्यों खेलते हैं? बशीर बद्र ने सही लिखा है,
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में!